सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान बेंच ने अनुच्छेद 370 पर 9 अगस्त को चौथे दिन की सुनवाई पूरी कर ली है। आज एक याचिकाकर्ता की ओर से वकील गोपाल सुब्रमण्यम ने अपनी दलीलें पूरी कर लीं। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान बेंच इस मामले पर अगली सुनवाई 10 अगस्त को करेगी।
एक याचिकाकर्ता मुज्जदर इकबाल खान की ओर से सुब्रमण्यम ने कहा कि व्याख्या के अनेक दृष्टिकोण हैं। जिसे हम ऐतिहासिक तर्क, पाठ्य, सैद्धांतिक, विवेकपूर्ण और संरचनात्मक कह सकते हैं। हम इस मामले को चाहे जिस भी नजरिए से देखें, परिणाम एक ही होगा। उन्होंने कहा कि दोनों संविधान एक साथ अस्तित्व में आए और वो एक-दूसरे की बात करते हैं। उनका अस्तित्व भारत और जम्मू-कश्मीर के बीच संबंधों का उत्कृष्ट उदाहरण है। उन्होंने कहा कि संविधान सभा की परिभाषा के मुताबिक एक प्राथमिक सभा है, जिसे संविधान बनाने का असाधारण कार्य मिला हुआ था। इसीलिए संशोधन शक्ति को सदैव मिली हुई शक्ति कहा जाता है।
विवाद एक गलतफहमी पर आधारित
सुब्रमण्यम ने कहा कि हमारा संविधान असममित संघवाद को मान्यता देता है। इसका उद्देश्य लोगों की विशेष परिस्थितियों और जरूरतों पर ध्यान देना है। विलय के समय जम्मू-कश्मीर किसी अन्य राज्य की तरह नहीं था। यही कारण है कि अनुच्छेद 306ए के मसौदे में जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा द्वारा निर्णय लेने की बात कही गई है। दरअसल, विवाद एक गलतफहमी पर आधारित है, क्योंकि अनुच्छएध 370 के तहत राष्ट्रपति द्वारा शक्ति का एकतरफा प्रयोग संभव है। सुब्रमण्यम ने कहा कि जिस तरह भारत की संविधानसभा की बहस हुई और उसी तरह जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की बहस भी प्रेरणादायक थी। भारत में भूमि सुधारों पर ध्यान देने वाले पहले राज्यों में से एक कश्मीर था। वास्तव में उस समय उनकी चिंता यह थी कि हमें लोगों को जमीन पर अधिकार देना चाहिए और उन्हें स्थायी निवासी बनाया जाए। जहां जम्मू-कश्मीर का कहना है कि अपना संविधान बनाएंगे लेकिन हम भारत सरकार से अनुरोध करेंगे कि य़ह संविधान अपवाद होगा। जिसको हमें जम्मू-कश्मीर के लिए अनुच्छेद 370 के तहत लागू करने की आवश्यकता है। यही कारण है कि हमारे पास 3 संवैधानिक आदेश 1950, 1952 और 1954 के हैं। भारत सरकार ने उस अनुरोध को स्वीकार कर लिया और 1954 का आदेश जारी किया। उन्होंने हमारे संविधान के कई हिस्सों को छोड़ दिया है, क्योंकि वे चाहते थे कि यह उनके संविधान में आए। सुब्रमण्यम ने कहा कि दोनों संविधान एक-दूसरे से अनुच्छेद 370 से जुड़े थे।
इस तरह चली सुनवाई
-आठ अगस्त को वकील कपिल सिब्बल ने अपनी दलीलें पूरी कर ली थीं। कपिल सिब्बल ने जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा के उद्देश्य को रेखांकित करने वाले शेख अब्दुल्ला का 05 नवंबर 1951 के भाषण का हवाला दिया था जिसमें भारत में विलय स्वीकार किया। सिब्बल ने जम्मू-कश्मीर में पुराने इतिहास का हवाला देते हुए कहा था कि जब हमलावर तेजी से श्रीनगर की ओर बढ़ रहे थे, तो हम राज्य को बचाने का केवल एक ही तरीका सोच सकते थे और वह एक मित्रवत पड़ोसी से मदद मांगना। वही राजा हरि सिंह ने किया था। सिब्बल ने कहा था कि जम्मू-कश्मीर के लोगों ने खुद के लिए संविधान बनाया जैसे भारत के लोगों ने खुद को भारतीय संविधान दिया। इन सबके केंद्र में लोगों की इच्छा ही थी।
-सिब्बल ने सवाल उठाया कि क्या आप एक कार्यकारी अधिनियम द्वारा संविधान के प्रावधानों को हटा सकते हैं। आप अनुच्छेद 3 को बदलकर जम्मू-कश्मीर पर लागू संविधान को नहीं बदल सकते हैं। आप किसी कार्यकारी अधिनियम द्वारा विधान सभा को संविधान सभा में नहीं बदल सकते। भारत संघ का एक कार्यकारी अधिनियम जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू भारत के संविधान के प्रावधानों को एकतरफा रूप से बदल नहीं सकता है।
-पांच सदस्यीय बेंच में चीफ जस्टिस के अलावा जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत शामिल हैं। उल्लेखनीय है कि 02 मार्च 2020 के बाद इस मामले को पहली बार सुनवाई के लिए लिस्ट किया गया है। सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं में कहा गया है कि अनुच्छेद 370 को हटाने के बाद केंद्र सरकार ने कई कदम उठाए हैं। केंद्र सरकार ने राज्य के सभी विधानसभा सीटों के लिए एक परिसीमन आयोग बनाया है। इसके अलावा जम्मू और कश्मीर के स्थायी निवासियों के लिए भी भूमि खरीदने की अनुमति देने के लिए जम्मू एंड कश्मीर डेवलपमेंट एक्ट में संशोधन किया गया है। याचिका में कहा गया है कि जम्मू-कश्मीर महिला आयोग, जम्मू-कश्मीर अकाउंटेबिलिटी कमीशन, राज्य उपभोक्ता आयोग और राज्य मानवाधिकार आयोग को बंद कर दिया गया है।
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-गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने 02 मार्च 2020 को अपने आदेश में कहा था कि इस मामले पर सुनवाई पांच जजों की बेंच ही करेगी। सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच ने मामले को सात जजों की बेंच के समक्ष भेजने की मांग को खारिज कर दिया था।
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