भारत की विभिन्नता में एकता (unity in diversity) की विशिष्ट विशेषता पर चोट करने का इतिहास काफी पुराना है। औपनिवेश काल में अंग्रेजों ने भारत (India) में लंबे समय तक निर्बाध शासन करने के लिए भारत की जाति व्यवस्था (Caste System) को अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए बड़ा हथियार समझा और इसकी बुनियादी कोशिश भी की । लेकिन वे कामयाब नहीं हो पाए। आजादी के 76 वर्षों बाद एक बार से जाति का मुद्दा बड़े जोरों से उछाला जा रहा है।
बिहार ने की शुरुआत, कांग्रेस दे रही तूल
इसकी शुरुआत बिहार (Bihar) की लालू यादव की पार्टी के सहयोग से बनी नीतीश सरकार ने की है, जिसने अपने राज्य में जातिगत जनगणना (caste census) कराया है। हालांकि इसे जनगणना के बजाय सर्वे कहा जा रहा है। इस सर्वे के अनुसार बिहार की कुल आबादी में सबसे अधिक अति पिछड़े वर्ग की जनसंख्या 36 प्रतिशत, पिछड़ा वर्ग 27 प्रतिशत, अनुसूचित जाति 19 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति 1.68 प्रतिशत है। सर्वे में सामान्य वर्ग की कुल जनसंख्या 15.52 प्रतिशत बतायी गई है। इस सर्वे के सार्वजनिक होने के साथ ही भागीदारी और हिस्सेदारी के बाबत आवाज उठने लगी है। इसमें ध्यान देने की बात यह है कि हिस्सेदारी से तात्पर्य सीधे तौर पर सरकार की तरफ से मिलने वाले आरक्षण से है। यह मुद्दा तब और गंभीर बना गया, जब देश की एक प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस ने भी जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी की आवाज उठा दी। राहुल गांधी एक प्रेस कांफ्रेंस में वहां उपस्थित ओबीसी पत्रकारों की संख्या पूछने लगे।
पूरे देश के आर्थिक बोझ का 48 प्रतिशत उठाते हैं केवल पांच राज्य
भागीदारी और हिस्सेदारी को लेकर शुरू किया जा रहा यह खेल निश्चित रूप से एक राष्ट्र को काफी क्षति पहुंचाने वाला है। जातिगत आबादी को लेकर भागीदारी और हिस्सेदारी को पैमाना बनाने की कोशिश जो राजनीतिक पार्टियां कर रही हैं, वो यह भूल रही हैं कि भागीदारी और हिस्सेदारी के पैमाने को कुछ अन्य पहलुओं को लेकर भी यदि मांग उठने लगीं तो क्या होगा? पूरे देश से प्राप्त कुल इनकम टैक्स में सबसे अधिक टैक्स की भागीदारी महाराष्ट्र (Maharashtra) की होती है। 023-2024 के लिए आयकर विभाग (Income tax department) की रिपोर्ट के अनुसार 6.77 करोड़ इनकम टैक्स रिटर्न फाइल किये गये। इसमें महाराष्ट्र से सबसे ज्यादा रिटर्न फाइल की गई। इनकम टैक्स रिटर्न फाइल के संदर्भ में शीर्ष पांच राज्यों की बात करें तो उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान औऱ पश्चिम बंगाल का समावेश है। पूरे देश में दाखिल रिटर्न फाइल का 48 प्रतिशत केवल इन्हीं पांच राज्यों से हुए हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो पूरे देश के आर्थिक बोझ का 48 प्रतिशत केवल यही पांच राज्य उठा रहे हैं।
जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी का पैमाना
ये पांच राज्य भी यदि जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी का पैमाना अपने लिए भी लागू करने की आवाज उठाने लगे, तो क्या होगा ? वे भागीदारी और हिस्सेदारी के पैमाने से दोहरा रवैया के मद्देनजर अपनी मांग को स्वाभाविक बता सकते हैं। देश के राजस्व कर में अधिक योगदान देने वाले राज्य केंद्र सरकार की तरफ से जारी की जानी वाली विकास परियोजनाओं के वर्गीकरण का अनुपात राष्ट्रीय आयकर में भागीदारी के अनुसार करने लगे तो आर्थिक रूप से पिछड़ें राज्यों में इसको लेकर क्या प्रतिक्रिया होगी ?
राज्यवार जीडीपी की रैंकिंग में बिहार 15 वें स्थान पर
जातिगत जनसंख्या का आधिकारिक रूप से सर्वे जारी करने वाले राज्य बिहार की ही बात करें तो देश के राज्यवार जीडीपी के आधार पर रैंकिंग में वह 15 वें स्थान पर आता है। ऐसे में क्या विकासपरक परियोजनाओं के वर्गीकरण में भागीदारी और हिस्सेदारी का पैमाना उचित होगा ? बहुआयामी सूचकांक के अनुसार, बिहार में 51.91 % व्यक्ति गरीब हैं। इस प्रकार 7 करोड़ से अधिक व्यक्ति बिहार में गरीबी रेखा से नीचे रहकर अपना जीवन यापन कर रहे हैं। नीति आयोग के बहुआयामी गरीबी सूचकांक 2021 (MPI) के अनुसार, “भारत में सबसे गरीब राज्यों के रुप में बिहार, झारखंड एवं उत्तर प्रदेश उभरे हैं। सूचकांक के अनुसार बिहार में 51.9%, झारखंड में 42.16 % तथा उत्तर प्रदेश में 37.79 % जनसंख्या गरीब हैं जबकि पश्चिम बंगाल में 37. 79 % जनसंख्या गरीब है।
संकीर्णता की कोई सीमा नहीं
संकीर्ण सोच से बड़े लक्ष्य नहीं पाए जा सकते। । इसके लिए सबसे जरूरी है राजनीतिक चश्मा हटाकर वास्तविक जरूरतमंदों की पहचान करना। ना कि वोट बैंक के लिए वर्ग संघर्ष की नींव डालना। निश्चित रूप से समाज में आर्थिक रूप से पिछड़े हुए लोगों को सक्षम बनाए बिना देश का चहुंमुखी विकास नहीं हो सकता। लेकिन जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी का पैमाना देश में वर्ग संघर्ष और विघटन की जमीन ही तैयार करेगा। संकीर्णता की कोई सीमा नहीं होती। कल अगर मुंबई और दिल्ली देश के कुल आयकर में भागीदारी से हिस्सेदारी का पैमाना विकास परियोजनाओं को लेकर करने लगे तो ? इसलिए राजनीतिक दलों को यह सोचना चाहिए कि तात्कालिक स्वार्थपूर्ति के लिए कहीं वो देश को दीर्घकालिक जख्म तो नहीं दे रहे।
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