चिरायु पंडित
वैश्विक स्तर पर भारत की स्वतंत्रता के ध्वजवाहक, भारत में बम, पिस्तौल से अग्नियुग का आरंभ करनेवाले क्रांतिकारियों के राजकुमार विनायक दामोदर सावरकर को केवल 27 साल की आयु में दो आजीवन कारावास की सजा भुगतने के लिए कालापानी की काल कोठरी में सन 1911 में बंद कर दिया गया, लेकिन कालापानी भी देशभक्ति की इस अमर आग को बुझा न सका। सलाखें सावरकर की स्वतंत्रता की साधना को समाप्त कर न सकी। उनकी यातनाओ की व्यथा, संघर्ष की कथा और विजय की गाथा ‘मेरा आजीवन कारावास’ में संग्रहित है।
बदले हुए राजनैतिक युग में प्रचंड लोक दबाव के कारण सावरकर को 1921 में अंडमान से रत्नागिरी और येरवडा के कारागृह में स्थानांतरित किया गया और अंतत: 6 जनवरी 1924 को उन्हें कुछ शर्तो पर, कुछ प्रतिबंधों के साथ कारागृह की चारदीवारी से मुक्ति मिली। इस घटना को 2024 में सौ वर्ष पूर्ण होने जा रहे हैं। आजीवन कारावास से मुक्ति की इस शताब्दी का महत्व उनकी जन्म शताब्दी के महत्व से तनिक भी कम नहीं है क्योंकि यह सावरकर का पुनर्जन्म ही था। यहां से आगे सावरकर देश की स्वतंत्रता के लिए नए अस्त्रों से, नई रणनीति से सुसज्जित होकर नए अवतार में दिखे।
मुक्ति के पहले के घटनाक्रम
1923 में एक दिन येरवडा कारागृह में मुंबई प्रान्त के गवर्नर सावरकर से आ कर मिले। वैसे तो इससे पहले अंडमान में भी कई बार बड़े अधिकारी सावरकर से उनकी मुक्ति के संदर्भ में चर्चा करने के लिए कारागार में आ कर मिल चुके थे, फिर भी वे मुक्त क्यों नहीं हुए, जबकि राजनीति में कुछ समय तक भाग न लेने जैसी कुछ शर्त मानने के लिए सावरकर सदैव से तैयार थे।
सावरकर इन शर्तों पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं “…कुछ अवधि तक राजनीति-प्रत्यक्ष वर्तमान राजनीति में हम भाग नहीं लेंगे। कारागार में भी राजनीति में प्रत्यक्ष भाग नहीं ले सकते, परंतु बाहर राजनीति के अतिरिक्त शिक्षात्मक, धार्मिक, साहित्य आदि क्षेत्रों में राष्ट्र की नानावधि सेवा की जा सकती है। युद्ध में पकड़े गए सेनापति को जब तक युद्ध चल रहा है, ‘धरीना मी शस्त्र कदनसमयी या निजकरी’ (युद्ध में शस्त्र नहीं उठाऊंगा) इस प्रकार यदुकुल वीर की तरह प्रतिज्ञा करवाई जाने पर, उस अभिवचन पर (On Parole) मुक्त किया ही जाता है। उस यदुकुल वीरवत् राजनीतिज्ञ सेनानी ने प्रत्यक्ष शस्त्र-संन्सास लेने के लिए बाध्य किए जाने पर भी राष्ट्र कार्य में उसका कम-से-कम उपयोग तो कर सके, इसलिए इस तरह की शर्तें मान्य करने में भी किसी तरह का अपमान नहीं समझा, वरन ऐसा करना ही अपना तत्कालीन कर्तव्य समझा। इस तरह विचार करते हुए अंडमान में जब क्षमादान से सैंकड़ों क्रांतिकारियों के मुक्त होने का समय आया, तब उन्हें उपर्युक्त शर्त को लिखित स्वीकृति देने की सलाह दी थी और उन्हीं शर्तों पर हस्ताक्षर करते हुए सैकड़ों बंदी मुक्त हो गए थे।”
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अंग्रेज सरकार के सामने सावरकर की शर्त
तो फिर विलंब का कारण क्या था? अंग्रेज सरकार ने सावरकर पर शर्तें लादी थी। यह बात सब को पता है लेकिन सावरकर ने भी एक महत्वपूर्ण शर्त सरकार के सामने रखी थी, इस बात पर ज़्यादातर इतिहासकारों का ध्यान नहीं गया। उन्ही के शब्दों में : “राजनीति में भाग न लेने की शर्त के विषय में कोई महत्त्वपूर्ण कठिनाई नहीं थी। इसी शर्त पर इससे पूर्व हमें बरी नहीं किया गया। इसका कारण यह था कि इस शर्त के साथ ही अतीत में हमारे क्रांतिकारी आंदोलन किस तरह हुए, उसमें कौन था, कितनी तैयारी थी, आदि जानकारी देने का संकेत किया जाता था, परंतु ‘अतीत से संबंधित एक भी शब्द न पूछा जाए, न ही व्यक्त किया जाए। अतीत की घटनाएं, जो एक बार मुहरबंद हो गईं, सो हो गई. अब अगला कहिए।’ अपने इस निर्णायक वचन का हमने कड़ाई के साथ उच्चारण किया।” इस बार सरकार ने सावरकर की इस शर्त को मान लिया। साथ ही इस शर्त को मनवाकर सावरकर ने एक सेनापति की तरह देश विदेश में बसे अपने सभी क्रांतिकारी साथियों को भी सुरक्षित कर दिया।
कारागार से बाहर निकलने के बाद भी शर्तों और गुप्तचरों की अदृश्य जंजीरे सावरकर को बांधने की कोशिश कर रही थी। सरकारी रिपोर्ट बताती है कि देश में कहीं भी क्रन्तिकारी घटना होती, तब सावरकर संदेह के घेरे में आ जाते, शायद यही बात उनके गुप्त कार्य की गवाही देने के लिए पर्याप्त है। रत्नागिरी में स्थानबद्ध(1924 -1937 तक) किए जाने के दौरान सावरकर ने समाज को सदियों से जकड़े अस्पृश्यता, जातिभेद, रोटी बंदी, वेदोक्त बंदी, व्यवसाय बंदी जैसी अनेक जंजीरों को तोड़ने का महान कार्य किया।
पिछली सदी के इस इतिहास पर दृष्टि डालें तो सावरकर द्वारा लिखित (कुसुम ताम्बे द्वारा अनुवादित) यह पक्तियां हमें साकार होती दिखेंगीः
हो कराल क्रूर सैन्य राह छेंकते ।
अस्त्र-शस्त्र तोप बाण आग फेंकते।
झेलकर उन्हें अजेय मैं पचा गया।
कालकूट मैं त्रिनेत्र सा रचा गया।।
(लेखक वीर सावरकर: द मेन हु कुड हेव प्रिवेंटेड पार्टीशन के सह लेखक हैं।)