- रणजीत सावरकर
मैं २० जनवरी को अयोध्या पहुंचा। आयोजकों ने जल्दी पहुंचने की सलाह दी थी। उनका कहना था कि अयोध्या में लाखों भक्त होंगे और अगर देरी हुई तो वहां प्रवेश करना मुश्किल हो जाएगा। मुंबई हवाई अड्डे पर पहुंचा तो सुखद आश्चर्य हुआ। हिंदू समाज की मानसिकता सकारात्मक रूप से तेजी से बदल रही है। इसका पहला प्रमाण मुझे तब मिला, जब मैं हवाई अड्डे पर दाखिल हुआ। सुरक्षा अधिकारी ने मेरा स्वागत ‘जय श्री राम’ कहकर किया। जहां दो-तीन साल पहले हमें यह कहने में शर्म आती थी कि हम हिंदू हैं, और अब तो सरकारी कर्मचारि भी ‘जय श्री राम’ कहते हुए स्वागत कर रहे थे। दूसरा आश्चर्य यह था कि हवाई अड्डे पर प्रभु राम के भजन और गाने गूंज रहे थे । विमान की प्रतीक्षा के दौरान मेरी भेंट नासिक के महंत अनिकेत शास्त्री से हुई। नए संसद भवन के पूरे इंटीरियर करने वाले नरसी कुलारिया और उनके भाइयों से भी भेंट हुई। हम एक ऐतिहासिक क्षण देख रहे थे, यह अनुभव हर किसी के मन में मौजूद था। वहां बार-बार ‘जय श्री राम’के नारे लग रहे थे। यहीं नहीं, जब विमान के पहिये ने अयोध्या की पवित्र माटी को छुआ, तब विमान ‘जय श्री राम’ के उद्घोष से गूंज उठा था।
एयरपोर्ट से अयोध्या शहर में प्रवेश करते समय लोगों का उत्साह देखते ही बन रहा था। वास्तव में, २० जनवरी से तीन दिन तक दर्शन बंद थे। जनता के लिए दर्शन २३ जनवरी से उपलब्ध होने वाले थे। भले ही मंदिर नहीं जा सकते, परंतु प्राणप्रतिष्ठा के इस ऐतिहासिक क्षण में अयोध्या में उपस्थित रहने का सौभाग्य मिल रहा है, यह पवित्र भावना लेकर लाखो राम भक्त, जो मिले, उस वाहन से अयोध्या की ओर आ रहे थे। चूंकि अयोध्या में केवल आमंत्रित वाहनों को ही अनुमति थी, इसलिए आम रामभक्तों को आगे की यात्रा पैदल ही करने को मजबूर होना पड़ रहा था। लेकिन जब कड़ाके की ठंड में भी हाथों में सामान और कंधों पर बच्चों को लेकर पैदल चल रहे लोगों को उत्साह से ‘जय श्री राम’ का नारा लगाते हुए देखा तो मन में कहीं न कहीं शर्म महसूस हुई। विशेष आमंत्रित होने के कारण मिलने वाली विशेष सुविधा मन में खटकने लगी।
बेशक बाद में भारी भीड़ के कारण मेहमानों के लिए की गई विशेष व्यवस्था ध्वस्त हो गई और जल्द ही मै भी आम भीड़ का हिस्सा बन गया। आयोजको से संपर्क न होने के कारण मुझे नहीं पता था कि कहां रुकना है। पूरे दिन घना कोहरा छाया रहा और ठंड बढ़ती जा रही थी। शाम तक व्यवस्था न होने पर अंततः ड्राइवर ने मुझे एक धर्मशाला में ठहराया। इस कमरे की खिड़कियों में पट न होने के कारण वे खुली ही थीं और इसलिए तेज हवाओं के कारण रात बिताना दिव्य था। सुबह तक ठंड के कारण पैर पूरी तरह सुन्न हो चुके थे। अत्यधिक ठंड के कारण एक क्षण भी सोना असंभव था। सुबह यह अनुभव हुआ कि इस दिव्य क्षण का साक्षी बनने लिए कुछ तो कष्ट सहना आवश्यक था। परिस्थितियों ने विशेष आमंत्रित व्यक्तियों और आम लोगों के बीच के अंतर को धुंधला कर दिया था।
मेरे मित्र अविनाश संगमनेरकर कई वर्षों से अपना पूरा समय मंदिर निर्माण में लगा रहे हैं। लेकिन उनकी व्यस्तता के कारण हमारा मिलना असंभव था। फिर भी उन्होंने अपने मित्र श्री सूर्यप्रकाश पांडे से भेंट करवाई और फिर अगले दो दिनों तक युवा, ऊर्जावान सूर्यप्रकाश अपने वाहन के साथ पूरे समय मेरे साथ रहे। मेरे साथ ‘हिन्दुस्थान पोस्ट’ के दिल्ली संवाददाता नरेश वत्स भी थे।
अयोध्या में स्वातंत्र्यवीर सावरकर की प्रतिमा
मेरे पूर्व नियोजित कार्यक्रम में पूर्व के फैजाबाद के हुतात्मा चौक पर स्वातंत्र्यवीर सावरकर की प्रतिमा का दौरा करना भी शामिल था। सूर्यप्रकाश पहले ही वहां जा चुके थे और सावरकर की प्रतिमा के रंग उतर जाने के कारण उसे रंगने की कोशिश भी की थी। परंतु सभी कारीगर प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में व्यस्त थे। इस कारण ऐसा करना संभव नहीं हो सका था। पर जब हम वहां पहुंकर स्वातंत्र्यवीर सावरकर की प्रतिमा की तस्वीरें ले रहे थे, तो सामने ही व्यवसाय करने वाले फोटोग्राफर अश्वनी साहू वहां आये और प्रतिमा को साफ करने के लिए पानी के साथ रंग भी लेकर आये। उनकी यह भावना थी कि सावरकर की प्रतिमा की खराब हालत में फोटो नहीं खींची जानी चाहिए। यह क्रांतिकारियों के प्रति जनता में बढ़ते सम्मान की सूचक है।
भगवान रामचन्द्र की कुलदेवी माता बड़ी देवकाली
अविनाश के इस सुझाव पर कि अयोध्या मंदिर जाने से पहले हमें माता बड़ी देवकाली के दर्शन अवश्य करने चाहिये, हम वहां पहुंचे। वहां ठीक सामने एक विशाल कुंड देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ। इस तालाब के चारों कोनों में पुरुषों के स्नान के लिए व्यवस्था की गई थी और एक स्थान पर महिलाओं के स्नान के लिए विशेष चबूतरा बनाया गया था। यहां भगवान रामचन्द्र की वानर सेना स्वच्छन्द विचरण कर रही थी। बाद में यही तस्वीर पूरी अयोध्या में देखने को मिली।
इस मंदिर में मां देवकाली लक्ष्मी, सरस्वती और काली के संयुक्त रूप में विराजमान थीं। देवकाली मंदिर के सामने कौशल्या माता और शिशु श्री रामचन्द्र का मंदिर है, जहां से भगवान रामचन्द्र अपने आराध्य के प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते थे। बाबर सेना के आक्रमण का विरोध करते हुए जिन मंदिरों को हिंदुओं ने अपना बलिदान देकर सुरक्षित रखा था, उनमें से बड़ी देवकाली मंदिर एक है। यह मंदिर हिंदू समाज के अथक संघर्ष का प्रतीक है। इसलिए यह मेरे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण प्रेरणास्थल है।
देवकाली मंदिर के महंत गौरव पाठक से बात की तो उनका दर्द छलक उठा। प्रथा के अनुसार प्राण प्रतिष्ठा का निमंत्रण पहले कुलदेवी को देना जरूरी होता है, लेकिन उन्हें निमंत्रण नहीं मिला था। परन्तु बड़ी देवकाली मंदिर में भी प्राण प्रतिष्ठा समारोह इसी भावना के साथ उत्साह से मनाया जा रहा था कि पांच सौ साल बाद होने वाले इस भव्य समारोह की गड़बड़ी में यह गलती हो गई होगी। प्रभु राम की नगरी की सुरक्षा व्यवस्था कितनी कड़ी थी, इसका अनुमान हमें तब हुआ, जब हम दोबारा अयोध्या में उपस्थित हुए। प्रत्येक चौराहे पर मेरा निमंत्रण पत्र दिखाने के बाद ही वाहन को आगे बढ़ने दिया गया। सड़क के दोनों ओर से लोग अयोध्या की ओर उमड़ रहे थे और यह तस्वीर तब भी बनी रही, जब हम प्राण प्रतिष्ठा के बाद अयोध्या से बाहर निकले। न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि राजस्थान और मध्य प्रदेश से भी बड़ी संख्या में लोग अयोध्या की ओर आ रहे थे और परिणामस्वरूप अयोध्या की ओर जाने वाले राजमार्गों पर यातायात जाम हो गया था। उधर, कोहरे के कारण लखनऊ और अयोध्या के एयरपोर्ट २१ जनवरी की शाम तक बंद कर दिए गए थे। लता मंगेशकर चौक पर महाराष्ट्र के मीडिया प्रतिनिधि मौजूद थे। परंतु उनके अनुरोध पर उनसे मिलने जाते समय यातायात जाम के कारण मेरा वहां पहुंचना असंभव था।
प्राण प्रतिष्ठा समारोह
२२ जनवरी की सुबह जब मैं जागा तो बहुत उत्साहित था। अविनाश की जान-पहचान के कारण 21 जनवरी की रात के लिए रहने की अच्छी व्यवस्था कर दी गई थी। यहां से रामजन्मभूमि जाते समय भीड़ को देखकर मैंने पैदल ही जाने का निर्णय लिया। बेशक अब वहां केवल आमंत्रित लोगों की ही पहुंच थी। हर जगह भारी भीड़ थी। मुझे लगा कि लोग मुझसे ईर्ष्या करेंगे, लेकिन वे तो ‘आप तो बड़े भाग्यशाली हैं, रामलला को हमारा प्रणाम पहुँचाना’ यह कहते हुए अपनी भावनाएं ‘जय श्री राम’ के घोष के साथ व्यक्त कर रहे थे।
जन्मभूमि के दर्शन
सुग्रीव किले के निकट मुख्य द्वार से प्रवेश करने पर हमारे स्वागत के लिए दोनों ओर हजारों स्वयंसेवक उपस्थित थे। जब साधुओं ने माथे पर तिलक लगाकर और राम नाम का उपरना पहनते हुए स्वागत किया तो मेरी भावनाएं उमड़ पड़ीं। मंदिर में प्रवेश से पहले जूते-चप्पल रखने की अनुशासित व्यवस्था थी। यह कहते हुए, “आप मंदिर में प्रवेश रहे हैं, कृपया जूतों को न छुएं”, वहां मौजूद स्वयंसेवक ने मेरे जूते अपने हाथों से उठाए और एक बैग में रखे। साथ में मुझे एक बैज दिया। यद्यपि मैं इस विशाल भीड़ में अकेला था, फिर भी अकेलेपन की भावना नहीं थी क्योंकि सभी ने मुस्कुराते हुए मेरा स्वागत किया, जैसे कि वे मेरे पुराने परिचित हों। सभी एक-दूसरे से ‘आप कहां से आए हैं’ पूछकर अपना परिचय भी दे रहे थे। वहां मेरी भेंट पुणे के समीर दरेकर से हुई। उनके साथ उनकी पत्नी तेजस्विनी सावंत भी मौजूद थीं। तेजस्विनी भारत की अर्जुन पुरस्कार विजेता ओलंपिक निशानेबाज हैं। उनके साथ भारत की मशहूर निशानेबाज और विश्व ‘चैंपियन ऑफ चैंपियंस’ अंजलि भागवत भी थीं। आगे का पूरा समारोह मैंने इन्हीं तीनों के साथ देखा। स्थान ग्रहण करने के बाद पीछे से ‘रणजीत’ की आवाज आई और मेरी नजर मशहूर चित्रकार सुहास बहुलकर पर पड़ी। उनके साथ मराठी अभिनेता सुनील बर्वे और संगीत निर्देशक कौशल इनामदार भी थे। इन सभी नजदीकी लोगों के साथ इस ऐतिहासिक क्षण का साक्षी बनने का आनंद अद्भुत था।
११ बजे शंखनाद के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू हुआ। मन को मंत्रमुग्ध कर देने वाली यह शंख ध्वनि हमारे शत्रुओं का विनाश करने में सक्षम थी। इसके बाद भारत के विभिन्न राज्यों से आए संगीतकारों ने २६ वाद्ययंत्रों का वादन प्रस्तुत किया और भारत की सांस्कृतिक विविधता को दर्शाया। शंकर महादेवन, अनुराधा पौडवाल और सोनू निगम ने अपने भक्ति संगीत से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। हर पल हमारे मन में यह भावना प्रबल होती जा रही थी कि हम एक ऐतिहासिक क्षण देख रहे हैं। इस राष्ट्र मंदिर के निर्माण में किसने योगदान दिया, इसके बारे में जन्मभूमि न्यास के महासचिव चंपत राय ने विस्तार से जानकारी दी। जब सभी का नाम लिया जा रहा था तो उपस्थित लोग ‘जय श्री राम’ के नारे लगाकर उन्हें शुभकामनाएं भी दे रहे थे। इन सब कार्यक्रमों के साथ प्राण प्रतिष्ठा का समय नजदीक आ रहा था।
और इसी बीच यह घोषणा हुई कि भारत के प्रधान मंत्री माननीय श्री नरेंद्र मोदी मंदिर में प्रवेश कर रहे हैं। भारत का यह राष्ट्रपुरुष, भारत की सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय पहचान प्रभु रामचन्द्र की प्राण प्रतिष्ठा समारोह के लिए पैदल प्रवेश करते देखकर कृतज्ञता का भाव मन मे जाग उठा। यह दृश्य वास्तव में गौरवपूर्ण था क्योंकि आज तक हम शासकों को तथाकथित धर्म के नाम पर बहुसंख्यक हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को कुचलते हुए देखते आ रहे थे, इसलिए यह दृश्य देख कर स्वाभिमान जाग उठा। यह हिंदुओं के स्वत्त्व और शक्ति के जागरण का परिणाम था। यह केवल भक्ति की भावना नहीं थी बल्कि एक राष्ट्र के रूप में हिंदुओं के पुनर्जन्म का प्रमाण था। भारत के प्रधान मंत्री ने संतों को विनम्रतापूर्वक प्रणाम करके मंदिर में प्रवेश किया। यह दृश्य तो हिंदू अस्मिता के पुनरुत्थान की गवाही थी।
मंदिर के आंतरिक भाग को भव्य पर्दों पर प्रदर्शित किया जा रहा था। प्राण प्रतिष्ठा के मंत्रोच्चार से वातावरण पवित्र हो गया था। वहां उपस्थित सभी लोगों की आंखों में भावपूर्ण आंसू थे। लोग अपनी आंखों से प्राण प्रतिष्ठा समारोह देख रहे थे और अंततः वह क्षण आ ही गया, जब प्राण प्रतिष्ठा पूरी हुई और प्रभु रामचन्द्र प्रकट हुए। इस अवसर पर भारतीय वायुसेना के दो हेलीकॉप्टरों ने पूरे जन्मभूमि क्षेत्र पर पुष्प वर्षा की। परिसर ‘जय श्री राम’ के नारों से गूंज उठा। सभी एक दूसरे को शुभकामनाएं दे रहे थे। सभी को यह प्रतीत हुआ कि हमने एक मजबूत राष्ट्र के रूप में पुनर्जन्म लिया है। सदियों की गुलामी से त्रस्त हिन्दू जनमानस एक बार फिर स्वाभिमान से भर गया।
भारत एक मजबूत और समृद्ध राष्ट्र की ओर बढ़ रहा है, जनमानस में यह क्रांतिकारी परिवर्तन देश के भविष्य का एक उज्ज्वल प्रमाण था। इस ऐतिहासिक क्षण से यह विश्वास पैदा हुआ कि भारत के समृद्धि रथ को अब कोई नहीं रोक सकता। और न केवल अयोध्या किंतु भारत का हर शहर और ग्राम, हर घर और मंदिर उस क्षण जीवन के इस पवित्र क्षण का जश्न मना रहा था। उस समय सम्पूर्ण भारत के मन में एक ही विचार चल रहा था – और वह विचार था ‘रामराज्य की स्थापना’!
स्वातंत्र्यवीर सावरकर का जो सपना था- ‘जाति भेद विरहित हिंदू समाज’, उसे साकार करने की क्षमता केवल प्रभु रामचन्द्र में ही है। इस ऐतिहासिक क्षण से देश एक मजबूत एकजुट हिंदू समाज की ओर बढ़ने लगा है। यदि भक्ति को राष्ट्रभक्ति में बदल दिया जाए और इस भक्ति को शक्ति का साथ मिले तो भारत का भविष्य निश्चित ही उज्ज्वल होगा।
और अगले दिन – लखनऊ में पड़ाव
२३ जनवरी की सुबह जब मैं ये आलेख लिख रहा था तो होटल के बाहर से सैनिकी-संचलन की आवाज सुनाई दी। यह सैन्य संचलन भगवान रामचन्द्र की प्राण प्रतिष्ठा के बाद लक्ष्मण की नगरी( लखनऊ) में प्रभु रामचंद्र को दी गयी शक्तिवंदना थी। इस परेड में न केवल सेना और पुलिस शामिल थी, बल्कि हजारों युवाओं ने अनुशासित रूप से भाग लिया। स्वातंत्र्यवीर सावरकर का ‘राजनीति का हिंदूकरण और हिंदुओं का सैन्यीकरण’ का महामंत्र आखिरकार ८५ साल बाद साकार हो गया है।
२२ जनवरी को अयोध्या में दिखी विशाल जनसमुदाय की भक्ति न केवल आध्यात्मिक थी बल्कि उसका राष्ट्रभक्ति में परिवर्तन साक्षात् दिखाई दिया। सैन्य शक्ति के बिना भक्ति या देशभक्ति असहाय्य होती है। पांच सौ वर्ष पहले भगवान रामचन्द्र का मंदिर इसलिए तोड़ दिया गया था क्योंकि हम अपनी सैन्य क्षमता खो चुके थे।
आज भारत फिर से सशक्त और समृद्ध हो रहा है। इसीलिए भगवान रामचन्द्र को मानवंदना देने के लिए लक्ष्मण की नगरी यानी लखनऊ में हुआ सैन्य संचालन हमारे दुश्मनों के लिए एक चेतावनी थी। संदेश यह है कि हम सदैव शांति पसंद करते हैं और इसे स्थापित करने की शक्ति भी रखते हैं।
भक्ति के माध्यम से शक्ति की ओर हमारी यात्रा ही हमारी स्वतंत्रता, संस्कृति, आस्था और विचार को अक्षुण्ण रखने का एकमात्र मार्ग है।
(छायाचित्र : सुहास बहुलकर,समीर दरेकर और नरेश वत्स)
(लेखक वीर सावरकर के पोते और स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक के कार्याध्यक्ष हैं।)
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