पटना। बिहार में चुनावी सरगर्मियां चरम पर है। सभी पार्टियां जीत के लिए जी तोड़ कोशिश कर रही हैं। कोशिश ऐसी कि हर तरह की तिकड़में आजमाई जा रही हैं। बदलते दौर में अब बिहार में बूथ कैप्चरिंग भले ही थम गई हो लेकन उसकी जगह पैसों का बोलबाला बढ़ गया है। बिहार की जनता को आज भी विकास नहीं, वोट के बदले नोट लुभाता है। इसलिए बिहार के चुनावों में पैसा बोलता है।
ये सभी को मालूम है। नेता-मंत्री यह अच्छी तरह जानते हैं कि पैसा फेंकने के बाद ही तमाशा देखने को मिलेगा, “पैसा फेंको तमाशा देखो”। इसलिए वे प्रशासन के नाक के नीचे ही लोगों को लुभाने के लिए पैसा बांटने का खेल खेलते हैं। बिहार वैसे भले ही गरीब राज्यों में शुमार होता हो, लेकिन चुनाव के समय यहां पार्टियों के पास पैसों की कोई कमी नहीं होती। वे अपनी जीत के लिए पैसा पानी की तरह बहाते हैं। चुनाव के पहले नेता मतदाताओं में दिल खोलकर पैसा लुटाते हैं और चुनकर आने के बाद ये लोगों को लूटकर अपना हिसाब बराबर कर लेते हैं। ऐसा लगता है कि ये नेताओं और मतदाताओं के बीच गुप्त समझौता है।
वर्ष 2015 के खर्च का ब्यौरा
खर्च के विस्तृत आंकड़ों को देखने पर यही लगता है कि जितना पैसा भाजपा ने प्रचार पर खर्च किया, उससे कम जनता दल यूनाइटेड ने पूरे चुनाव अभियान पर खर्च किया। चुनाव आयोग को दिए गए खर्च के ब्योरे के अनुसार भाजपा ने बिहार चुनाव में 135 करोड़ खर्च किए, वहीं जनता दल यूनाइटेड का बिहार चुनाव में कुल खर्च 14 करोड़ था। विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 157 उम्मीदवार मैदान में उतरे थे, वहीं जनता दल यूनाइटेड ने 101 सीटों पर चुनाव लड़ा था। जहां बीजेपी के मात्र 53 वहीं जनता दल यूनाइटेड के 71 उम्मीदवार चुनाव जीते।
विज्ञापन पर खर्च किए 40 करोड़ रुपये
भाजपा ने अपने प्रचार, जिसमें प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विज्ञापन पर करीब 40 करोड़ रुपये खर्च किए। वहीं बैनर और पोस्टर पर इसका खर्च करीब 10 करोड़ था। इसकी तुलना में जनता दल यूनाइटेड ने विज्ञापन, पोस्टर , झंडे पर मात्र 9 करोड़ 70 लाख रुपये खर्च किए। हेलीकॉप्टर से प्रचार पर जहां भाजपा ने 37 करोड़ का खर्च दिखाया , वहीं जनता दल यूनाइटेड ने हेलीकॉप्टर से प्रचार पर 2 करोड़ 28 लाख से कुछ अधिक का खर्च दिखाया। भाजपा ने अपने 157 उम्मीदवारों को करीब 20 लाख प्रति उम्मीदवार के हिसाब से 31 करोड़ 30 लाख दिए, वहीं चुनाव आयोग में दिए गए ब्यौरे के अनुसार जनता दल यूनाइटेड ने मात्र 30 लाख रुपये अपने उम्मीदवारों के बीच वितरित किए।
लोजपा का खर्च करीब 62 लाख
भाजपा की सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी ने 2015 में 42 उम्मीदवार खड़े किए थे। उसके आंकड़ों के अनुसार उनका पूरा खर्च मात्र 61 लाख 93 हजार हुआ। उपेन्द्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी ने अपने 23 उम्मीदवारों पर 52 लाख से कुछ अधिक खर्च किए।
बढ़ जाते हैं अपराध
चुनाव में आपराधिक प्रवृत्ति के लोग भी खूब सक्रिय हो जाते हैं। नेताओं और राजनैतिक पार्टियों की शह पर वे हत्या से लेकर पैसे बांटने जैसे अपराध को अंजाम देकर उनके गुड बुक में आ जाते हैं। चुनाव खत्म होने के बाद ये नेता और राजनैतिक पार्टियां उनकी हर तरह से मदद करते हैं। उनकी कोशिश होती है कि अपराध साबित हो जाने पर भी उन्हें कम से कम समय तक जेल में रहना पड़े और अगर जेल हो भी जाए, तो वहां उन्हें हर तरह की सुख-सुविधाएं उपलब्ध होती रहें।
आजादी के बाद से ही चुनावों में पैसे का बोलबाला
1951-52 में के विधानसभा और लोकसभा चुनाव कराए गए थे। मशहूर साहित्यकार और समाजवादी नेता रामवृक्ष बेनीपुरी को सोशलिस्ट पार्टी ने मुजफ्फरपुर के कटरा से उम्मीदवारी दी थी। उन्होंने अपने इस चुनाव में हार पर लिखा है,‘कंट्रोल वहीं सफल हो सकता है, जहां लोगों में ईमानदारी हो और शासकों में दृढ़ता। यहां दोनों का अभाव’। पैसे वाले जीप पर प्रचार करने निकलते थे तो बेनीपुरी औन उनकी पार्टी के अन्य प्रत्याशी साइकिल और बैलगाड़ी से निकलते थे। कटरा के धनौर गांव में बेनीपुरी 31 दिसंबर 1951 को लिखते हैं- ‘इस क्षेत्र की बुरी बात यह रही कि वह सेठ भी पार्टी का मेंबर था, हमारी पार्टी के कुछ कार्यकर्ताओं को पैसे के बल पर मुट्ठी में किया था, जब हमने उसे उम्मीदवार नहीं चुना, वह रुपयों के बल पर अब पार्टी को हराने पर तुला है।’बेनीपुरी 1957 के चुनाव में विधायक निर्वाचित किए गए थे।
भोला यादव का दर्द
भोला यादव 1996 में कटोरिया विधानसभा सीट जीतकर विधायक बने थे। साढ़े तीन साल तक विधायक रहे भोला यादव ने कहा कि उनका टिकट एक साजिश के तहत काट दिया गया था। इस कारण वे दोबारा विधायक नहीं बन सके थे। उनका कहना है कि अब साधारण लोगों के लिए राजनीति नहीं रही है। अब पैसे के बल पर चुनाव लड़ा जाता है। इस कारण जनता को अच्छे जनप्रतिनिधि नहीं मिल पाते हैं।
बातों में दम, काम कम
वैसे तो एनडीए जहां विकास के मु्द्दे पर मतदाताओं को रिझाने की कोशिश कर रही है, वहीं महागठबंधन नई सोच नया बिहार, युवा सरकार अबकी बार का नारा देकर उनके दर पर पहुंच रहा है। दूसरी तरफ लोजपा के चिराग पासवान बिहार फर्स्ट बिहारी फर्स्ट की राग अलाप रहे हैं। वाकई, अगर बिहार के नेताओं की सोच इतनी ही उम्दा होती तो बिहार में आज तरक्की का परचम लहरा रहा होता और अपने ऐतिहासिक गौरवपूर्ण परंपरा को आगे बढ़ा रहा होता।
बिहार चुनावः पैसे का परचम, बात ज्यादा काम कम
नेता-मंत्री यह अच्छी तरह जानते हैं कि पैसा फेंकने के बाद ही तमाशा देखने को मिलेगा, "पैसा फेंको तमाशा देखो"। इसलिए वे प्रशासन के नाक के नीचे ही लोगों को लुभाने के लिए पैसा बांटने का खेल खेलते हैं। बिहार वैसे भले ही गरीब राज्यों में शुमार होता हो, लेकिन चुनाव के समय यहां पार्टियों के पास पैसों की कोई कमी नहीं होती। वे अपनी जीत के लिए पैसा पानी की तरह बहाते हैं।