Kanwar Yatra: कांवड़ रुट की दुकानों के नाम पर कोहराम!

किन्तु प्रश्न है कि संवैधानिक अधिकार किसका बचाया जाए? उन व्यापारियों का, जो छद्म व्यापार में लिप्त हैं, अथवा उन उपभोक्ताओं का, जो इस छद्मता का शिकार बनते हैं।

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कृष्ण प्रभाकर उपाध्याय

Kanwar Yatra: योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) व उत्तराखंड सरकार (Uttarakhand Government) के हालिया आदेश कि ‘कांवड़ मार्ग (Kanwar route) का प्रत्येक दुकानदार अपनी दुकानों पर अपने नाम का बोर्ड लगाये’, इस समय काफी बवाल मचाए है। इसे विपक्षी व्यक्ति के संवैधानिक अधिकार (constitutional rights) का हनन बता रहे हैं।

किन्तु प्रश्न है कि संवैधानिक अधिकार किसका बचाया जाए? उन व्यापारियों का, जो छद्म व्यापार में लिप्त हैं, अथवा उन उपभोक्ताओं का, जो इस छद्मता का शिकार बनते हैं।

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पभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम एक उपभोक्ता को ऐसे माल, उत्पाद या सेवाओं से संरक्षित किए जाने का अधिकार देता है जो जीवन और सम्पत्ति के लिए परिसंकटमय हों। साथ ही वह उपभोक्ताओं को क्रय किये जा रहे मालों, उत्पादों या सेवाओं की क्वालिटी, मात्रा, शक्ति, शुद्धता, मानक और कीमत के विषय में सूचित किए जाने का अधिकार देता है। साथ ही उसे अनुचित व्यापार व्यवहार के विरुद्ध अनुतोष पाने का अधिकार भी देता है। विशेष यह कि यह सभी अधिकार उसे योगी या भाजपा सरकार ने नहीं, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 के स्थापित होने के समय से ही मिले हुए हैं।

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शुद्धता का विश्वास जरुरी
किसी माल की क्वालिटी जहां उपभोक्ता को अच्छी क्वालिटी के चयन का अधिकार देती है, वहीं ‘शुद्धता’ जहां वस्तु में उपलब्ध अवयवों की शुद्धता से ही सम्बन्धित नहीं है, उपभोक्ता के विश्वास की शुद्धता से सम्बन्धित है। इसी विश्वास की शुद्धता का ही दूसरा नाम ‘पवित्रता’ है। एक कांवड़ यात्री अपने पांथिक विश्वास के अनुरूप लिए गए पवित्र संकल्प व आस्था के कारण ही अपने कांधे पर कांवड़ में गंगाजल लाकर अपने देव महादेव का अभिषेक करता है। इस कांवड़ यात्रा के अपने नियम होते हैं। एक कांवड़िया को इन नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है।

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पवित्रता या शाकाहार में परिभाषित
ऐसे में जबकि उसकी यात्रा की पवित्रता इतनी महत्वपूर्ण होती हो कि कांवड़ या स्वयं कांवड़िया के किसी के छू जाने मात्र से ही खंडित हो जाती हो, वैष्णव, पवित्र, शाकाहारी आदि नाम से चल रहे भोजनालयों में अंडा या मांस का प्रयोग उन्हीं बरतनों में किए जाने, जिनमें उसे भोजन परोसा जाना है, या उसे सामिष भोजन परोसने अथवा भोजन में सामिष भोजन के तत्व डालने से खंडित नहीं होगी, ऐसा विश्वास करनेवाले यह कभी नहीं बताते कि वे इसे किस प्रकार भोजन की वैष्णव पद्धति, पवित्रता या शाकाहार में परिभाषित करेंगे। ऐसे दुकानदारों का यह छलावा उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम में छद्म विज्ञापन की श्रेणी का मामला भी बनाता है, जो स्वयं अपने आप में आपराधिक कृत्य है।

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पहचान छुपाने की क्या है मजबूरी?
योगी आदित्यनाथ के इस आदेश को पहचान बताने को बाध्य करने वाला आदेश बताने वालों से एक प्रश्न यह भी है कि ऐसी क्या विवशता है, जिसके कारण वे अपनी पहचान छिपाना चाहते हैं? साथ ही क्या इस उचित आदेश पर उनका भड़कना यह सिद्ध नहीं करता कि उनका छद्म नाम से किया जानेवाला यह व्यापार सोद्देश्य है तथा यह किसी बड़े षड्यन्त्र का भाग होना भी संभव है। सोशल मीडिया पर प्रायः ऐसे वीडियो आते हैं, जिनमें कोई गटर में सब्जियां व फल साफ करता दिखाया जाता है तो कोई भोजन में थूकता नजर आता है। कई मौलवी इन कृत्यों की यह कहकर वकालत करते भी नजर आते हैं कि यह उनकी पांथिक परम्परा है।

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कारोबार का पंजीयन अनिवार्य
खाद्य सुरक्ष अधिनियम-2006 में खाद्य पदार्थ के बेचने वालों को न सिर्फ अपने कारोबार का पंजीयन कराना अनिवार्य किया गया है, वरन् उन्हें पंजीयन संख्या सहित अनुज्ञप्तिधारी का नाम अपनी दुकान पर इतने बड़े अक्षरों में प्रदर्शित करना अनिवार्य किया गया है कि उपभोक्ता उसे आसानी से पढ़ सके तथा विश्वास कर सके कि उसके द्वारा की जानेवाली खरीद खाद्य सुरक्षा मानकों का पालन करने वाले पंजीकृत विक्रेता से ही की जा रही है, किसी अमानक, अपंजीकृत या साजिश करनेवाले दुकानदार से नहीं। ऐसे में उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड सरकारों द्वारा जारी यह आदेश उपभोक्ताओं के व्यापक हित में तो है ही, किसी उपभोक्ता को उचित संरक्षण दिलानेवाला भी है। आदेश में कोई विधिक त्रुटि दृष्टिगत नहीं होती है।

यह वीडियो भी देखें-
https://youtu.be/O-pqQrT6tEE?si=IvlQRA4Tu5U06wLx
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