-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
एक देश एक चुनाव की दिशा में बढ़ते कदम में स्थानीय निकायों के चुनावों की प्रकिया बाकी है। उसका कारण है कि उस प्रस्ताव के विधेयक को विधानसभाओं से भी पारित करवाया जाना होगा। लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होते हैं तो भले ही कांग्रेस सहित विपक्ष विरोध कर रहे हों पर माना जाना चाहिए कि यह सही दिशा में बढ़ता कदम होगा।
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स्वतंत्रता के समय से ही प्रयास जारी
ऐसा नहीं है कि भारतीय लोकतंत्र के लिए यह कोई नई बात हो बल्कि स्वतंत्रता के समय से ही देश में एक साथ चुनाव कराने पर बल दिया जाता रहा है। 1952, 1957, 1962 और 1967 के चुनाव इसके उदाहरण हैं। 1968 से विधानसभाओं को भंग करने का जो सिलसिला चला उसने पूरे हालात बदल दिए और उसके बाद लोकसभा और विधानसभा के चुनाव अलग-अलग होने लगे। अलग-अलग चुनावों के दुष्परिणाम अधिक सामने आते हैं। यह केवल चुनावों पर होने वाले सरकारी और गैर सरकारी खर्चों तक ही सीमित ना होकर अलग-अलग चुनाव एक नहीं अनेक समस्याओं का कारण बन रहे हैं।
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अलग-अलग चुनाव लड़ने से नुकसान
लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग होने से करीब एक साल तक चुनी हुई सरकार पंगु बन कर रह जाती है। इसको राजस्थान सहित अन्य प्रदेशों के चुनावों से इस तरह से समझा जा सकता है। यह उदाहरण मात्र है और सभी प्रदेशों पर समान तरीके से लागू होता है। नवंबर-दिसंबर में राजस्थान की विधानसभा के चुनाव होते हैं। सरकार बनते ही प्राथमिकता तय कर पाती है तब तक बजट की तैयारी में जुटना पड़ता है क्योंकि अब फरवरी में ही बजट सेशन होने लगे हैं। मई-जून में लोकसभा के चुनाव के कारण अप्रैल से ही आचार संहित लगने की तलवार लटक जाती है और फिर करीब डेढ़ माह का समय आचार संहिता को समर्पित हो जाता है।
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आचारसंहिता की भेंट चढ़ जाती हैं योजनाएं
इसके कुछ समय बाद या यों कहे कि परिवर्तित बजट से निपटते-निपटते सरकार के सामने स्थानीय निकायों व पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव का समय हो जाता है और उसके कारण लंबा समय इन चुनावों के कारण आचार संहिता के भेंट चढ़ जाता है। इस बीच में कोई-कोई ना कोई उप चुनाव आ जाते हैं तो उसका असर भी चुनी हुई सरकार को भुगतना पड़ता है। जैसे तैसे चौथा साल पूरा होने को होता है कि सरकार ताबड़तोड़ निर्णय करने लगती है और इनके क्रियान्वयन का समय आते-आते चुनाव आचार संहिता लग जाती है। इस तरह से एक बात तो साफ हो जाती है कि पांच साल के लिए चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार का कमोबेश एक साल का समय चुनाव आचार संहिताओं के भेंट चढ़ जाता है। यह तो केवल लोकतांत्रिक जनता द्वारा चुनी हुई सरकार के कार्यों के प्रभावित होने का एक उदाहरण मात्र है।
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व्यय में वृद्धि
अब अलग-अलग चुनाव होने से चुनाव पर होने वाले सरकारी और गैर सरकारी खर्चों पर भी ध्यान दिया जा सकता है। 1952 के पहले चुनाव में सरकारी व गैर सरकारी जिसमें राजनीतिक दलों और चुनाव लड़ने वालों का खर्च भी शामिल है, वह करीब 10 करोड़ के आसपास रहा। 2010 के आम चुनाव में 10 हजार करोड़ रु. का व्यय माना जा रहा है जो 2019 में 55 हजार करोड़ और 2024 के आम चुनाव में एक लाख करोड़ को छू गया है। इसमें चुनाव आयोग, प्रशासनिक व्यवस्थाओं के साथ ही राजनीतिक दलोें, प्रत्याशियों द्वारा होने वाला खर्च शामिल है।
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2014 से ही चर्चा शुरू
मोदी सरकार आने के बाद 2014 से एक देश एक चुनाव पर चर्चा का सिलसिला चल निकला था। 2017 में नीति आयोग ने इसे उपयुक्त बताया और 2018 में संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इसे सही दिशा बताया। सितंबर 2023 में पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में 6 सदस्यीय कमेटी बनाई गई और 65 बैठके कर 18626 पन्नों की रिपोर्ट इसी साल मार्च, 24 में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु को पेश की गई। यदि इन सभी सिफारिशों को लागू किया जाता है तो 18 संसोधनों की आवश्यकता होगी। सरकार ने अभी एक हिस्से यानी कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करने की दिशा में कदम बढ़ाती दिख रही है। माना जा रहा है कि 2029 के चुनाव नई व्यवस्था यानी एक देश एक चुनाव वन नेशन वन इलेक्शन से हो। इसके लिए चुनाव आयोग व सरकारों को काफी मशक्कत करनी पड़ेगी पर यदि एक बार यह सिलसिला चल निकलेगा तो इसे लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत ही माना जाएगा।
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क्या है अड़चन?
राजनीतिक दलों द्वारा यह शंका व्यक्त की जा रही है कि इससे छोटे व स्थानीय दलों के अस्तित्व पर ही संकट आ जाएगा। इसके साथ ही वोटिंग पेटर्न प्रभावित होगा। चुनाव में कानून व्यवस्था बनाए रखने और चुनाव के लिए मशीनरी भी अधिक लगाने की बात की जाती है तो खर्चे व आधारभूत सुविधाओं यथा ईवीएम मशीन, वीवीपेट मशीन, उनके रखरखाव सहित अन्य आवष्यक संसाधनों की आवश्यकताओं को लेकर भी शंका व्यक्त की जा रही हैं।
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चुनाव आयोग मानसिक रुप से तैयार
जिस तरह चुनाव आयोग ने संसाधनों का आकलन कर अपनी आवश्यकताएं सरकार को बता दी हैं, उससे लगता है कि चुनाव आयोग भी वन नेशन वन इलेक्शन के लिए मानसिक रूप से पूरी तरह से तैयार है। 2029 के चुनाव में चुनाव आयोग द्वारा 7951 करोड़ रुपए का खर्च अनुमानित किया गया है। राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों सहित अन्य खर्च अलग होंगे। वन नेशन वन इलेक्शन के सकारात्मक पक्ष भी है और उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता। वन नेशन वन इलेक्शन हमारे देश के लिए कोई नई बात नहीं है, उसी तरह से दुनिया के अन्य देशों जर्मनी, जापान, दक्षिणी अफ्रीका, स्वीडन, इंडोनेशिया, फिलिपिंस आदि में भी एक साथ चुनाव होते रहे हैं। कोविंद कमेटी ने जर्मनी के चुनाव पैटर्न को बेहतर व अनुकरणीय भी माना है।
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ये होंगे लाभ
एक बात साफ हो जानी चाहिए कि एक साथ चुनाव होने से संसाधन तो एक बार जुटाने होंगे पर उसके बाद व्यवस्था सुनिश्चित हो जाएगी। आजादी के 75 साल से भी अधिक समय हो जाने के बाद जिस तरह से मतदाताओं की उदासीनता देखी जा रही है वह निश्चित रूप से कम होगी। राजनीतिक दल भले आज विरोध कर रहे हैं पर एक साथ चुनाव से उन्हें भी कम मशक्कत व एक बार ही मशक्कत करनी होगी। प्रचार सामग्री से लेकर प्रचार अभियान को आसानी से संचालित किया जा सकेगा। योजनाबद्ध प्रयासों से विधानसभा व लोकसभा प्रत्याशियों का एक साथ प्रचार अभियान संचालित हो सकेगा जिससे अलग-अलग चुनाव होने से बार-बार होने वाले व्यय में कुछ हद तक राजनीतिक दलों को भी कम खर्च करना पड़ेगा। चुनी हुई सरकारों को बार-बार आचार संहिता के संकट से गुजरना नहीं पड़ेगा और सरकार को काम करने का अधिक समय मिल सकेगा। दोनों चुनाव एक साथ होने से भले ही पोलिंग बूथ अधिक बनाने पड़े, मशीनरी अधिक लगानी पड़े पर मतदाताओं और चुनाव कराने वाली मशीनरी के लिए भी सुविधाजनक होगा।
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असामाजिक तत्वों की गतिविधियों में कमी
एक बात यह भी कि असामाजिक तत्वों की गतिविधियां भी काफी हद तक कम हो सकेगी। इससे सरकारी संसाधनों की बचत, मानव संसाधन को बार बार नियोजित करने से होने वाले सरकारी कार्य में बाधा में बचत और प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से बार-बार चुनाव के स्थान पर एक साथ चुनाव होने से खर्चों में भी कमी आएगी। देखा जाए तो वन नेशन वन इलेक्शन लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को मजबूत करने की दिशा में बढ़ता कदम माना जा सकता है।
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