Bhagavad Gita: श्रद्धा – जीवन का सकारात्मक आधार

लेकिन इनमें से कोई भी विवरण श्रद्धा की अवधारणा के साथ पूर्ण न्याय नहीं कर सकता है। वास्तव में, श्रद्धा किसी अलौकिक शक्ति में विश्वास करने या किसी सिद्धान्त को मानने से कहीं अधिक है।

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-विजय सिंगल

Bhagavad Gita: आमतौर पर संस्कृत शब्द “श्रद्धा” का अंग्रेजी में अनुवाद “ विश्वास “ के रूप में किया जाता है। यह आस्था , विश्वास , निष्ठा, भरोसा , आदर , सम्मान आदि को भी दर्शाता है। आम बोलचाल में , श्रद्धा का अर्थ धार्मिक या आध्यात्मिक विश्वास अर्थात किसी सर्वोच्च शक्ति या ईश्वरीय सिद्धांत की सत्यता में यकीन से समझा जाता है।

लेकिन इनमें से कोई भी विवरण श्रद्धा की अवधारणा के साथ पूर्ण न्याय नहीं कर सकता है। वास्तव में, श्रद्धा किसी अलौकिक शक्ति में विश्वास करने या किसी सिद्धान्त को मानने से कहीं अधिक है। यह किसी व्यक्ति का वह विश्व- दृष्टिकोण है जो कि जीवन के अंतिम उद्देश्य के इर्द-गिर्द घूमता है। यह वह तत्व है जो किसी की भी स्वयं की भावना को परिभाषित करता है। यह वह तत्व है जो किसी की विशिष्टता को निर्दिष्ट करता है ।

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मूल्य प्रणाली का प्रतीक
यह स्वयं को समझने तथा अन्य चीजों, प्राणियों और घटनाओं के साथ सार्थक और उद्देश्यपूर्ण संबंध स्थापित करने का सुंदर तरीका है । श्रद्धा किसी की मूल्य प्रणाली का प्रतीक है। संक्षेप में, यह एक अच्छे जीवन की परिकल्पना है। श्रद्धा वह आंतरिक प्रकाश है जो शाश्वत सत्य की ओर संकेत करता है। यह वह शक्ति भी है जो मनुष्य को आध्यात्मिक पूर्णता के मार्ग पर आगे बढ़कर मनुष्य को उस सत्य को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है। श्रद्धा आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने , अर्थात अपने वास्तविक स्वरूप को जानने , का उत्साह प्रदान करती है । किसी व्यक्ति की अभिरुचियाँ व कुछ तरह के कार्यों की ओर उसका झुकाव , विभिन्न लौकिक तथा अलौकिक लक्ष्यों को पूरा करने में उसका प्रयास – ये सब उसकी मान्यताओं और विश्वासों से बहुत प्रभावित रहते हैं।

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उच्च आदर्श की पूर्ति
जब किसी व्यक्ति की आन्तरिक और बाह्य शक्तियाँ किसी उच्च आदर्श की पूर्ति की ओर निर्देशित रहती हैं , तब वह वास्तव में श्रद्धावान बन जाता है। इस प्रकार , श्रद्धा व्यक्ति के मूल चरित्र और व्यवहार को आकार देती है। भगवद्गीता तो यहाँ तक कहती है कि किसी मनुष्य की प्रकृति उसकी श्रद्धा के अनुसार होती है ; वह वही है जो उसकी श्रद्धा है।

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अंतर्निहित भाव में पूर्ण विश्वास
दूसरे शब्दों में, जिसकी जैसी आस्था होती है, वह वैसा ही होता है। किसी भी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए, उस उद्देश्य के अंतर्निहित भाव में पूर्ण विश्वास होना अति आवश्यक है । इसलिए , आध्यात्मिक पूर्णता के पथ पर पहला कदम उस ईश्वर के पारलौकिक अस्तित्व में दृढ़ विश्वास विकसित करना है , जो कि सब में व्याप्त है और सभी का आश्रय है। श्रद्धा किसी व्यक्ति के विशिष्ट अस्तित्व को जानने और अलौकिक वास्तविकता के साथ उसके संबंध को स्थापित करने का साधन है। श्रद्धा न केवल ईश्वर में आस्था रखने का नाम है, बल्कि उसे प्राप्त करने की अपनी क्षमता पर पूर्ण विश्वास करना भी है। इस प्रकार, श्रद्धा न केवल ईश्वर में विश्वास है, बल्कि स्वयं में विश्वास भी है। सच्ची श्रद्धा व्यक्ति को ईश्वर के साथ ऐक्य प्राप्त करने के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती है। जो जितना अधिक श्रद्धा से परिपूर्ण होता है, उतना ही वह अपने संदेहों एवं संशयवृत्ति से मुक्त हो जाता है।

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श्रद्धा का अर्थ
आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए श्रद्धा आवश्यक है। लेकिन, श्रद्धा का अर्थ अंधविश्वास बिल्कुल नहीं है। गुरु के वचनों या शास्त्रों के लेखों का बिना समझे पालन करने के बजाय, श्रद्धा से संपन्न व्यक्ति स्वयं सत्य को समझना और अनुभव करना चाहता है। श्रद्धा व्यक्ति को ज्ञान में कदम दर कदम आगे बढ़ने में मदद करती है और अंततः उच्चतम आध्यात्मिक स्थिति में ले जाती है। जब कोई व्यक्ति ईमानदारी से और पूरे विश्वास के साथ आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ता है तो वह अपने आप ही ईश्वरीय ज्ञान का अनुभव कर लेता है।

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आत्म-संयम प्राप्त
आत्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान, बौद्धिक ज्ञान के विपरीत, सांख्यिकीय आंकड़ों और तार्किक अनुमानों के माध्यम से नहीं बल्कि विश्वास और आत्म-संयम से प्राप्त होता है। सच्ची श्रद्धा व्यक्ति को उसके अपने वास्तविक स्वरूप में विकसित होने और आत्मा के आनंद का रसास्वादन करने में सक्षम बनाती है। आंतरिक तौर पर अपने अपरिवर्तनशील स्वरूप का अनुभव करने के बाद, मनुष्य भौतिक दुखों के बारे में चिंतित नहीं होता है, क्योंकि वे तो अनित्य होते हैं और सदा के लिए नहीं रहते । अपनी सांसारिक चिंताओं पर काबू पाने से व्यक्ति सभी दुखों से मुक्त हो जाता है। अलग-अलग लोग अपने-अपने स्वभाव के अनुसार अलग-अलग रूपों में भगवान की उपासना करते हैं। कोई चाहे किसी भी दिव्य रूप की पूजा करे, जब तक उसकी आस्था दृढ़ है और आराधना सच्ची है, वह निश्चित रूप से आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर प्रगति करता है। जो महत्वपूर्ण है वह है विश्वास की दृढ़ता, न कि पूजे जाने वाले रूप की ; क्योंकि सभी दिव्य रूप एक ही ईश्वर के रूप हैं।

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उच्च और उच्चतर स्तरों
निरंतर श्रद्धा और निःस्वार्थ भक्ति के माध्यम से व्यक्ति को परम सत्य का बोध हो जाता है। व्यक्ति जिस वेदी को चुनता है, उसके आधार पर श्रद्धा भी तीन प्रकार की मानी गई है। जो दूसरों को नष्ट करने के लिए भूतों और आत्माओं की पूजा करता है, उसकी श्रद्धा केवल तामसिक- श्रद्धा होती है। जिस व्यक्ति की भक्ति अधिक से अधिक धन और शक्ति के संचय के लिए होती है, वह राजसिक- श्रद्धा रखता है। लेकिन जो मनुष्य अपने हृदय की शुद्धि के लिए तथा परमेश्वर के प्रेम और विश्वास को प्राप्त करने के लिए भक्ति करता है, उसकी श्रद्धा सात्विक होती है। इस प्रकार की श्रद्धा व्यक्ति को आध्यात्मिक रूप से उच्च और उच्चतर स्तरों तक ले जाती है।

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मनुष्य लगातार आस्था
श्रीकृष्ण द्वारा यह आश्वासन दिया गया है कि जो मनुष्य लगातार गहरी आस्था के साथ और बिना किसी शिकायत के , उनकी शिक्षाओं का पालन करते हैं और तदनुसार अपने सभी कर्मों को उन्हें अर्पित करते हैं ; वे कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं । इस प्रकार, एक सच्चा श्रद्धावान व्यक्ति आध्यात्मिक मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। निष्कर्षतः, श्रद्धा न केवल जीवन के उद्देश्य को परिभाषित करती है, बल्कि उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए साधन भी प्रदान करती है। यह लक्ष्य निर्धारित करती है, आध्यात्मिक पूर्णता के मार्ग को आलोकित करती है ; और उस मार्ग पर खुशी से चलने के लिए प्रेरित करती है। सच्ची श्रद्धा व्यक्ति को वह सब प्राप्त करने के लिए सशक्त बनाती है जिसमें वह सच्ची आस्था रखता है तथा जिसके लिए वह ईमानदारी से प्रयास करता है ।

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