Bhagavad Gita: अनासक्ति -जीवन की चिंताओं से मुक्ति

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विजय सिंगल

Bhagavad Gita: भगवद् गीता में बारंबार भौतिक वस्तुओं और सांसारिक विषयों के प्रति अनासक्त भाव रखने की आवश्यकता पर बल दिया गया है। अनासक्ति को वह साधन बताया गया है, जिसके द्वारा मनुष्य सच्चा ज्ञान, मन की शांति तथा स्थायी आनंद प्राप्त कर सकता है। अनासक्ति द्वारा मनुष्य स्वयं के प्रति सहज होना सीख सकता है। संक्षेप में, अनासक्ति के निरंतर अभ्यास से अंततः आध्यात्मिक स्वतंत्रता की प्राप्ति हो जाती है।

सांसारिक निर्भरता से मुक्त व्यक्ति जीता है संतुष्ट जीवन
श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया है कि कर्म की उत्पत्ति गुणों (भौतिक प्रकृति के प्रकार) की परस्पर क्रिया से होती है। ‌ परंतु झूठे अंह के कारण व्यक्ति स्वयं को समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है; तथा इस प्रकार का आसक्ति में पड़ जाता है। आसक्ति मनुष्य के तर्कसंगत रूप से विचार करने, सरलता के साथ अपनी बात कहने एवं विवेक पूर्वक कार्य करने की योग्यता को दुर्बल कर देती है। फलस्वरुप व्यक्ति सदा अतृप्त रहने वाली वासनाओं, तीव्र भावनाओं तथा अंतहीन दुखों के दुष्चक्र में फंस जाता है। दूसरी ओर, जो व्यक्ति अपने द्वारा किए गए कर्मों के फल के प्रति आसक्त नहीं होता, वह सांसारिक निर्भरता से मुक्त हो जाता है; और संतुष्ट जीवन जीता है। बाहरी रूप से सदैव कार्य में लगे रहते हुए भी वह आंतरिक रूप से कुछ नहीं करता। इसलिए, जोर देकर कहा गया है कि मनुष्य को अपने कार्यों अथवा उन कार्यों के परिणामों के प्रति आसक्त हुए बिना अपना नियत कार्य करता रहना चाहिए।

वैराग्य को लेकर कई गलत धारणाएं
वैराग्य के वास्तविक अर्थ के बारे में बहुत सी गलत धारणाएं एवं भ्रम है। अनासक्ति के सिद्धांत को अक्सर जीवन के आवश्यक कर्तव्यों -जैसे कि सम्मानजनक आजीविका अर्जित करने, व्यक्तिगत संबंधों का आदर करने तथा सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करने-से बचने के लिए एक बहाने के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन एक सच्चा आध्यात्मिक व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियां से कभी भी दूर नहीं भागता। वह कभी भी अपने साथियों के कष्टों से अपने को अलग नहीं रख सकता।

तब वैराग्य का वास्तविक अर्थ है क्या? संसार को त्यागने की बात नहीं है। अनासक्ति का तात्पर्य है
अच्छी से अच्छी और बुरी से बुरी परिस्थितियों में भी भावनात्मक संतुलन बनाए रखना। अनासक्ति का अर्थ है स्वामित्व के भाव से रहित होकर जीवन जीना तथा कर्तापन की भावना से मुक्त होकर कर्म करना। ‌ अपनी बुद्धि को सब ओर से नियंत्रित करके मनुष्य उच्चतम पूर्णता की स्थिति को प्राप्त कर सकता है। यह एक ऐसी मनोवृति है जिसमें व्यक्ति सांसारिक विषयों, लोगो तथा घटनाओं के प्रति अपनी पसंद और नापसंद पर काबू पा लेता है। ‌ जो व्यक्ति अनासक्ति की इस अवस्था को प्राप्त कर लेता है, वह जीवन में कुछ भी घटित होने से विचलित नहीं होता। वह सफलता या असफलता की चिंता किए बिना उसे भूमिका को बखूबी निभाता हैं जिसकी उससे अपेक्षा की जाती है। परिस्थितियां कैसी भी हों, वह अपने कर्तव्य कर्म पर ध्यान केंद्रित रखना है। इस प्रकार अनासक्ति कार्य में कुशलता लाती है।

अपने प्रयासों के फल को विनीत भाव से स्वीकार करना
एक अनासक्त व्यक्ति अपने प्रयासों के फल को विनीत भाव तथा कृतज्ञता के साथ स्वीकार करता है। ‌ वह जीवन के उच्च एवं व्यापक दृष्टिकोण को प्राप्त कर लेता है। अधिकतम दबाव में भी वह शांत व संतुलित बना रहता है। इस प्रकार, वह कर्मों के बंधन से मुक्ति पा लेता है।

कर्मों के फल में आसक्ति नहीं होने का तात्पर्य
श्रीकृष्ण ने यह भी स्पष्ट किया है कि कर्मों के फल में आसक्ति नहीं होने का तात्पर्य यह नहीं कि अकर्म में आसक्ति हो जाए। ‌ इस प्रकार, आसक्ति का अर्थ संसार से उदासीन होकर स्वयं को जीवन के सुखों से वंचित रखना तथा दुनियावी दुखों से घबराकर उनसे दूर भगाने का प्रयास करना नहीं है। ‌ अनशक्ति का अर्थ परिवार, मित्रों तथा अन्य प्रिय जनों से भौतिक दूरी बनाना या भावनात्मक अवरोध पैदा करना भी नहीं है। ‌ अपितु यह तो किसी को नियंत्रित करने के इरादे अथवा किसी और के द्वारा नियंत्रित होने की संभावना से रहित होकर, हर किसी को स्वार्थ रहित प्रेम करने की कला है।
अनासक्ति बाहरी चीजों के बारे में नहीं , बल्कि आंतरिक दृष्टिकोण से संबंधित है।

अनासक्ति का अर्थ
अनासक्ति का अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति की कोई इच्छा या भावना ना हो, या वह अपने कर्तव्य कर्म को ना करें। ‌ इसका सीधा सा अर्थ है कि मनुष्य का उसकी इच्छाओं, भावनाओं और इंद्रियों पर नियंत्रण होना चाहिए। उसे अपने आवेगों का गुलाम नहीं बनना चाहिए। भावनाओं को दबाने की बजाय व्यक्ति को उन पर पूर्ण प्रभुत्व प्राप्त करना चाहिए।
अनासक्त व्यक्ति का मन सदा समभाव में रहता है। ‌ अनित्य जगत की घटनाओं में बाहरी रूप से पूर्ण रूपेण सम्मिलित रहते हुए भी, भीतर सेवा पूरी तरह से शाश्वत आत्मा में स्थित रहता है।

वह सांसारिक घटनाओं के परिणामों से अप्रभावित रहता है। ना तो सब ठीक चलने पर वह अत्यधिक उत्साहित होता है, और ना ही अत्यंत कठोर परिस्थितियों में बहुत ज्यादा उदासी में डूबता है। वह जीवन के हर अनुकूल और प्रतिकूल प्रवाह को सहज भाव से पार करता है।

अनासक्ति रातों-रात उपलब्ध होने वाली वस्तु नहीं है। ‌ बल्कि यह तो वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य समय-समय पर उपस्थित होने वाली परिस्थितियों को प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करने की मनोवृत्ति धीरे-धीरे विकसित करता है।

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समस्त लालसाएं तथा भावनाएं अहं -केंद्रित जीवन और आत्म केंद्रित सोच के प्रति लगाव का परिणाम
निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि मनुष्य की समस्त लालसाएं तथा भावनाएं उसके अपने अहं -केंद्रित जीवन और आत्म केंद्रित सोच के प्रति लगाव का परिणाम हैं। आसक्ति इस प्रकार भय, चिंता, आक्रोश, ईर्ष्या और असंतोष आदि का कारण बनती है; और आसक्ति से मुक्ति जीवन के दुखों से मुक्ति है। ‌ यह आत्मा की स्वतंत्रता है। ‌ अनासक्ति व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप जो कि विशुद्ध आनंद की है, को जान लेता है।

 

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