Bhagavad Gita: अवतार, अर्थात् देहधारी ईश्वर, की आध्यात्मिक अवधारणा हिन्दू धर्मशास्त्रों का एक अभिन्न अंग है। ऐसा माना जाता है कि जब पृथ्वी पर जीवन अत्यंत चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों से गुजर रहा होता है तो ईश्वर स्वयं मानव या किसी अन्य रुप में प्रकट होते हैं। वे जगत् की सुरक्षा को सुनिश्चित करने एवं इसे बुराई से बचाने के लिए स्वयं को व्यक्त करते हैं।
अवतार को भौतिक रुप धारण किया हुआ ईश्वर कहा गया है। इस प्रकार दिव्य सत्य का अनुमान अथाह वैभव में उसकी कल्पना करने के बजाय, मनुष्यत्व के माध्यम से साक्षात् उसका अनुभव किया जा सकता है। स्वयं में आनंदमय होते हुए भी एक अवतार के रुप में ईश्वर किसी अन्य प्राणी की तरह जीवन की चिंताओं, दुखों और खुशियों का अनुभव करते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव की हिन्दू त्रिमूर्ति में से केवल विष्णु को ही समय-समय पर अवतार लेने के लिए जाना जाता है। गीता के भगवान श्रीकृष्ण उनके नर्वे अवतार कहे जाते हैं।
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जन्म-मृत्यु के फेर
अवतार की अवधारणा को भगवद् गीता के 4.6 से लेकर 4.8 तक के श्लोकों में विस्तार से बताया गया है। अजन्में, अविनाशी तथा समस्त सृष्टि के स्वामी होते हुए भी ईश्वर अपनी आंतरिक शक्ति (माया) के माध्यम से जीवरुप में व्यक्त होते हैं। जब-जब धर्म की हानि होती है तथा अधर्म में वृद्धि होती है, वे स्वयं अवतार लेते हैं। सदाचारियों की रक्षा के लिए, दुष्टों का संहार करने के लिए एवं धर्म की पुनर्स्थापना करने के लिए वे युग-युग में अवतरित होते हैं। यद्धपि ईश्वर जन्म-मृत्यु के फेर से परे हैं, फिर भी वे अज्ञान एवं दुष्टता की शक्तियों से लड़ने के लिए इस पृथ्वी पर कृष्ण के रुप में प्रकट हुए। सत्य और असत्य के संघर्ष में वे सदा सत्य के साथ खड़े रहते हैं। सृष्टि में अवतार का प्रकट होना ईश्वर की ओर से एक आश्वासन है कि धर्म हमेशा प्रबल रहेगा; और असत्य पर सदा सत्य की विजय होगी।
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धर्म के धारक
एक अवतार के रुप में श्रीकृष्ण धर्म के धारक हैं। ज्ञान एवं सदाचार की वे मूर्ति हैं। वे दुनिया के सुचारू विकास और एक आदर्श एवं नैतिक व्यवस्था की स्थापना के लिए काम करते हैं। जबकि अन्य प्राणियों के जन्म प्रकृति द्वारा संचालित होते हैं, ईश्वर अपनी स्वतंत्र इच्छा से प्रकट होते हैं। मनुष्य को दैवी स्तर तक उठाने के लिए वे उसके ही स्तर तक उतर आते हैं। मानव जाति के प्रति उनकी करुणा के कारण वे बार-बार जन्म लेते हैं।
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कर्तव्य करने की आवश्यकता
ईश्वर के मानव रुप में होने के कारण, कोई व्यक्ति उससे अपना मानवीय संबंध मान सकता है। वह किसी का मित्र, दार्शनिक एवं मार्गदर्शक हो सकता है। कठिन समय में मार्गदर्शन और अन्य सहायता के लिए कोई भी उसकी ओर देख सकता है। जैसा कि श्लोक संख्या 3.22 और 4.14 में कहा गया है, ईश्वर को तीनों लोकों में कहीं भी कोई कर्तव्य करने की आवश्यकता नहीं है। उस पर किसी कर्म का प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वह कर्मों के फल की कामना नहीं करता है। जो व्यक्ति उसके सम्बन्ध में इस सत्य को जानता है, वह कर्मों के बंधन में नहीं बँधता।
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अंतर्निहित दैवीय अधिकार
अवतार सभी के आध्यात्मिक उत्थान में रुची रखता है। उसका संदेश संपूर्ण मानव जाति के लिए है। उसके शब्द अधिक महत्व रखते हैं क्योंकि वह अपने अंतर्निहित दैवीय अधिकार के साथ बोलता है। एक साधारण मनुष्य के लिए वह कुछ आदर्श स्थापित करता है और स्वयं अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करता है। अपने उपदेशों तथा अपने स्वयं के उदाहरण के द्वारा वे सब को सही मार्ग दिखाता है। जीवन के हर क्षेत्र में वे मनुष्य में उसकी निहित संभावनाओं को प्राप्त करने में सहायता करता है।
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मानव जीवन के परम लक्ष्य
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने न केवल मानव जीवन के परम लक्ष्य अर्थात् परमात्मा के साथ एकीकरण को चिन्हित किया है अपितु उस लक्ष्य को प्राप्त करने के माध्यम के रुप में स्वंय को प्रस्तुत भी किया है; जिसका आधार लेकर मनुष्य उस लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। यह आश्वासन भी दिया गया है कि जो मनुष्य अविचलित रहकर निरन्तर चिन्तन करते हुए श्रीकृष्ण की भक्ति प्रेम सहित करता है, वह भौतिक प्रकृति के सभी रुपों को लाँघ कर सच्चिदानन्दघन ब्रह्म के साथ एक होने के योग्य हो जाता है (श्लोक 14.26)। दूसरे शब्दों में, जब कोई व्यक्ति ईश्वर के अवतार श्रीकृष्ण से अपने हृदय की गहराइयों से प्रेम करता है और अपना पूरा अस्तित्व उसको समर्पित कर देता है, तो वह व्यक्ति ब्रह्म की स्थिति (सत्-चित-आनंद) को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार, ईश्वर ने मनुष्य को उस पर विश्वास करने और उसे प्रेम करने के लिए आमंत्रित किया है; जिसके द्वारा मनुष्य निश्चित रुप से परम सत्य को प्राप्त कर सकता है।
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दैवीय प्रकृति से अनभिज्ञ
क्योंकि बाहय रुप से अवतार किसी भी अन्य व्यक्ति की भांति दिखाई पड़ता एवं रहता है, साधारणतः लोग उसकी दैवीय प्रकृति से अनभिज्ञ रहते हैं। यद्धपि वे उन्हीं के बीच रह रहा होता है, तो भी वह उसकी उच्च स्थिति को नहीं जान पाते। केवल कुछ प्रज्ञावान लोग ही उसे समस्त सृष्टि के स्वामि के रुप में पहचान पाते हैं। अवतार की वास्तविक प्रकृति को जान कर मनुष्य दैवीय पद को प्राप्त कर सकता है।अंत में, अवतार की अवधारणा बताती है कि ईश्वर कोई दूर का दर्शक नहीं, अपितु निरन्तर का साथी है। जब भी लौकिक या नैतिक व्यवस्था के लिए कोई गंभीर संकट उत्पन्न होता है, वो मानव जाति के समर्थन में खड़ा हो जाता है। ऐसी विषम परिस्थितियों में वह पृथ्वी पर प्रकट होता है और जीवन के संतुलन को पुनर्स्थापित करता है।
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