जयंती विशेष: वर्तमान संघर्ष में प्रेरणा है स्वातंत्र्यवीर सावरकर का जीवन

यह माह स्वातंत्र्यवीर सावरकर की 138वीं जयंती और 2 मई 1921 को उनके कालापानी से मुक्ति की शताब्दी का है, इसलिए कोविड 19 जैसे झंझावातों से त्रस्त होने का काल यह नहीं है बल्कि स्वातंत्र्यवीर के जीवन से प्रेरणा लेकर आगे बढ़ने का है।

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स्वातंत्र्यवीर सावरकर का जीवन कालजयी ग्रंथ है जो सदा समाज, राष्ट्र को प्रेरणा देता रहेगा। दो-दो कालापानी की सजा पानेवाले वे भारतीय स्वातंत्रता इतिहास के एकमात्र सेनानी थे। जहां तृण भी मिलना कठिन था वहां वीर सावरकर ने दीवार पर ही कीलों की सहायता से ‘कमला’ ग्रंथ रच दिया। यह वर्तमान के लिए एक प्रेरणा है, आज महामारी है तो उसका इलाज भी है। जबकि उस काल में तो बीमारी मृत्यु शैय्या का बोध कराने लगती थी।

स्वातंत्र्यवीर की कालापानी से मुक्ति और उनकी 138वीं जयंती के अवसर पर कालापानी से मुक्ति के प्रसंग का उल्लेख हमें पीड़ा से लड़ने की शक्ति प्रदान करता है। स्वातंत्र्यवीर सावरकर और उनके बंधु कालापानी में ही रहने के बावजूद नहीं मिल पाए और जब मिले तो वह अति पीड़ादायी काल ही था।

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चौदह वर्ष बाद मिले बाबाराव
मेरा आजीवन कारावास में कालापानी से मुक्ति मिलने पर स्वातंत्र्यवीर सावरकर और उनके बंधु बाबाराव सावरकर महाराजा नामक जहाज में सवार हुए। सवार होते ही दोनों भाइयों को तलहटी के पिंजरे में ले जाया गया। बाबाराव असहनीय कष्टों के चलते तपेदिक और खांसी से ग्रस्त थे। इन समस्याओं से बड़ा संकट उस पिंजरे में पहुंचने पर पता चला जो पागलों से भरा पड़ा था। अंदमान से जिन पागलों को हिंदुस्थान भेजा जाता था वे इसी जलयान द्वारा भेजे जाते थे। कोई रो रहा था, कोई गाली-गलौच कर रहा था तो कोई अपना ही गला घोंट रहा था। इस बीच जलयान के अधिकारी चोरी-छिपे सावरकर जी से मिलने आते रहते, एक एंग्लो इंडियन गृहस्थ ने उन्हें ‘थॉमस एकेमपिस’ पुस्तक की प्रति उपहार में दी। कई अधिकारी भोजन, मिठाई, सोडा वाटर, बर्फ भेज देते, जिसे सावरकर बंधु आभारपूर्वक लौटा देते।

सावरकर जी लिखते हैं, ‘बैरिस्टर की परीक्षा देने वर्ष 1906 में विलायत गए, उसके बाद से बाबाराव और उनकी एकांत में 14 वर्षों के पश्चात चर्चा हो रही थी। कैसे उनके पीछे अभिनव भारत का आंदोलन बढ़ता गया, बाबा कैसे पकड़े गए, कारागृह में पूछताछ करने के लिए उन पर कितने अमानवीय अत्याचार किये गए, लाख दर्द सहने के बाद भी बाबाराव के मुंह से एक शब्द तक नहीं निकला और वे मूर्छित हो जाते थे।’

नए संकट सामने खड़े थे
स्वातंत्र्यवीर सावरकर और उनके बंधु बाबाराव सावरकर यद्यपि कालापानी से मुक्त हो गए थे, लेकिन इसके बाद भी दुर्दिन उनके साथ ही रहा। 14 वर्षों बाद मिले दोनों भाइयों के कोलकाता पहुंचने पर वहां के अलीपुर कारागृह में ले जाया गया और वहां दोनों को एकबार फिर अलग कर दिया गया। स्वातंत्र्यवीर लिखते हैं, ‘जब दोनों भाइयों को अलग-अलग ले जाया जा रहा था तो बाबाराव की खांसी उन्हें बहुत दूर तक सुनाई देती रही। उन्हें प्रतीत हुआ उनके बंधु उन्हें छोड़कर मृत्यु के गलियारे की ओर बढ़ रहे हैं। यह हो सकता है उनका अंतिम दर्शन रहा हो।’

स्वातंत्र्यवीर सावरकर और उनके बंधु इसके पश्चात भी कारागृह में रहे। लगभग तीन वर्ष के कठिन कारावास के पश्चात स्वातंत्र्यवीर सावरकर को रत्नागिरी में स्थानबद्ध कर दिया गया। जहां उनके सार्वजनिक कार्यक्रमों में सम्मिलित होने की भी रोक थी।

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वर्तमान को होगा सीखना
वर्तमान महामारी से ग्रसित है, कइयों के जीवन में अपनों को खोने से रिक्तता है। इन कठिन परिस्थितियों में स्वातंत्र्यवीर सावरकर का एक विचार प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए, कि जीवन में जो आगे घटित होगा वह भी प्रतिकूल ही होगा। इसलिए उससे मुकाबले के लिए जीवन को तैयार करना चाहिए। वर्तमान में भारत की 130 करोड़ की जनसंख्या में जितनों को महामारी ने संक्रमित किया है वह कुल जनसंख्या के अनुपात का अत्यल्प है। महामारी की इस परिस्थिति में कोई भी सत्ता या प्रशासन रातोरात परिवर्तन नहीं कर सकती। इसलिए स्वयं अपनी चिंता करनी होगी। यह काल स्वातंत्र्यवीर के जीवन से सीखने, कठिन परिस्थितियों से उबरने की शक्ति प्राप्त करने का है।

 

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