स्वातंत्र्यवीर सावरकर को गांधी की कोई अवश्यकता नहीं थी। गांधी ने एक पत्र स्वातंत्र्यवीर सावरकर के भाई नारायण सावरकर को लिखा था, जिसमें तत्कालीन अंग्रेज सरकार को पत्र लिखने के लिए कहा था। परंतु, स्वातत्र्यवीर सावरकर ने इसके पहले कई पत्र अंग्रेजों को लिखे थे। ये आवेदन थे, जिसमें पहली सफलता 1913 में मिली जब क्रांतिकारियों को छोड़ा गया। इसके बाद 1914, 18,19,20 में भी चलता रहा। लेकिन स्वातंत्र्यवीर सावरकर को 1924 में छोड़ा गया।
स्वातंत्र्यवीर सावरकर के पौत्र रणजीत सावरकर ने कहा कि, गांधी द्वारा स्वातंत्र्यवीर सावरकर के समर्थन में दो लेख लिखे गए थे। उन्होंने प्रश्न किया कि, जब गांधी ने वीर सावरकर का समर्थन किया था, उन्हें सबसे बड़ा राष्ट्रभक्त बताया था, तो वर्तमान के कांग्रेसियों को क्यों दर्द होता है। गांधी का अर्थ ही कांग्रेस होता है तो इस कांग्रेस को क्यों दिक्कत है।
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उस समय गांधी ने किया इन्कार
रणजीत सावरकर ने बताया कि, गांधी ने वीर सावरकर पर लेख तो लिखे परंतु, 75 हजार लोगों के हस्ताक्षर पत्र पर खुद हस्ताक्षर नहीं किया। धनंजय कीर के पुस्तक में इस बात का उल्लेख है कि, जब गांधी के पास लोगों के हस्ताक्षर वाला पत्र ले जाया गया तो उन्होंने उसे किनारे कर दिया।
तो भगत सिंह को नहीं होती फांसी
भगत सिंह को छुड़ाने के लिए ववेल्स से गांधी ने बात थी, लेकिन वे कभी इसके लिए जिद पर नहीं अड़े, जैसा कि कांग्रेस के नेताओं के लिए उन्होंने किया। यदि उस समय भगत सिंह को छोड़ने के लिए गांधी ने जिद की होती तो अंग्रजों को छोड़ना पड़ता।
गांधी का माफीनामा
इसके बाद भगत सिंह को फांसी दे दी गई। इसके कुछ दिन बाद ही गांधी ने इरविन से समझौता कर लिया। इस समझौते के बाद क्रांतिकारियों को जेल में ही रखते हुए कांग्रेस के लोगों को छोड़ दिया गया, लेकिन उसके बदले कांग्रेस को गोलमेज परिषद में सम्मिलित होना पड़ा। यह गांधी का माफीनामा ही था। मूल रूप से देखा जाए तो गांधी की भूमिका हमेशा दोहरी रही है। इसके बाद नेहरू को 1935 में सशर्त जमानत मिली थी। देखा जाए तो यह माफीनामा था।