जो काम भारत को करना चाहिए था, वह अब यूरोपीय संघ करेगा। चीन ने ‘रेशम महापथ’ की अपनी पुरानी चीनी रणनीति को नया नाम देकर एशिया और अफ्रीका में फैला दिया है। भारत के लगभग सभी पड़ोसी राष्ट्रों को उसने अपने बंधन में बांध लिया है। लगभग सभी उसके कर्जदार बन गए हैं। उसने एशिया और अफ्रीका के देशों को एक विशाल सड़क से जोड़ने की योजना तो बनाई ही है, वह इन देशों में बंदरगाह, रेलवे, नहर, बिजलीघर, गैस और तेल की पाइपलान वगैरह कई चीजें बनाने का लालच उन्हें दे रहा है। इन निर्माण-कार्यों से इन देशों को अरबों-खरबों रुपये का टैक्स मिलने के सपने भी दिखा रहा है। उसने लगभग 65 देशों से भी ज्यादा को अपने चंगुल में फंसा लिया है। अब तो 139 देशों ने इस चीनी पहल से सहमति जताई है। इन देशों की कुल जीडीपी वैश्विक जीडीपी की 40 प्रतिशत है।
अभी तक चीन ने एशिया और अफ्रीका के जिन देशों को मोटे-मोटे कर्ज दिए हैं, यदि उनके मूल दस्तावेज आप पढ़ें तो उनकी शर्तें जानकर आप भौंचक रह जाएंगे। यदि निश्चित समय में वे राष्ट्र चीनी कर्ज नहीं चुका पाएंगे तो उन निर्माण-कार्यों पर चीन का अधिकार हो जाएगा। चीन उनका संचालन करेगा और अपनी राशि ब्याज समेत वसूल करेगा या किन्ही दूसरे स्थलों को अपने नियंत्रण में ले लेगा। एक अर्थ में यह नव-उपनिवेशवाद है। इसका मुकाबला भारत को कम से कम दक्षिण और मध्य एशिया में तो करना ही था। उसे नव-उपनिवेशवाद नहीं, इस क्षेत्र में वृहत परिवारवाद का परिचय देना था लेकिन अब यह काम यूरोपीय संघ करेगा। उसने घोषणा की है कि वह चीन के रेशम महापथ की टक्कर में ‘विश्व महापथ’ प्रारंभ करेगा। वह 340 अरब डाॅलर लगाएगा और अफ्रो-एशियाई देशों को समग्र विकास के लिए अनुदान देगा। चीन की तरह वह ब्याजखोरी नहीं करेगा। उसकी कोशिश होगी कि वह इन विकासमान राष्ट्रों को प्रदूषण-नियंत्रण, शिक्षा, स्वास्थ्य, रेल, हवाई अड्डे, सड़क-नहर निर्माण तथा अन्य कई क्षेत्रों में न सिर्फ आर्थिक मदद देगा बल्कि हर तरह का सहयोग करेगा ताकि इन देशों के साथ उसका व्यापार भी बढ़े और इन देशों के लोगों को नए-नए रोजगार भी मिलें। चीन भी इन देशों में रोजगार बढ़ाता है लेकिन वह सिर्फ चीनी मजदूरों का ही बढ़ाता है।
यूरोपीय संघ उत्तर-अफ्रीकी देशों को आपस में जोड़नेवाला एक भूमध्यसागरीय महापथ भी बनानेवाला है। यूरोपीय संघ की यह उदारता सर्वथा सराहनीय है लेकिन हम यह न भूलें कि यूरोप की समृद्धि का रहस्य उसके पिछले 200 साल के उपनिवेशवाद में भी छिपा है। यूरोप हो, अमेरिका हो या रूस हो, इनमें से प्रत्येक राष्ट्र की मदद के पीछे उसका राष्ट्रहित भी निहित होता ही है लेकिन वह चीन की तरह अपने चंगुल में फंसाने के लिए नहीं होती। यह देखनेवाली बात होगी यदि, दक्षिण और मध्य एशिया के लगभग 16 देशों में यूरोप की तरह एक साझा बाजार, साझी संसद और साझा महासंघ बन जाएगा।
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