भारत में क्यों चल रहा है धर्मयुद्ध?

जजों की नूपुर-विरोधी टिप्पणियों के कारण यदि नूपुर या किसी अन्य व्यक्ति की हत्या हो जाए तो क्या इन सम्मानीय जजों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है?

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नूपुर शर्मा के मामले में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के दो जजों ने बहस के दौरान जो टिप्पणियां की हैं, उन्हें लेकर देश में काफी बहस छिड़ गई है। अनेक लोग उनकी टिप्पणियों पर सख्त नाराजी जाहिर कर रहे हैं। वे पूछ रहे हैं कि उदयपुर में कन्हैयालाल की हत्या के लिए नूपुर को जिम्मेदार ठहराने वाले जजों से कोई पूछे कि उनकी नूपुर-विरोधी टिप्पणियों के कारण यदि नूपुर या किसी अन्य व्यक्ति की हत्या हो जाए तो क्या इन सम्मानीय जजों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? यह तो सबको पता है कि जजों की टिप्पणियां उनके फैसले का अंग नहीं हैं, इसलिए उनका कोई कानूनी महत्व नहीं है।

जज की टिप्पणी पर आरोप
उन्हें बाजारू गप-शप की तरह अनदेखा भी किया जा सकता है और उस याचिका की भी जरूरत दिखाई नहीं पड़ती कि ये जज अपने टिप्पणियां वापस लें। उन्होंने वकील के बयानों के जवाब में उत्तेजित होकर उसी तरह तीखी टिप्पणी कर दी, जैसे कि टीवी संवाद के दौरान नूपुर ने जवाब में वह टिप्पणी कर दी थी, जिसने काफी गलतफहमी पैदा कर दी है। इन जजों का यह प्रश्न भी ध्यान देने लायक है कि पत्रकार तो वैसी टिप्पणी कर सकता है लेकिन किसी पार्टी प्रवक्ता को उत्तेजित होकर वैसी टिप्पणी करनी चाहिए क्या? हमारे राजनीतिक नेता और उनके प्रवक्ता खास तौर से टीवी चैनलों पर काफी निरंकुश टिप्पणियां कर देते हैं। उनको उसका करारा जवाब विरोधी लोग दिए बिना मानते नहीं हैं। टीवी मालिक तो यही चाहते हैं। यदि तू-तू मैं-मैं जमकर चले तो उनकी दर्शक-संख्या बढ़ेगी लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि इससे देश का कितना नुकसान हो सकता है।

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टीवी चैनलों पर अंकुश जरूरी
ऐसी बहसों को रोकने के लिए टीवी चैनलों पर भी अंकुश लगाया जाना जरूरी है। बेहतर तो यही हो कि इस तरह के विवादास्पद मुद्दों पर जो भी बहस हो, उसे पहले से रेकार्ड और संपादित करके ही जारी किया जाए। वरना जो कुछ उदयपुर और अमरावती में हुआ है, वह बड़े पैमाने पर भी हो सकता है। स्वतंत्र भारत के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है। भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन ने अपने दिल का दर्द कल अमेरिका के भारतीय प्रवासियों को संबोधित करते हुए सार्वजनिक कर ही दिया। उन्होंने कहा कि सत्तारूढ़ और विपक्षी नेता, दोनों ही चाहते हैं कि न्यायपालिका उनकी तरफ झुके लेकिन उसका धर्म उसके निष्पक्ष रहने से ही सुरक्षित रह सकता है। बहुत दुख की बात है कि हमारे प्रमुख राजनीतिक दलों के नेता अपनी-अपनी रोटियां सेंकने से अब भी बाज नहीं आ रहे हैं। क्या उन्हें इस बात का जरा भी अंदाज नहीं है कि उनकी कारगुजारियों के चलते यह धर्म-निरपेक्ष भारत धर्मयुद्ध का स्थल बन सकता है?

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)

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