आदिवासी नेता द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाकर भारतीय जनता पार्टी ने विपक्ष को एक बार फिर चित कर दिया है। चाहे राष्ट्रति चुनाव हो, या फिर महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने का मामला , भाजपा के हर दांव से विपक्ष बिखरता रहा है। इससे पहले कई प्रदेशों के चुनावों में भी विपक्ष में एकजुटता नहीं दिखी और उसके हर दांव उल्टा पड़ते दिखे।
अब ताजा मामला आदिवासी नेता द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाए जाने का है। यशवंत सिन्हा की हार बहुत पहले ही हो गई थी और 21 जुलाई को मगणना के बाद आया परिणाम केवल औपचारिकता था। इसका कारण यह है कि भाजपा के इस दांव ने विपक्षी एकता को बहुत पहले ही छिन्न-भिन्न कर दिया था।
लोकसभा चुनाव 2024 का ट्रेलर
बात केवल द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बन जाने तक ही सीमित नहीं है। भाजपा का यह तीर 2024 तक शिकार करता रहेगा और विपक्ष की मुश्किलों को बढ़ाता रहेगा। राजनीति के जानकार इसे 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव का ट्रेलर के रूप में देख रहे हैं। यह संयोग ही है कि 25 जुलाई को द्रौपदी मुर्मू जहां राष्ट्रपति पद की शपथ लेंगी, वहीं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की नेशनल हेराल्ड मामले में ईडी के समक्ष पेशी होगी।
अपने प्रतिनिधियों को नहीं संभाल पाईं विपक्षी पार्टियां
भाजपा के दांव से तो विपक्षी एकता उसी दिन क्षत-विक्षत हो गई थी, जिस दिन उसने एक आदिवासी नेता को राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाने की घोषणा की थी। एक आदिवासी नेता को देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचाने के भाजपा के प्रयास ने विपक्ष को असमंजस में डाल दिया था और उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि भाजपा की इस चाल का काट कैसे करें। परिणाम यह निकला कि उनमें फूट पड़ गई। यहां तक कि जिस तृणमूल कांग्रेस पार्टी ने पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा को इस पद के लिए उम्मीदवार बनाया था, उसके नेता भी असमंजस में पड़ गए। परिणाम यह हुआ कि विपक्षी एकता की बात करने वाली पार्टियां अपने जनप्रतिनिधियों को नहीं संभाल पाईं और 17 सांसदों तथा 126 विधायकों ने क्रॉस वोटिंग कर पार्टियों के आदेश की धज्जियां उड़ा दीं।
सभी पार्टियांं चलीं अपनी राह
राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा ने जो दांव चला है, उसका दूरगामी परिणाम होना निश्चित है। जिन विधायकों और सांसदों ने क्रॉस वोटिंग की है, उन्हें लेकर पार्टियों में संदेह होना और उसका प्रभाव पार्टी की रणनीति पर पड़ना स्वाभाविक है। झारखंड में जहां कांग्रेस के साथ गठबंधन होते हुए भी जेएमएम ने द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देने की घोषणा कर दी, वहीं महाराष्ट्र में भी इसी तरह की स्थिति देखने को मिली। महाविकास आघाड़ी में शामिल शिवसेना ने अपने जन प्रतिनिधियों के दबाव में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से राह बदल ली और द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देने की घोषणा कर दी। फिलहाल तीनों पार्टियों में इस मुद्दे पर कोई ज्यादा मतभेद भले ही नहीं दिख रहा हो, लेकिन मुंबई महानगरपालिका से लेकर 2024 में होने वाले लोकसभा और प्रदेश विधानसभा चुनाव पर इसका प्रभाव पड़ने से इनकार नहीं किया जा सकता।
कहीं नहीं दिख रही है विपक्ष में एकजुटता
कुल मिलाकर भाजपा के इस दांव ने विपक्षी एकता को बिखराव की राह पर ला दिया है। भविष्य में विपक्ष अगर एकजुट होने की कोशिश करता है तो भी मन में शंका-आशंका पैदा होना स्वाभाविक ही है। हालांकि गठबंधन मजबूरी का नाम होता है। फिर भी उनमें जो एक विश्वास होता है, अब वह पैदा करना मुश्किल है। बीजेडी, वाईएसआर कांग्रेस, झारखंड मुक्ति मोर्चा, अकाली दल, शिवसेना, तेलगु देशम पार्टी समेत कई पार्टियों ने द्रौपदी मर्मू का समर्थन दिया, जबकि ये एनडीए में शामिल नहीं हैं।
उपराष्ट्रपति चुनाव में भी नहीं दिख रही है विपक्षी एकता
राष्ट्रपति के बाद उपराष्ट्रपति पद को लेकर भी विपक्षी एकता की हवा निकलती दिख रही है। भाजपा ने पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जदगीप धनखड़ को जहां इस पद का उम्मीदवार बनाया है, वहीं विपक्ष ने मार्गरेट अल्वा को उम्मीदवार बनाया है। लेकिन नामांकन के समय यहां भी विपक्षी एकता बिखरती नजर आई। टीएमसी ने वोटिंग से दूरी बनाने का फैसला ले लिया है। टीएमसी का कहना है कि विपक्ष ने इस बारे में पार्टी प्रमुख ममता बनर्जी से चर्चा नहीं की। राजनैतिक स्थिति को देखते हुए यह कहना मुश्किल नहीं है कि उपराष्ट्रपति के चुनाव में भी विफक्षी एकता का खंड-खंड होना निश्चित है।