जानिये, कैसे शुरू हुई शंकराचार्य की परंपरा और देश भर में हैं कितने मठ?

इस पद का प्रारंभ आदि शंकराचार्य से माना जाता है। आदि शंकराचार्य हिन्दू दार्शनिक और धर्मगुरू थे। जिन्हें हिन्दुत्व के सबसे महान प्रतिनिधियों में जाना जाता है।

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शंकराचार्य की परम्परा भारत में बहुत पुरानी है। ऐसा कहा जाता है कि सनातन हिंदू धर्म को जिन्दा रखने और मजबूती देने का काम इसी से हुआ। शंकराचार्य हिंदू धर्म में सबसे बड़ा धर्म गुरु का पद होता है, जो बौद्ध धर्म में दलाई लामा एवं ईसाई धर्म में पोप के बराबर है। देश में चार मठों के चार शंकराचार्य होते हैं।

इस पद का प्रारंभ आदि शंकराचार्य से माना जाता है। आदि शंकराचार्य हिन्दू दार्शनिक और धर्मगुरू थे। जिन्हें हिन्दुत्व के सबसे महान प्रतिनिधियों में जाना जाता है। आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म की प्रतिष्ठा के लिए भारत के चार क्षेत्रों में चार मठ स्थापित किए। चारों मठों के प्रमुख को शंकराचार्य कहा गया। इन मठों की स्थापना करके आदि शंकराचार्य ने अपने चार प्रमुख शिष्यों को जिम्मेदारी सौपीं। तब से ही इन चारों मठों में शंकराचार्य पद की परम्परा चली आ रही है। हर मठ का अपना एक विशेष घोषवाक्य भी होता है।

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मठ का अर्थ क्या है?
मठ का मतलब ऐसे संस्थानों से है, जहां इसके गुरू अपने शिष्यों को शिक्षा, उपदेश आदि देने का कार्य करते हैं। ये गुरु प्रायः धर्म गुरु होते हैं। इनके द्वारा दी गई शिक्षा मुख्यतः आध्यात्मिक होती है। एक मठ में इन कार्यों के अलावा सामाजिक सेवा, साहित्य आदि से संबंधित कार्य होते हैं। मठ एक ऐसा शब्द है, जिसके बहुधार्मिक अर्थ हैं। बौद्ध मठों को विहार कहते हैं। ईसाई धर्म में इन्हें मॉनेट्री, प्रायरी, चार्टरहाउस, एब्बे इत्यादि नामों से जाना जाता है।

कौन सन्यासी किस मठ से
सन्यासी देश भर में किसी न किसी मठ से जुड़े होते हैं। वे जब सन्यास लेते हैं, तब उनके दीक्षित नाम के बाद एक विशेषण लगा दिया जाता है, जिससे यह पता चलता है कि यह संन्यासी किस मठ से है। और वह वेद की किस परम्परा का वाहक है। सभी मठ अलग-अलग वेद के प्रचारक होते हैं।

आदि शंकराचार्य कौन थे?
आदि शंकराचार्य एक महान दार्शनिक एवं धर्म प्रवर्तक थे। उन्होंने अद्वैत वेदान्त को ठोस आधार प्रदान किया। चार पीठों की स्थापना करना इनका मुख्य रूप से उल्लेखनीय कार्य था। उन्होंने कई ग्रंथ लिखे। लेकिन उनका दर्शन उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और गीता पर लिखे उनके भाष्यों में मिलता है। आदि शंकराचार्य ने चारों मठों के अलावा पूरे देश में बारह ज्योतिर्लिंगों की भी स्थापना की थी। हिन्दू धार्मिक मान्यता के अनुसार इनको भगवान शंकर का अवतार माना जाता है।

क्या है शंकराचार्य बनने की योग्यता?
देश की चारों पीठों पर शंकराचार्य की नियुक्ति के लिए ये योग्यता जरूरी है। जो त्यागी ब्राम्हण हो, ब्रह्मचारी हो, दंडी सन्यासी हो, संस्कृत, चतुर्वेद, वेदांत और पुराणों का जानकार हो, और जो राजनीतिक नहीं हो। जिन्हें शंकराचार्य बनाया जाता है, उन्हें अखाड़ों के प्रमुखों, आचार्य महामंडलेश्वरों, प्रतिष्ठित संतों की सभा की सहमति के साथ और काशी विद्वत परिषद की स्वीकृति की मुहर भी चाहिए होती है। इसके बाद ही शंकराचार्य की पदवी मिलती है।

कहां मौजूद हैं शंकराचार्य के चार मठ?
ये चारों मठ ईसा से पूर्व आठवीं शताब्दी में स्थापित किए गए थे। ये चारों मठ आज भी चार शंकराचार्यों के नेतृत्व में सनातन परंपरा का प्रचार प्रसार कर रहे हैं। हर शंकराचार्य को अपने जीवन काल में ही सबसे योग्य शिष्य को उत्तराधिकारी बनाना होता है। ये चार मठ देश के चार कोनों में हैं।

उत्तरामण्य मठ, ज्योतिर्मठ जो कि जोशीमठ में स्थित है।
पूर्वामण्य मठ, गोवर्धन मठ जो कि पुरी में स्थित है।
दक्षिणामण्य मठ, श्रृंगेरी मठ जो कि श्रृंगेरी में स्थित है।
पश्चिमामण्य मठ, द्वारिका मठ जो कि द्वारिका में स्थित है।

ज्योतिर्मठ
ज्योतिर्मठ उत्तरांचल के बद्रीनाथ में स्थित है। यहां दीक्षा लेने वाले संन्यासियों के नाम के बाद ‘गिरि’, ‘पर्वत’ एवं ‘सागर’ संप्रदाय नाम विशेषण लगाया जाता है। ज्योतिर्मठ के प्रथम मठाधीश आचार्य तोटक बनाए गए थे।

गोवर्धन मठ
यह भारत के पूर्वी भाग में ओडिशा राज्य के जगन्नाथ पुरी में स्थित है. गोवर्धन मठ के अंतर्गत दीक्षा प्राप्त करने वाले सन्यासियों के नाम के बाद ‘आरण्य’ सम्प्रदाय नाम विशेषण लगाया जाता है। इस मठ के प्रथम मठाधीश आदि शंकराचार्य के पहले शिष्य पद्मपाद हुए।

श्रृंगेरी मठ
यह दक्षिण भआरत में चिकमंगलूर में स्थित है। श्रृंगेरी मठ के अन्तर्गत दीक्षा प्राप्त करने वाले संन्यासियों के नाम के बाद सरस्वती, भारती तथा पुरी संप्रदाय नाम विशेषण लगाया जाता है जिससे उन्हें उक्त संप्रदाय का संन्यासी माना जाता है।

द्वारिका मठ
द्वारिका मठ उत्तरांचल के बद्रीनाथ में स्थित है। द्वारिका मठ को ‘शारदा मठ’ के नाम से भी जाना जाता है। यहां दीक्षा लेने वाले संन्यासियों के नाम के बाद ‘गिरि’, ‘पर्वत’ एवं ‘सागर’ संप्रदाय नाम विशेषण लगाया जाता है। स्थापना आदि शंकराचार्य ने 8वीं शताब्दी में की थी

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