जानें वो पांच मुद्दे जिनके कारण रही शिवसेना आंदोलन से दूर?

मुंबई के आजाद मैदान में हुए किसान मोर्चा में महाराष्ट्र की महाविकास आघाड़ी सरकार ने खुलकर समर्थन किया है। सरकार के घटक दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, कांग्रेस इसमें सम्मिलित भी हुई।

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सरकार में साथ रहनेवाली शिवसेना क्यों आजाद मैदान के आंदोलन से अलग रही। इसको लेकर शिवसेना की ओर से और सरकार के घटक दलों की ओर से कुछ भी नहीं कहा गया। लेकिन आजाद मैदान के मंच से जो दृश्य दिखा उसने कुछ-कुछ स्थिति को स्पष्ट अवश्य कर दिया।

मंच पर खड़े होकर और मंच के नीचे से खड़े होकर जो दृश्य दिखा उसमें पांच ऐसे कारण हैं जिनसे शिवसेना ने अंतिम क्षण में किसान आंदोलन से कन्नी काट ली। सीएम उद्धव ठाकरे और उनके सुपुत्र और पर्यावरण मंत्री आदित्य ठाकरे इस कार्यक्रम से न सिर्फ दूर रहे बल्कि शिवसेना के नेता भी नहीं दिखे। आईये जानते हैं वे पांच बिंदु जिसके कारण आंदोलन से साथ छोड़ गई शिवेसना…

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1) तीस्ता सेतलवाड – मंच पर तीस्ता सेतलवाड की उपस्थिति विचारधाराओं की ही नहीं बल्कि हिंदू जनभावना के लिए बड़ा प्रश्न चिन्ह थीं। 2002 के गुजरात दंगों के बाद तीस्ता की भूमिका संदेहास्पद रही है। उन पर दंगों से जुड़े मामलों में साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ का आरोप लगता रहा है। उन पर गुलबर्गा सोसायटी के दंगा प्रभावितों ने भी पुनर्वास के लिए एकत्रित किये गए चंदे के दुरुपयोग का आरोप लगाया है। उनकी संस्था सबरंग ट्रस्ट और सिटिजन फॉर पीस एंड जस्टिस पर भी चंदा दुरुपयोग का बड़ा आरोप है। आर्थिक अनियमितताओं के आरोपों के कारण उनके कार्यालय में सीबीआई ने जुलाई 2015 में छापा भी मारा था। इसके अलावा उनकी संस्था सबरंग ट्रस्ट का लाइसेंस जून 2016 में विदेशी चंदा नियमन कानून (एफसीआरए) के अंतर्गत रद्द कर दिया गया। सीएए के विरुद्ध शाहीन बाग में हुए प्रदर्शन में भी तीस्ता पर लोगों को भड़काने का आरोप लगता रहा है।

2) हिंदुत्व वोट बैंक खतरे में – स्वातंत्र्यवीर सावरकर का नाम लेकर अवमानना करने का प्रयत्न आजाज मैदान में भी हुआ। शिवसेना पर पहले से ही स्वातंत्र्यवीर सावरकर की अवमानना के मुद्दे पर कार्रवाई न करने का दोष है। ऐसे में आजाद मैदान में हिंदुत्व विरोधी धड़ों की एक साथ उपस्थिति सियासी समीकरण को धराशाई करने के लिए काफी है। कांग्रेस के साथ शिवसेना के गठबंधन को हिंदू समाज पचा नहीं पा रहा है। ऐसे में उसकी उपस्थिति में सावरकर की अवमानना उसे कहीं की नहीं छोड़ती जिसे शिवसेना ने पहले से ही भांप लिया था।

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3) कम्यूनिस्ट पार्टियों द्वारा कार्यक्रम हाइजैक – कम्यूनिस्ट नेताओं और लाल बावटा की टोपियों के कारण भी शिवसेना के लिए सजा मंच छोड़ना अधिक लाभप्रद लगा होगा। मंच पर नरसैय्या आडम जैसे नेताओं की उपस्थिति जो सोलापुर से मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी से तीन बार विधायक रहे हैं और मंच के नीचे लाल टोपियां आंदोलनकारियों की मंशा और आंदोलन की दिशा दोनों दर्शा रही थी।

4) मेधा पाटकर – मेधा पाटकर नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़ी है लेकिन उनकी नजदीकी कम्यूनिस्ट पार्टियों के प्रति जग जाहिर है। बड़वानी आंदोलन में उनका उपवास खत्म करवाने की भाकपा नेता की चिट्ठी इसका उदाहरण भी है।

5) सीधे टकराव से बचना – शिवसेना यद्यपि भाजपा विरोधी के रूप में खड़ी है लेकिन वह छोटे आंदोलनों के मुद्दों को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सीधे दुश्मनी मोल लेना नहीं चाहेगी। इसका एक कारण गुजराती वोट बैंक भी है। जिसे लुभाने के लिए शिवसेना को फापड़ा जलेबी भी अच्छा लगने लगा है।

 

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