पटना। बिहार विधान सभा चुनाव की तारीखों का ऐलान अभी तक नहीं किया गया है। लेकिन कहा जा रहा है कि चुनाव समय पर यानी नवंबर में ही करा लिया जाएगा क्योंकि सुशासन बाबू के नाम से मशहूर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कार्यकाल 29 नवंबर को खत्म हो रहा है। इस बार दो या तीन चरणों में चुनाव कराने का अनुमान भी लगाया जा रहा है। मतदान की तारीखों का ऐलान अभी तक भले ही नहीं हुआ हो, लेकिन बिहार से लेकर दिल्ली तक चुनावी सरगर्मियां तेज हो गई हैं।
सत्ता का रास्ता जाति के दरवाजे से
बिहार में चुनाव में आजतक जातीय समीकरण महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं। यहां एक कहावत बड़ा मशहूर है, बिहार में सत्ता का रास्ता जाति के दरवाजे से होकर जाता है। इसलिए जिसे सत्ता चाहिए, उसे जातीय समीकरण बैठाने आना चाहिए। चाहे जेडीयू सुप्रीमो और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हों या आरजेडी नेता लालू प्रसाद यादव या फिर लोजपा के रामविलास पासवान ,सभी की राजनीति जाति से ही चलती है। इसलिए ये सभी जाति की राजनीति करने में माहिर हैं।
ऐसे समझिए जातीय समीकण का सच
बिहार में जातीय समीकरण का गणित समझने के लिए 2015 का विधान सभा चुनाव का उदाहरण दिया जा सकता है। उस समय नीतीश कुमार ने भारतीय जनता पार्टी से अलग होकर लालू प्रसाद यादव की आरजेडी तथा कांग्रेस से गठबंधन कर लिया था।तब देश में मोदी लगर थी। इसी लहर पर सवार होकर भाजपा केंद्र में सत्ता में आई थी और नरेंद्र मोदी प्रधान मंत्री बने थे। लेकिन बिहार में नीतीश, लालू और कांग्रेस ने ऐसा जातीय समीकरण बिठाया कि मोदी का विजय रथ बिहार में अटक गया और भारतीय जनता पार्टी तीसरे नंबर की पार्टी बनकर रह गई।
आरजेडी की ताकत माई( एमवाई), नीतीश के साथ सवर्ण
लालू यादव की मुख्य ताकत मुस्लिम-यादव मतदाता माने जाते हैं। इसे यहां माई( एमवाई) समीकरण कहा जाता है। दूसरी ओर नीतीश कुमार की ताकज उनकी कुर्मी के मतदाता माने जाते हैं। इसके साथ ही भारतीय जनता पार्टी से गठबंधन के कारण सवर्णों के ज्यादातर वोट भी उनकी ही झोली में जाएंगे। साथ ही अत्यंत पिछड़े वर्ग के साथ ही मुस्लिमों के भी कुछ वोट उन्हें मिल सकते हैं।
क्षेत्रीय पार्टियों की राजनीति भी जाति आधारित
रामविलास पासवान बिहार में दलित नेता हैं। उन्हें अबतक दलितों के वोट मिलते रहे हैं, लेकिन इस बार पूर्व मुख्यमंत्री और हम पार्टी के अध्यक्ष जीतन राम मांझी की एंट्री एनडीए में होने से दलित और महादलितों के वोटों का बंटवारा किस तरह होता है, यह कहना मुश्किल है। इनके आलावा रालोसपा के उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी की राजनीति भी जाति पर ही टिकी हुई है। इस बार एनडीए में भाजपा के साथ जहां नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड है, वहीं लोजपा और हम भी हैं।
दूसरी ओर आरजेडी के साथ उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी जैसे नेता हैं। कुशवाहा जहां कोइरी जाति से आते हैं, वहीं सहनी मल्लाह जाति से ताल्लुक रखते हैं। ये दोनों इस बार महागठबंधन में शामिल हैं। बिहार में ओबीसी के वोटों का प्रतिशत 52 है, जबकि दलित मतदाताओं का प्रतिशत 16 है। सवर्ण मतादाताओं का प्रतिशत 20-21 है।
30 वर्ष से नहीं बना कोई सवर्ण मुख्यमंत्री
बिहार में पिछले करीब 30 वर्षों से कोई सवर्ण मुख्यमंत्री नहीं बन पाया है। 15 वर्षों तक लालू- राबड़ी के बाद नीतीश कुमार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जमे हुए हैं। बीच में कुछ महीनों के लिए उनके ही आशीर्वाद से जीतन राम मांझी ने जरुर मुख्य मंत्री की कुर्सी का मजा चख लिया था, और उन्हें इस कुर्सी का ऐसा चस्का लगा था कि वो छोड़ने को तैयार ही नहीं थे। काफी मशक्कत के बाद नीतीश कुमार ने उन्हें कुर्सी से हटाकर फिर से हासिल करने में सफलता प्राप्त की थी। कहने का अर्थ यह है कि बिहार में पिछड़ी जातियों का पैटर्न हमेशा से यह तय करती आई है कि इस बार किसकी सरकार होगी।
लालू के वोटर्स अब नीतीश के साथ
90 के दशक में ये जातियां लालू के साथ हुआ करती थीं, लेकिन 2005 के बाद नीतीश ने इनमें बंटवारा कर दिया और इन जातियों में से अत्यंत पिछड़ी जातियों को अलग कर उनके विकास की योजनाओं को क्रियान्वित किया। तब से ये जातियां नीतीश के साथ हैं। इनकी आबादी बिहार में 23 प्रतिश है।
नीतीश का पलड़ा भारी
कहना न होगा कि अभी तक के जो हालात हैं उसमें नीतीश भाजपा की वजह से सवर्णों को साधने में सफल होंगे। साथ ही कुर्मी तथा दलितों और महादलितों के वोट भी मिलेंगे। अति पिछड़ी जातियों के साथ ही महिलाओं के वोट उन्हें मिलते रहे हैं। दूसरी ओर यशस्वी को यादवों के साथ ही मुस्लिमों के वोट मिलेंगे। उपेंद्र कुशवाहा की वजह से उन्हें कोइरी समाज और मुकेश सहनी की वजह से केवट समाज का वोट मिल सकता है। लेकिन इनके वोटों में बंटवारा होगा और नीतीश कुमार को भी मिलेंगे। इस हिसाब से उनका पलड़ा भारी दिख रहा है। हालांकि राजनीति में उलट-फेर की संभावना हमेशा बनी रहती है।