शिवसेना विवाद मामले पर सुनवाई के दौरान एकनाथ शिंदे गुट की ओर से पेश वकील हरीश साल्वे ने सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच से कहा कि केवल सुप्रीम कोर्ट आ जाने से सब कुछ नहीं सुलझ सकता है। उन्होंने कहा कि फ्लोर टेस्ट बुलाकर राज्यपाल ने कुछ भी गलत नहीं किया। लोकतंत्र को सदन के पटल पर ही चलने दें। 15 मार्च को सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता अपनी दलीलें रखेंगे।
साल्वे ने कहा कि अब कोर्ट इस्तीफा देने वाले मुख्यमंत्री को वापस पदासीन होने का निर्देश नहीं दे सकती है। उन्होंने कहा कि जब भी कोई इस तरह की स्थिति हो तो राज्यपाल को विश्वास मत के लिए बुलाना चाहिए और इसमें कुछ भी गलत नहीं है। एसआर बोम्मई मामले में भी यही स्थिति रखी गई है। फ्लोर टेस्ट बुलाकर राज्यपाल ने कुछ भी गलत नहीं किया। लोकतंत्र को सदन के पटल पर ही चलने दें।
नाबाम रेबिया मामले में फैसले पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत
हालांकि साल्वे ने यह कहा कि नाबाम रेबिया मामले में फैसले पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। साल्वे ने कहा कि अगर वास्तव में विश्वास मत होता तो क्या होता। क्योंकि इस अदालत ने कभी भी यह निष्कर्ष नहीं निकाला कि सदन में बने रहने वाले किसी व्यक्ति के लिए अयोग्यता की चुनौती का लंबित होना उस व्यक्ति को कानूनी रूप से अयोग्य घोषित नहीं करता है, जब तक कि उसे अंतिम तौर पर अयोग्य घोषित नहीं किया जाता है। जब तक अयोग्यता तय नहीं हो जाती, तब तक सदन की कार्रवाई में भाग लेने और मतदान करने का अधिकार है। इसका मतलब ये नहीं कि सिस्टम और कोर्ट शक्तिहीन हैं। अगर यह पाया जाता है कि अयोग्य ठहराए गए लोगों की एक बड़ी संख्या द्वारा विश्वास मत को प्रभावित किया जाता है, तो कोर्ट द्वारा हस्तक्षेप किया जाना चाहिए। साल्वे ने राज्यपाल पर उठाए गए सवालों का जवाब देते हुए कहा कि राज्यपाल ने क्या गलत किया है। यहां पूर्व मुख्यमंत्री ने इस्तीफा दिया जिसे स्वीकार किया गया।
शिंदे गुट की तरफ से वकील नीरज किशन कौल ने दलीलें देते हुए कहा कि इस मामले में कानूनी तर्क यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट संविधान में दिए गए विधानसभा स्पीकर की शक्तियों को दरकिनार कर विधायकों की अयोग्यता पर फैसला दे सकती है। उन्होंने कहा कि राजनीतिक पार्टी और विधायक दल दोनों आपस में जुड़े भी हैं और स्वतंत्र भी हैं। इसलिए दोनों को अलग भी नहीं किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि असहमति लोकतंत्र का हिस्सा है लेकिन इसके लिए यह तर्क देना भ्रामक है कि शिंदे गुट के विधायक सिर्फ विधायक दल का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं शिवसेना पार्टी का नही।
कौल ने कहा कि चुनाव आयोग, राज्यपाल और विधानसभा स्पीकर इन तीनों संवैधानिक संस्थाओं के क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण उद्धव गुट की मंशा है जो कि सही नहीं है। उन्होंने कहा कि अगर विधानसभा स्पीकर द्वारा विधायकों की अयोग्यता पर फैसले की न्यायिक समीक्षा हो सकती है तो स्पीकर द्वारा अनिर्णय की स्थिति की भी न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। वहीं राज्यपाल सिर्फ अपने सामने सबूत देखेंगे। उन्हें चुनाव आयोग जैसी सख्ती के साथ जांच करने के लिए नहीं कहा जा सकता। जब बड़ी संख्या में विधायक समर्थन वापस ले लेते हैं तो राज्यपाल इसमें क्या करें। उन्होंने कहा कि एसआर बोम्मई मामले में इस अदालत ने कहा है कि मुख्यमंत्री फ्लोर टेस्ट से भाग नहीं सकता है जो कि उनके और उनकी सरकार के भरोसे का संकेत है। इसलिए राज्यपाल का फ्लोर टेस्ट बुलाना गलत नहीं था।
शिवसेना का पार्टी में ही विरोध
शिंदे गुट की तरफ से वकील महेश जेठमलानी ने कहा जबसे महाविकास अघाडी सरकार बनी तबसे शिवसेना के अंदर ही इसका विरोध शुरू हो गया था। यह असंतोष 21 जून को गठबंधन के सहयोगियों के साथ लंबे समय से चले आ रहे वैचारिक मतभेद विभाजन के स्तर पर चला गया।
सुप्रीम कोर्ट ने 22 फरवरी को शिवसेना के चुनाव चिह्न के मामले में निर्वाचन आयोग के आदेश पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था। कोर्ट ने कहा था कि उद्धव ठाकरे गुट अस्थायी नाम और चुनाव चिह्न का इस्तेमाल जारी रख सकता है। कोर्ट ने एकनाथ शिंदे गुट और निर्वाचन आयोग को नोटिस जारी किया था। कोर्ट ने कहा था कि शिंदे गुट अभी ऐसा कुछ नहीं करेगा जिससे उद्धव समर्थक सांसद और विधायक अयोग्य हो जाएं।
चुनाव आयोग का शिंदे गुट के पक्ष में फैसला
निर्वाचन आयोग ने 17 फरवरी को एकनाथ शिंदे गुट को असली शिवसेना करार दिया और धनुष बाण चुनाव चिह्न आवंटित कर दिया। आयोग ने पाया था कि शिवसेना का मौजूदा संविधान अलोकतांत्रिक है। निर्वाचन आयोग ने कहा था कि शिवसेना के मूल संविधान में अलोकतांत्रिक तरीकों को गुपचुप तरीके से वापस लाया गया, जिससे पार्टी निजी जागीर के समान हो गई। इन तरीकों को निर्वाचन आयोग 1999 में नामंजूर कर चुका था। पार्टी की ऐसी संरचना भरोसा जगाने में नाकाम रहती है।