विजय सिंगल
Bhagavad Gita: भगवद् गीता सदाचारी जीवन जीने का वो शाश्वत संदेश है जो कि परम ईश्वर ने कृष्ण के रूप में स्वयं प्रकट किया है। आत्म-खोज के इस महान ग्रन्थ के पहले ही श्लोक का आरंभ’धर्मक्षेत्र’ शब्द से होता है। संसार एक ऐसा युद्धक्षेत्र है, जिसमें मनुष्य के अंतःकरण में हर क्षण अच्छाई और बुराई की परस्पर विरोधी शक्तियों के बीच संघर्ष होता रहता है। भगवद् गीता मनुष्य को अंधकार की परछाईयों पर निरंतर चौकसी रखना सिखाती है।
अर्जुन को संबोधित अपने प्रवचन के माध्यम से कृष्ण ने समस्त मानव जाति को धर्म का मार्ग दिखाया है। उन्होंने न केवल यह बताया कि धर्म क्या है, बल्कि यह भी समझाया कि धर्म क्या नहीं है। कृष्ण ने मानव जाति को आश्वस्त किया है कि जब भी धर्म में गिरावट होती है और अधर्म बढ़ने लगता है, तो सदाचारियों की रक्षा करने, दुष्टों का विनाश करने एवं धर्म की पुनर्स्थापना करने के लिए वे स्वयं इस संसार में प्रकट होते हैं। धर्म-अधर्म और अच्छाई-बुराई के बीच इस संघर्ष में ईश्वर सदैव अच्छाई के पक्ष में खड़े रहते हैं।
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व्यवहार के स्वरूप निर्धारित
धर्म किसी व्यक्ति की मूलभूत प्रकृति है जो उसके व्यवहार के स्वरूप को निर्धारित करती है। जब तक व्यक्ति अपनी प्रकृति के प्रति ईमानदार रहता है तथा उसका व्यवहार उसकी प्रकृति अनुसार रहता है तब तक वह सही मार्ग पर रहता है। अपने अंतर्निहित स्वभाव से विचलित होना अधर्म है। समस्त प्राणियों द्वारा व्यवहार में अपनी-अपनी प्रकृति के पालन से संसार में सामंजस्य बना रहता है। धर्म का पालन न करने से असामंजस्य की स्थिति पैदा हो जाती है। संसार को धर्म के मार्ग पर चलने देने से ही मानव जीवन में एक सामंजस्यपूर्ण संतुलन बना रह सकता है।
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धर्म और संप्रदाय (या पंथ) समानार्थी नहीं
संस्कृत शब्द ‘धर्म’ का अनुवाद अंग्रेजी में अक्सर ‘संप्रदाय’ या ‘पंथ’ के रूप में किया जाता है। लेकिन इस शब्द की यह व्याख्या भ्रामक है क्योंकि धर्म और संप्रदाय (या पंथ) समानार्थी नहीं हैं। जहां एक ओर संप्रदाय अथवा पंथ आस्थाओं के एक समूह या विशिष्ट पूजा पद्धतियों की ओर इंगित करता है, वहीं धर्म वस्तुओं एवं प्राणियों की आंतरिक विशेषताओं को बताता है। जहां एक ओर संप्रदाय अथवा पंथ किसी समुदाय विशेष का होता है, वहीं धर्म के सिद्धांत समस्त मानवता से संबंध रखते हैं। धर्म कोई ऐसी चीज नहीं है जो जीवन के किसी एक आयाम तक सीमित हो। बल्कि यह तो अस्तित्व के प्रत्येक पहलू के सामंजस्यपूर्ण निर्वाह से संबंध रखता है। यह मानव जीवन को समग्रता से देखता है। धर्म तो वह व्यवस्था है जो संसार में स्थिरता एवं समरसता बनाए रखती है।
वास्तविक उद्देश्य प्रकट
भगवद् गीता में जीवन के सही अर्थ एवं वास्तविक उद्देश्य को प्रकट किया गया है। इसमें प्रत्येक इंसान को उचित मार्ग दिखाया गया है। मनुष्य को समय-समय पर कई दुविधाओं का सामना करना पड़ता है, जोकि सांकेतिक रूप से अर्जुन की निराशा के माध्यम से व्यक्त किया गया है। कठिन विकल्पों में से चुनाव न कर पाने के कारण अर्जुन भ्रमित, और दुख से त्रस्त हो जाता है। ऐसी परिस्थितियों में क्या सही था और क्या गलत, यह तय कर पाने में असमर्थ, उसने उस दिव्य पुरुष, जो उसके सारथी के रूप में उसके साथ थे, से मार्गदर्शन का निवेदन किया। उसी प्रकार, किसी भी कठिन परिस्थिति में व्यक्ति अपने भीतर झाँक कर देख सकता है, और अपने हृदय में स्थित दिव्य चेतना से प्रकाश प्राप्त कर सकता है। तब यह दिव्य चेतना व्यक्ति के संपूर्ण अस्तित्व को ज्ञान से भर देती है। परिणामस्वरूप, व्यक्ति समग्र एवं व्यापक जागरूकता नए सिरे से प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार प्राप्त सचेतनता मनुष्य को धर्म के मार्ग पर चलने तथा संतोष व तृप्ति का जीवन ईश्वर की आराधना व्यतीत करने के योग्य बनाती है।
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उद्देश्य की विस्तृत व्याख्या
भगवद् गीता मनुष्य की आंतरिक यात्रा की पुस्तक है। इसमें जीवन के उद्देश्य की विस्तृत व्याख्या है। बताया गया है कि प्रत्येक मानव की मूलभूत प्रकृति आत्मा है। व्यक्तिगत आत्मा अर्थात् जीवात्मा व्यक्ति के मन और शरीर से भिन्न है। जीवात्मा परमात्मा का एक अभिन्न अंग है। आत्मा का सच्चा ज्ञान पाकर मनुष्य स्वयं को भौतिकसंसार से जुड़े कष्टों से मुक्त कर सकता है। तब वह अपने आध्यात्मिक स्वरूप में पुनः प्रतिष्ठित हो जाता है।
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कर्तव्य-कर्म से पीछे नहीं हटना
भगवद् गीता में निःस्वार्थ भाव से कर्म करने पर बल दिया गया है। इसमें यह समझाया गया है कि मनुष्य को कभी भी अपने कर्तव्य-कर्म से पीछे नहीं हटना चाहिए। व्यक्ति को अपने स्वभाव अर्थात् गुणों के अनुरूप ही काम करना चाहिए और परिणामों की चिन्ता किए बगैर अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना चाहिए। कर्तापन की भावना से मुक्त होकर कर्म करते हुए और त्याग की सच्ची भावना से कर्मों को ईश्वर को अर्पित करके मनुष्य दिन-प्रतिदिन की चिंताओं और निराशाओं पर नियंत्रण पा सकता है।
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ईश्वर की आराधना
आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करने का एक अन्य मार्ग है भक्ति अर्थात् ईश्वर की आराधना। जब भगवान के साथ प्रेम और विश्वास का संबंध स्थापित हो जाता है, तब व्यक्ति उसके और उसकी रची हुई सृष्टि के साथ एकात्मता का अनुभव करता है। एक सच्चे भक्त का जीवन अपने आप में ही एक उत्सव बन जाता है। सच्चा धर्म अहं-केन्द्रित अर्थात् भय, लालच और वासना आदि से अभिशापित नहीं; अपितु विनय, सत्यनिष्ठा, धैर्य, नैतिकता और अहिंसा आदि से सुशोभित जीवन जीने का आवाह्न करता है। जबकि एक अहं-केन्द्रित जीवन निरन्तर इच्छाओं और अत्यन्त कष्टों से भरा हुआ होता है, आध्यात्मिक जीवन तृप्ति का जीवन है। जब कोई व्यक्ति आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तो वह अपने दोषों से लड़ने के लिए आंतरिक शक्ति प्राप्त कर लेता है।
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: |
तत्र श्रीर्विजयो भूतिध्रुवा नीतिर्मतिर्मम || 78||
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अन्त में, (श्लोक 18.78 में) यह घोषणा की गई है कि जहाँ भी श्रीकृष्ण होंगे और जहाँ भी अर्जुन होगा; वहाँ निश्चय ही सौभाग्य, विजय, कल्याण तथा नैतिकता होगी। इस प्रकार, परमेश्वर की शिक्षाओं का ईमानदारी से पालन करके व्यक्ति न केवल आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त कर सकता है, बल्कि अपार सांसारिक वैभव को भी प्राप्त कर सकता है; क्योंकि आध्यात्मिक जीवन और सांसारिक अस्तित्व में कोई अंतर्विरोध नहीं है।निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि धर्म का लक्ष्य मानव की पूर्णता है। यह व्यक्ति को अपनी मूल प्रकृति को समझने तथा संभावनाओं से परिपूर्ण अपनी नियति को प्राप्त करने में सहायता करता है। यह व्यक्ति के जीवन को कष्टों के दुष्चक्र से निकाल कर सुखद एवं आनन्दमय बनाने में सहायता करता है। व्यक्तिगत जीवन में सुधार से समाज में भी बेहतरी आती है।
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