बिहार में चुनावी दंगल का कलाइमेक्स शुरू हो चुका है और राजनैतिक विश्लेषकों के साथ ही आम लोगों की भी इसे लेकर उत्सुकता बढ़ती जा रही है। चुनाव भले ही बिहार विधान सभा का हो रहा है,लेकिन चर्चा पूरे देश में है। जिस शिवसेना को बिहार और बिहारियों से कथित रुप से एलर्जी थी, वो भी अब बिहार के चुनाव में अपना दांव आजमाने के लिए उतावली है। इस चुनाव में कई युवा चेहरे बिहार के क्षत्रप बनने की दिशा में सक्रिय हैं और उनपर ही पार्टी का पूरा दारोमदार है। ऐसे युवा चेहरों में आरजेडी नेता और महागठबंधन का नेतृत्व कर रहे तेजस्वी यादव, लोक जनशक्ति पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग पासवान, सन ऑफ मल्लाह विकासशील इंसान पार्टी के मुकेश सहनी, कम्यूनिस्ट पार्टी के कन्हैया कुमार आदि शामिल हैं। इसके साथ ये भी बात गौर करनेवाली है कि बिहार में इस बार करीब चार करोड़ युवा मतदाता कुल 243 सीटों पर उतरे उम्मीदवारों की किस्मत का फैसला करेंगे।
तेजस्वी यादव
तेजस्वी यादव मात्र 30 साल के हैं और वे जेडीयू के साथ महागठबंधन की सरकार में 20 महीने उप मुख्यमंत्री रह चुके हैं। बिहार में 15 वर्षों तक एकछत्र राज करनेवाले लालू-राबड़ी यादव के छोटे पुत्र तेजस्वी राजनीति में लंबी रेस के घोड़ा माने जाते हैं। एक तरह से लालू यादव की सियायत की विरासत संभालने की जिम्मेदारी उनके ही कंधों पर है। मात्र 9वीं तक पढ़ाई करनेवाले तेजस्वी की वास्तव में इस चुनाव में परीक्षा होने जा रही है। क्योंकि चारा घोटाले में उनके पिता लालू यादव जहां रांची जेल में हैं, वहीं उनकी माता राबड़ी देवी भी अब राजनीति में सक्रिय नहीं हैं। इसके साथ ही उनके भाई तेज प्रताप ने इस बार अपने भाई का नेतृत्व स्वीकार कर लिया है और वे इस चुनाव में ज्यादा सक्रिय नहीं हैं। उन्होंने हसनपुर सीट से पर्चा दाखिल किया है और इस बार उनका पूरा ध्यान अपनी सीट तक ही सीमित रहने की उम्मीद है।
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यादव समाज का वोट बैंक बड़ी ताकत
तेजस्वी यादव की सबसे बड़ी ताकत विरासत में मिला यादव जाति का वोट बैंक है। लालू यादव भले ही राजनीति में अब कम सक्रिय हो गए हैं लेकिन उनकी पार्टी के वोट बैंक में ज्यादा बदलाव नहीं आया है। यादव समुदाय का वोट इस चुनाव में भी तेजस्वी की पार्टी आरजेडी को मिलने की पूरी संभावना है। हां, एमआईएम के ओवैसी के मैदान में उतरने से माई फॉर्मूले के तहत जो यादव और मुसलमानों के वोट बैंक आरजेडी के पास थे, उसमें सेंध लगने से इनकार नहीं किया जा सकता। इसके आलावा एनडीए सरकार के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी भी काम करेगी और इसका फायदा अन्य पार्टियों के साथ तेजस्वी यादव के नेतृत्व में चुनावी जंग में उतरे महागठबंधन को भी हो सकता है। देखा जाए तो यह चुनाव तेजस्वी यादव के लिए एक परीक्षा भी है और मौका भी। अगर वो इस परीक्षा को मौका में बदलने में कामयाब होते हैं तो निश्तित रुप से बिहार में तेजस्वी युग का शुभारंभ हो सकता है।
चिराग पासवान
बिहार चुनाव में चर्चित चेहरों में लोक जनशक्ति पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और स्वर्गीय रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान का नाम भी शामिल है। चिराग इस चुनाव में अपनी पहचान बनाने और पिता से मिली विरासत को आगे बढ़ाने के लिए काफी दिमाग दौड़ा रहे हैं। वैसे तो उनके कई प्सल प्वाइंट हैं लेकिन सबसे बड़ी ताकत उनका बिहार के दिग्गज दलति नेता रामविलास पासवान का पुत्र होना ही है। इसके साथ ही एक पढ़े-लिखे और महत्वाकांक्षी युवक के रुप में उनकी पहचान है। जिस तरह से इस चुनाव में वो अपनी सक्रियता दिखा रहे हैं, उससे उनके मेहनती होने के साथ ही सियासत की सूझबूझ का भी पता चलता है। उन्होंने जेडीयू सुप्रीमो और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ इस बार पंगा ले लिया है और बीजपी के लिए नरम रुख रखकर अपने भविष्य की सियासित की राह आसान करना चाह रहे हैं। क्योंकि उनको मालूम है कि बिहार की राजनीति में अगर लंबी रेस क घोड़ा बनना है तो सिर्फ दलित चेहरा बनकर संभव नहीं है। उनकी नजर बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर है और उन्हें पता है कि उनकी इस महत्वकांक्षा को पूरा होने में वक्त लगेगा। इसलिए वे दलितों में अपनी जड़ें मजबूत करने के साथ ही अल्पसंख्यकों और सवर्णों में भी अपनी पैठ बनाना चाहते हैं।
मिल सकता है सहानुभूति लहर का लाभ
इस चुनाव में उन्हें जहां अपने पिता के निधन की वजह से उपजी सहानुभूति लहर का फायदा मिल सकता है, वहीं उन्होंने नितिश कुमार के खिलाफ जो अभियान चला रखा है, उसकी वजह से उन्हें सीएम से नाराज मतदाताओं का भी समर्थन मिल सकता है। भले ही राजनैतिक जानकार यह मान रहे हैं कि चिराग ने एनडीए से अलग होकर अपने पैर में कुल्हाड़ी मार ली है, लेकिन वास्तव में इसके बिना चिराग और उनकी पार्टी को पहचान मिलना मुश्किल है। इसलिए उन्होंने यह दांव जान-बूझकर खेला है।
मुकेश सहनी
बॉलीवुड के सेट डिजायनर से अपना करियर शुरू करने वाले मुकेश सहनी को अचानक राजनीति में दिलचस्पी हो गई। वे बिहार अपने गृह प्रदेश लौट गए और खुद को सन ऑफ मल्लाह घोषित करते हुए इस समाज के वोट बैंक पर अपना एकाधिकार घोषित कर दिया। उनका वोट बैंक का दावा बीजेपी को लुभाने लगा और उसने सहनी को अपने साथ जोड़ लिया। इसके बाद वो बीजेपी के लिए काम करने लगे। लेकिन उनकी सच्चाई जल्द ही सामने आ गई और उन्हें वहां से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। उसके बाद उन्होंने अपनी अलग पार्टी विकासशील इंसान पार्टी बनाकर अपने राजनैतिक करियर को धार देने की कोशश की, लेकिन उन्हें बहुत जल्द लगने लगा कि वो अपने दम पर राजनीति की वैतरणी नदी को पार नहीं कर पाएंगे। उन्होंने महागठबंधन का दामन थाम लिया, लेकिन यहां से भी उन्हें सियासत चमकाने में कोई मदद मिलती नजर नहीं आई और वे इससे अलग हो गए। इस चुनाव में वे फिर बीजेपी के साथ आ गए हैं और उन्हें नौ सीटें दी गई हैं। अब वे गदगद हैं और अपनी घर वापसी की बात कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा केद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को धन्यवाद देते थक नहीं रहे हैं। इस तरह देखा जाए तो अभी तक उन्होंने राजनीति में कोई बड़ा काम नहीं किया है और उनके लिए यह चुनाव एक बड़े मौके की तरह है।
कन्हैया कुमार
कम्यनूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के टिकट पर बेगूसराय संसदीय सीट से 2019 के आम चुनाव में बीजेपी उम्मीदवार गिरिराज सिंह से शिकस्त खा चुके कन्हैया कुमार बिहार विधानसभा चुनाव में कहीं नजर नहीं आ रहे हैं। जवाहर लाल यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्रसंघ नेता कन्हैया कुमार सीएए, एनपीआर और एनसीआर के विरोध में बिहार दौरे पर निकले थे। इस दरम्यान उन्हें लोगों के काफी विरोध का सामना करना पड़ा था। एक-दो जगहों पर तो वे बुरी तरह लोगों के बीच फंस गए और पुलिस को हस्तक्षेप करनी पड़ गई। पिछले दिनों उन्होंने एक पत्रिका में लिखा था, “वे भविष्य में भारतीय राजनीति में शक्तिशाली पहचान बनाने की कोशिश कर रहे हैं।” लेकिन वे बिहार चुनाव में कहीं नहीं दिख रहे हैं। भूमिहार समाज से आनेवाले कन्हैया कुमार के बारे में फिलहाल तो इतना ही कहा जा सकता है कि वो चर्चित चेहरा होते ही भी बिहार की राजनीति में फिट नहीं बैठ रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि वो जाति की राजनीति नहीं कर रहे हैं।
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