– अंकित तिवारी
Bihar Elections: बिहार (Bihar) की राजनीति एक बार फिर निर्णायक मोड़ पर आ खड़ी हुई है। 16 अप्रैल 2025 की स्थिति में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) का राजनीतिक भविष्य जितना अनिश्चित दिख रहा है, उतना ही धुंधला उनकी पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) Janata Dal (United) यानी जदयू का भी है। अपने राजनीतिक करियर के अंतिम दौर में पहुंचे नीतीश कुमार के सामने सबसे बड़ी चुनौती अब यह है कि पार्टी को अपने बाद किसके हाथों सौंपा जाए।
जहां भाजपा राज्य में अपनी स्थिति लगातार मज़बूत करती जा रही है और विधानसभा चुनावों की तैयारियों में जुट चुकी है, वहीं जदयू को नेतृत्व के सवाल ने जकड़ लिया है। सवाल सीधा है-“नीतीश के बाद कौन?”
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नीतीश कुमार और जदयू: एक साथ बुनी गई विरासत
जदयू की पहचान नीतीश कुमार के नाम से जुड़ी हुई है। उन्होंने पार्टी को न सिर्फ खड़ा किया, बल्कि कई बार बिखरने से बचाया भी। लालू प्रसाद यादव की पारिवारिक राजनीति की आलोचना करते हुए नितीश ने हमेशा “सुशासन” और “विकास” की राजनीति की बात की। वर्षों तक उन्होंने पार्टी के भीतर किसी भी संभावित उत्तराधिकारी को उभरने नहीं दिया। प्रशांत किशोर और आरसीपी सिंह इसके सबसे ताजा उदाहरण हैं। लेकिन अब जब नीतीश कुमार अपने राजनीतिक जीवन की अंतिम अवस्था में हैं, तो जदयू के भविष्य पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं।
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क्या निशांत कुमार बन सकते हैं अगला चेहरा?
नीतीश कुमार ने हमेशा वंशवादी राजनीति से दूरी बनाए रखी। उन्होंने अपने बेटे निशांत को राजनीति से दूर रखा और बार-बार कहा कि राजनीति उनकी पसंद नहीं है। लेकिन अब बदलते राजनीतिक हालातों में निशांत कुमार का राजनीति में प्रवेश चर्चा का केंद्र बन गया है।
2023 और 2024 में उन्हें कुछ पार्टी बैठकों और सार्वजनिक कार्यक्रमों में देखा गया। लेकिन 2025 में यह चर्चा और तेज हो गई है, जब हाल ही में उन्होंने पटना में एक जदयू युवा सम्मेलन में भाषण दिया, जहां उन्होंने अपने पिता की नीतियों की खुलकर सराहना की और “पार्टी के विचारों को आगे ले जाने” की बात की। इससे कयास लगाए जा रहे हैं कि पार्टी उन्हें उत्तराधिकारी के तौर पर तैयार कर रही है। हालांकि, निशांत के पास न तो राजनीतिक अनुभव है और न ही जनाधार, लेकिन जदयू के लिए यह एक “बिना विकल्प के विकल्प” वाली स्थिति बन गई है।
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पार्टी के अंदरूनी हालात: विद्रोह या समर्थन?
अगर निशांत को उत्तराधिकारी घोषित किया जाता है, तो पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं का असहमत होना तय माना जा रहा है। ललन सिंह, अशोक चौधरी, और संजय झा जैसे नेता खुद को नीतीश के उत्तराधिकारी के रूप में देखते हैं, लेकिन उनकी जनस्वीकृति सीमित है। यदि इन नेताओं को दरकिनार कर निशांत को बढ़ाया गया, तो पार्टी के भीतर टूट की आशंका बलवती हो जाएगी। वर्तमान में जदयू के कई विधायक और पदाधिकारी बीजेपी के साथ खड़े होने के संकेत दे चुके हैं। यदि नेतृत्व का संकट लंबा खिंचता है, तो जदयू के लिए बीजेपी में विलय या बड़े पैमाने पर पलायन जैसे खतरे मंडरा रहे हैं।
भाजपा की भूमिका: दबाव और अवसर
बीजेपी बिहार में अपनी स्थिति को और मज़बूत करने की फिराक में है। अगर जदयू में नेतृत्व को लेकर भ्रम बना रहता है, तो बीजेपी इस स्थिति का फायदा उठा सकती है। पार्टी के भीतर कुछ गुट पहले से ही बीजेपी से नजदीकी बनाए हुए हैं, जो मौके की तलाश में हैं। ऐसे में विलय की संभावना को नकारा नहीं जा सकता।
नेतृत्व परिवर्तन का यह सही वक्त?
राजनीति में टाइमिंग ही सब कुछ होती है। अभी नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं, और उनकी स्थिति पार्टी में मजबूत है। अगर वह इस समय किसी को उत्तराधिकारी घोषित करते हैं, तो विद्रोह की संभावनाओं को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। लेकिन अगर यह फैसला चुनाव के बाद या किसी हार के बाद लिया गया, तो पार्टी में बिखराव तय है। समाजवादी पार्टी के उदाहरण से यह बात स्पष्ट होती है कि जब अखिलेश यादव को सत्ता में रहते हुए पार्टी की कमान मिली, तो उन्होंने अपना कद स्थापित कर लिया। वहीं कांग्रेस में राहुल गांधी के नेतृत्व परिवर्तन ने पार्टी को एकजुट नहीं किया।
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फैसला अब नीतीश पर
जदयू का भविष्य अब नीतीश कुमार के हाथ में है। यदि उन्होंने समय रहते कोई स्पष्ट उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया, तो पार्टी के सामने टूट, विलय और नेतृत्व संघर्ष के रास्ते खुल जाएंगे। निशांत कुमार का राजनीति में प्रवेश पार्टी के लिए एक “व्यावहारिक लेकिन जटिल” समाधान हो सकता है। अगर जदयू को बिहार की राजनीति में प्रासंगिक बने रहना है, तो एक स्थायी, विश्वसनीय और सर्वमान्य नेतृत्व की आवश्यकता है, जिसका फैसला अब और टालना खतरनाक होगा।
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