शिवसेना में पतझड़ का मौसम है। यह प्रकृति की एक सामान्य प्रक्रिया है, वृक्षों में नई कोपलें लगने के पश्चात उनके झड़ने का भी एक काल निश्चित होता है। परंतु, राजनीतिक दल या संगठनों के लिए यह उतनी शीघ्रता से नहीं आता, जितनी शीघ्रता से व्यक्ति के निजी जीवन या वृक्षों में आता है। अपने समग्र विस्तार के बाद शिवसेना धड़ों में बंटकर विकास की अगली सीढ़ी तय कर रही है। जिसमें दोनों ही धड़ों के आदर्श पुरुष बालासाहेब ठाकरे ही हैं। इन धड़ों के बीच मची रार के बीच बालासाहेब ठाकरे के नाम को लेकर भी संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हुई है। इसमें एक धड़ा जिसके मुख्य नेतृत्वकर्ता स्वयं बालासाहेब के पुत्र उद्धव ठाकरे हैं, उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि, दूसरा धड़ा उनके पिता बालासाहेब ठाकरे के नाम का उपयोग न करे। ऐसे में यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि, बालासाहेब ठाकरे जैसे व्यक्तित्व को एक पिता की सीमित सीमा में बांधना कितना उचित है?
बालासाहेब ठाकरे पिता भी थे, उनके जीवन का अंतिम चरण इसकी स्पष्टोक्ति थी। जिसमें उन्होंने अपनी राजनीतिक सत्ता को अपने छोटे पुत्र को सौंप दिया। यह उस काल में एक वर्ग को कुछ अटपटा लगा था क्योंकि, शिवसेनाप्रमुख ने जो राजनीतिक पृष्ठभूमि खड़ी की थी, उसमें उन्होंने शिष्यों का भी रोपण किया था, जिसमें से एक थे उनके पुत्र और दूसरा उनकी आंखों का तारा भतीजा। समयांतर के साथ इन शिष्यों का भी विकास हुआ, उनकी अपनी आशाएं अपेक्षाएं पुलकित होने लगीं और शिष्यों के बीच मतभेद उपजे। जिसकी परिणति यह हुई कि, पुत्र जीत गया और भतीजे ने पीछे हटते हुए शिवसेना से अलग एक सेना की स्थापना कर ली। शिवसेना से अलग बनी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने बालासाहेब ठाकरे के आदेशों के अनुरूप उनके नाम के उपयोग से अपने को दूर कर लिया।
एक और टूट
परंतु, बालासाहेब के दो प्रियजनों में हुए मतभेद और एक नई सेना के जन्म ने, देखा जाए तो शिवसेना के विकास को नई भूमि प्रदान की। यह सब बालासाहेब की आंखों के सामने हुआ। उनके आदेशों के अनुरूप उनके नाम का उपयोग नई सेना ने नहीं किया। परंतु, शिवसेना में हुआ वर्तमान बंटवारा उससे अलग है। यहां एक ओर फिर वही पुत्र और पौत्र खड़ा है, तो दूसरी ओर बालासाहेब के वह शिवसैनिक हैं, जिन्होंने वह सब किया जिसका आदेश शिवसेनाप्रमुख ने दिया। इस आदेशपूर्ति के लिए आपराधिक प्रकरण पंजीकृत हुए, कितने ही परिवारों ने विषम परिस्थिति का सामना किया। अब जब वृक्ष फलों से पल्लवित हुआ तो नई व्यथा ने शिवसेना रूपी वृक्ष को घेर लिया। शिवसेनाप्रमुख के विचार भी पत्तों की भांति एक-एक करके झड़ने लगे थे। जिनको लेकर एक रोष जन्म लेने लगा, जिसका रूपांतरण हुआ उद्धव ठाकरे से अलग शिवसेना के रूप में। इस नए धड़े का नेतृत्वकर्ता बालासाहेब ठाकरे का वही शिवसैनिक है, जिसने वह सबकुछ किया जिसका साहेब (बालासाहेब) ने आदेश दिया। इस आदेश पूर्ति में यदि उसका भविष्य खप जाता तो, उसके नाम और परिवार की गति भी वही होती, जो सत्तर और अस्सी के दशक में शिवसैनिकों की हुई, जिन्होंने, शिवसेना के राजनीतिक पंख पसारने में अपना सबकुछ लगा दिया। परंतु, इन शिवसैनिकों ने उस काल को भी झेला, पक्ष को नए पंख दिये और अपने राजनीतिक जीवन को नया क्षितिज भी दिया। समय परिवर्तित हुआ तो परिस्थितियां बदलीं लेकिन, इन शिवसैनिकों को जो जनमघुट्टी साहेब ने पिलाई थी, कट्टर शिवसैनिक और हिंदुत्व की वह अब भी मन में प्रफुल्लित है। विचार, निर्णय उसी के अधीन होते हैं। जब सत्ता के लिए इन विचारों का महाविकास करने चले तो मूल विचार दबने लगे और धड़े बंट गए।
मूल शिवसेना किसकी?
धड़े बंटने के बाद मूल शिवसेना किसकी? इसकी चर्चा हो रही है। नए धड़े के साथ ठाकरे परिवार नहीं है लेकिन, सत्ता साध्य करने के सभी समीकरण हैं। इसी प्रकार ठाकरे परिवार के पास ‘नाम ही काफी है’ वाली परिस्थिति है। शिवसेना के दो धड़ों के नेतृत्वकर्ता में एक ओर पक्षप्रमुख उद्धव ठाकरे हैं तो दूसरी ओर एकनाथ शिंदे हैं। दोनों ही धड़ों के आदर्श बालासाहेब ठाकरे हैं। दोनों ही अपने को शिवसेना कह रहे हैं। ऐसे में ठाकरे परिवार ने कहना शुरू कर दिया है कि, यदि धड़े अलग बना लिये तो अपनी पार्टी अलग कर लो और अपने पिता के नाम का उपयोग करो। अर्थात शिवसेनाप्रमुख बालासाहेब ठाकरे के नाम का उपयोग एकनाथ शिंदे का धड़ा न करे, यह सार्वजनिक रूप से कहा जा रहा है।
बालासाहेब मात्र व्यक्ति नहीं, विचार है
शिवसेनाप्रमुख का जीवन स्वतंत्र महाराष्ट्र की लड़ाई के अग्रणी प्रबोधनकार ठाकरे की विरासत था। वे स्वत: उसमें सहभागी थे, इसलिए बालासाहेब ठाकरे एक व्यक्तित्व नहीं बल्कि एक विचार बन गए। वे आदर्श हैं भारत भूमि के सनातन जनसमुदाय के लिए। अब यदि ऐसे वंदनीय आदर्श को मात्र पिता की डोरी में बांधने का प्रयत्न हो रहा है तो यह भी उत्तर देना होगा कि, शिवसेना सदा से ही जिस छत्रपति शिवाजी महाराज का नाम लेकर हिंदुत्व की जन्मघुट्टी पिलाती रही है, उसने यह अधिकार किससे लिया? यदि ऐसा है तो, कल महामानव डॉ.बाबासाहेब आंबेडकर का परिवार कह सकता है कि, उनके पूर्वज के नाम का उपयोग अन्य लोग न करें। ऐसे बहुत सारे राष्ट्र पुरुष हैं, जिनके परिजन कह सकते हैं कि, उनके पूर्वज जो, स्वतंत्रता सेनानी थे या क्रांतिकारी थे, उनके नामों का उपयोग राष्ट्र के अन्य जन न करें।
मात्र ‘पिता’ नाम के संबंध की डोर से बांधना कितना उचित है?
क्रांतिशिरोमणि स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने अपने परिवार के लिए मार्सेलिस के अथाह सागर में छलांग और दोहरे कालापानी की सजा नहीं भुगती थी और न ही ३५० से अधिक रजवाड़ों को घुटने टेकने को मजबूर करके भारत गणराज्य को एकीकृत करानेवाले सरदार वल्लभ भाई पटेल ने अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए ऐसा किया था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद सेना युद्ध परिवार के लिए नहीं लड़े और न ही यौवनकाल में वीरगति को गले लगानेवाले भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव और चंद्रशेखर आजाद ने ही अपने हितों के लिए ऐसा किया। इन राष्ट्र पुरुषों के समक्ष भले ही बालासाहेब ठाकरे की प्रतिमा छोटी है, परंतु वे एक आदर्श हैं, विचार हैं, जिसका लोग अनुसरण करते हैं। ऐसे में शिवसेना को भले ही बालासाहेब ने पुत्र की डोर से बांध दिया हो लेकिन, बालासाहेब के विचारों को मात्र ‘पिता’ नाम के संबंध की डोर से बांधना कितना सार्थक है, इसका विचार परिवार को अवश्य करना चाहिए।
अवलोकन अवश्य
बालासाहेब ठाकरे ने महाराष्ट्र को एक विचार दिया, हिंदुत्व को प्रखरता से प्रस्तुत किया। इसके उत्तर में राज्य ने चौक, सड़क समेत विभिन्न ऐतिहासिक धरोहरों को उनका नाम दिया। जो आगामी पीढ़ियों का पथ प्रदर्शित करता रहेगा। ऐसी परिस्थिति में ठाकरे परिवार द्वारा गूंथी जा रही ‘पिता’ की डोर यदि मान्य कर लेते हैं तो, उन आगामी पीढ़ियों को यही पहचान देनी होगी कि, बालासाहेब ठाकरे मात्र एक विशेष परिवार के पिता, दादा या परदादा हैं। क्या ठाकरे परिवार शिवसेनाप्रमुख बालासाहेब ठाकरे की यही पहचान सीमित रखना चाहता है, इसका आत्मावलोकन उन्हीं को करना होगा।