हिजाबः औरत को ‘गुलाम’ बनाए रखने की साजिश

मुगल-ए-आजम फिल्म के एक गीत के बोल हैं ‘पर्दा नहीं जब कोई खुदा से/बन्दों से पर्दा करना क्या...। इस गीत में पर्दानशीं और पर्देदारी को सभ्य समाज के लिए अनावश्यक बताया गया है।

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लोकप्रिय शायर असरारुल हक़ मजाज़ की यह पंक्तियां अक्सर मेरी बहनों ने आंदोलनों के दौरान खूब इस्तेमाल की हैं-‘तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खूब है लेकिन/ तू इस आंचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।’ इसी शेर की शुरुआती पंक्ति कुछ इस तरह है जो कम ही सुनने को मिलती है-‘हिजाब-ए-फितनापरवर अब उठा लेती तो अच्छा था। खुद अपने हुस्न को परदा बना लेती तो अच्छा था।’

हिजाब औरत को गुलाम बनाने की साजिश है, जिस पर कभी खुलकर बात नहीं हुई। बात अगर परचम लहराने की है तो फिर ओढ़नी ही क्यों, बुर्का का भी परचम लहराया जा सकता है। बुर्का लहराया जाएगा तो स्त्रियां अधिक स्वतंत्र होंगी। औरत को गुलाम बनाए रखने की साजिश है हिजाब। शर्म आती है, जब हिजाब के लिए महिलाएं आंदोलन करती नजर आती हैं। रूढ़िवादी सोच का अंत होना ही चाहिए। जैसे- सती प्रथा, पर्दा प्रथा जैसी कुप्रथाओं ने दम तोड़ दिया है, वैसे ही हमारी मुस्लिम बहनें भी अपने अधिकार पाएं और बुर्के से आजादी।

यहां ‘दर्दजा’ उपन्यास का जिक्र जरूरी हो जाता है, जो ‘सुन्नत’ के लिए संघर्ष करती महिलाओं की कहानी है। औरतों पर इतने जुल्म हुए हैं कि आज उसे विधि और विधान प्रक्रिया से मिली आजादी भी समझ नहीं आती। दर्द सहते हुए दर्द की आदत-सी हो जाती है। उपन्यास की नायिका कहती है ‘एक तरफ मेरे संस्कार थे, परवरिश थी, दूसरी तरफ मेरे सवाल, मेरे संशय.. बीच में मैं परेशान, भ्रमित। कहां जाऊं, किससे बात करूं, समझ नहीं पाती थी। अंदर ही अंदर घुटती रहती थी। कभी-कभी सोचती थी, खुदा ने मुझे भी औरों की तरह क्यों नहीं बनाया। क्यों मैं अपनी उम्र की दूसरी लड़कियों की तरह निश्चित खुश नहीं रह पाती। काश, मैं भी दूसरों की तरह यह मान पाती कि दुख हम औरतों की नियति है, कि हमें इसी में जीना और इसी में मरना है।

कितने ही रंग हैं, इस दुनिया में फिर कौन-सा खुदा है, जो महिला को काले रंग में कैद करने की लगातार कोशिश करता आ रहा है। आज जब मुस्लिम महिलाओं को कहते सुना कि हिजाब उनके जीवन की पहली प्राथमिकता है और शिक्षा उसके बाद तो लगा जरूर शिक्षा व्यवस्था में कुछ कमी रह गयी है जो अपने साथ हो रहे शोषण को वह पहचान नहीं पा रही या वह विवश हैं। कानून ने जरूर महिला को बराबरी दी लेकिन सामाजिक बराबरी के लिए आज भी संघर्ष चल रहा है। स्त्री को सशक्त बनाने के लिए लोकतांत्रिक भारत में शासन व्यवस्था, योजनाओं में महिलाओं को समानता दिलाने के लिए कई कानून हैं। एक समय था जब औरत को वोट देने तक का अधिकार नहीं था। लंबी लड़ाई लड़ने के बाद यह संभव हो पाया। महिलाओं ने कार्यस्थल पर सामान वेतन के लिए संघर्ष किया और जीत हासिल की।

सिमान द बोउवार ने अपनी पुस्तक ‘स्त्री उपेक्षिता’ में लिखा है ‘औरत पैदा नहीं होती, बल्कि बना दी जाती है।’ यह हिजाब के लिए संघर्ष करने वाली औरत खुद नहीं बनीं, न इसके खुदा ने ऐसा करने को कहा है, बल्कि इस्लाम धर्म के ठेकेदारों ने उसे बनाया है। भारत में अब तक कई नारीवादी आंदोलन हुए, जिन्होंने स्त्री अधिकारों के लिए लगातार संघर्ष किया। इनमें ज्योतिराव फूले ने कन्या शिशु हत्या के खिलाफ, सावित्री बाई फूले ने लड़कियों के स्कूल भेजे जाने की अनिवार्यता पर बात की। ताराबाई शिंदे जिनका काम, स्त्री-पुरुष तुलना पर केंद्रित पहला आधुनिक भारतीय नारीवाद पाठ माना जाता है। पंडित रमा बाई ब्रिटिश भारत में महिलाओं की मुक्ति के लिए समाज सुधारक के रूप में आईं और भी न जाने कितने ही नाम इतिहास में अंकित हैं। आज भारत में महिला जिस बराबरी को पा सकी हैं उसमें इन स्त्रियों का विशेष योगदान रहा है।

आखिर कब तक दूसरे दर्जे पर महिला खड़ी रहेगी। हम हर वर्ष महिला दिवस मनाते हैं, ताकि महिलाएं अपने अधिकार को लेकर सजग रहें। क्या यह महिला दिवस बुर्के को ओढ़े रहने के लिए मनाते हैं? कनक मिश्रा की पंक्तियां हैं ‘जन्म से मृत्यु तक/आखिर कब अपने लिए जियोगी/ समाज के ठेकेदारों के लिए कब तक अपनी इच्छाओं को कुचलोगी/ तुम्हें भी जीने का अधिकार मिला है/ इस जीवन को न व्यर्थ करो/ उठो, चलो और आगे बढ़ो/ और नारी जीवन को सार्थक करो।’ नहीं मानती कि किसी खुदा ने कहा होगा कि बुर्क़ा ओढ़ लो। बुर्क़ा उन पुरुषों को करना चाहिए जो सभी महिलाओं में काम वासना देखते हैं। खु़दा ने दिया होता तो आज सभी मुसलमान स्त्री-पुरुष यह ओढ़े होते। यह महिलाओं के साथ साजिश है जो इनसे यह करवाते हैं। खुद को खुदा का बंदा समझने वाले पुरुषों ने यह थोपा है। काले लिबास में ढंकी महिला की आख़िर यह कौन-सी आजादी है, जिसकी पैरोकारी के लिए कथित बौद्धिक समाज आज लामबंद हो रहा है। यह लामबंदी भी सेलेक्टिव ही है, यह वामपंथी लॉबी अफगानिस्तान में बुर्कानशीं कानून की अनिवार्यता का विरोध करती है और भारत में पुरजोर समर्थन।

पुरुषवादी मानसिकता सिर्फ पुरुषों में नहीं होती, बल्कि महिलाएं भी इसे पोषित करती हैं। बुर्का समर्थन में खड़ी महिला दरअसल इस्लामी शिकंजे में फंसी हुई वह स्त्री है जो पर्दा न करने वाली मुस्लिम महिलाओं के लिए एक षड्यंत्र है। ऐसे ही विचारों से स्वछंद महिलाओं को यह समाज दबाता आ रहा है। मेरी एक काॅमरेड सखी के शब्द हैं जिससे मैं पूरी तरह सहमत हूं ‘सखियों, जो रीतियां, दुःख देती हैं, खुश नहीं रहने देती उन्हें तोड़ दो। एक की पहल, दूसरे के लिए हिम्मत और जीवन होती हैं। हम स्त्री होकर स्त्री के दुःख-दर्द में क्यों साथ नहीं देतीं? क्यों हम महिलाएं खुद ही दूसरी महिलाओं पर बंदिश लगाती हैं। क्या यह कथित नारीवादी आंदोलन और बौद्धिक वितंडावाद का कोरा ढोंग नहीं है। पीएफआई और वामपंथी संगठनों से जुड़ी वामपंथनों ने इसे तिल का ताड़ बना दिया है।

आओ मिलकर इन बंदिशों और कुरीतियों की बेड़ियां तोड़ दें। औरत होकर औरत का दर्द न बढ़ाओ, जो बेड़ियां टूट रही हैं, उन्हें फिर से बांधकर औरत को कमजोर करने का काम न करो। संघर्ष करो उन धर्म के ठेकेदारों से जो तुम्हें काले कपड़े में कैद करते रहने को विवश करते हैं। उसे अपनी पहचान कहकर स्त्री जाति को कलंकित न करो। यकीन मानो, स्त्री की आजादी कभी बुर्के के साथ नहीं खड़ी होगी। यह तुम्हें भड़काकर अंततः महिलाओं के अधिकारों को कमजोर करेगी।

मुगल-ए-आजम फिल्म के एक गीत के बोल हैं ‘पर्दा नहीं जब कोई खुदा से/बन्दों से पर्दा करना क्या…। इस गीत में भी पर्दानशीं और पर्देदारी को सभ्य समाज के लिए अनावश्यक बताया गया है। महिला अधिकारों की बात और अमानवीय प्रथा का समर्थन दोनों एक साथ कैसे चल सकते हैं। बुर्का जैसी अमानवीय और अप्राकृतिक प्रथा के खिलाफ शिक्षित महिलाओं और छात्राओं को मुखर होना चाहिए। तभी सच्चे अर्थों में महिलाएं स्वतंत्रता का अनुभव कर सकेंगी।

डाॅ. सीमा सिंह

(लेखिका, दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)

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