राजनीति का खेल काफी दिलचस्प है और खतरनाक है। हर चाल खिलाड़ी को चाहे सफलता की ओर ले जाती है, या फिर असफलता की गर्त की ओर धकेल देती है। इसलिए यहां हर निर्णय एक रिस्क होता है। गलत निर्णय या निर्णय की सफलता और असफता उसके भविष्य की दिशा और दशा तय करती है।
भारतीय राजनीति में ऐसे कई नेता हैं, जो देखते ही देखते आसमान से गिरकर जमीन में समा गए और फिर उनके अस्तित्व के लिए खतरा पैदा हो गया। हम यहां पिछले चंद महीनों में हीरो से जीरो बने पांच नेताओं की बात कर करेंगे। इनमें कांग्रेस नेता नवजोत सिंह सिद्धू, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी, पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह, कांग्रेस के पूर्व पंजाब प्रभारी हरीश रावत तथा मायावती शामिल हैं।
नवजोत सिंह सिद्धू
कांग्रेस नेता नवजोत सिंह सिद्धू का जन्म 20 अक्टूबर 1963 को पटियाला में हुआ। वे पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी, पूर्व सांसद, पूर्व विधायक और पूर्व पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष हैं। क्रिकेट से संन्यास लेने के बाद उन्होंने दूरदर्शन पर क्रिकेट की कमेंट्री की। उसके बाद राजनीति में सक्रिय हुए। इसके साथ ही उन्होंने टीवी के कार्यकर्मों के भी हिस्सा रहे। क्रिकेट से संन्यास लेने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें टिकट दिया और 2004 में अमृतसर लोकसभा सीट से जीतकर पहली बार संसद में पहुंचे।
दिलचस्प और सस्पेंस से भरी है कहानी
हीरो से जीरो बनने से पहले तक की सिद्धू की कहानी काफी दिलचस्प और संस्पेंस से भरपूर है। कांग्रेस के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाने के लिए शुरू किया गया उनका संघर्ष आखिरकार सफल हुआ और 18 सितंबर 2021 को कैप्टन को पंजाब के मुख्यमंत्री के पद से हटा दिया गया। सिद्धू को उम्मीद थी कि उनके हटने के बाद उन्हें पंजाब सरकार का कैप्टन बनाया जाएगा। लेकिन पार्टी हाईकमान ने उन्हें निराश करते हुए चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बना दिया।
कैप्टन की कुर्सी गई लेकिन..
पार्टी हाईकमान के इस निर्णय से सिद्धू अवसाद में चले गए और उनकी बेचैनी बढ़ गई। इस बात को समझते हुए कांग्रेस हाईकमान ने उन्हें खुश करने की कोशिश में पंजाब काग्रेस का कैप्टन बनाया। राजनैतिक जानकारों के साथ ही कांग्रेस हाईकमान को भी उम्मीद थी कि अब पार्टी में सब कुछ ठीक हो जाएगा। पार्टी के नेता एकजुट होकर विधानसभा चुनाव के लिए काम करेंगे। लेकिन सिद्धू को लगता रहा कि उनके साथ अन्याय हुआ है और वे शांत रहने के बजाय अपने बड़बोलेपन से पार्टी की मुश्किलें बढ़ाते रहे। उन्होंने पार्टी के हर निर्णय का विरोध किया। वे एक तरह से पार्टी हाईकमान को चुनौती देते रहे। पार्टी तब इस स्थिति में नहीं थी कि ऐन चुनाव से पहले उनके खिलाफ कोई बड़ा एक्शन ले।
टूट गई आखिरी उम्मीद
सिद्धू को जोर का झटका तब लगा, जब उनकी आखिरी उम्मीद भी टूट गई। उन्हें उम्मीद थी कि चुनाव में उन्हें मुख्यमंत्री का चेहरा बनाया जाएगा और कांग्रेस को बहुमत मिलने की स्थिति में वे ही पंजाब सरकार के कैप्टन बनेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और पार्टी ने चन्नी के चेहरे पर ही चुनावी दंगल में उतरने का फैसला किया।
अब जेल में क्लर्क बनकर काट रहे हैं सजा
कांग्रेस की इस कलह का परिणाम पार्टी को भुगतनी पड़ी और कांग्रेस की करारी हार हुई। इससे भी गंभीर बात यह रही कि पार्टी के बड़े नेता चन्नी, सिद्धू भी व्यक्तिगत रूप से चुनाव हार गए। चुनाव परिणाम आने तक जो कांग्रेस नेता हीरो बने हुए थे और सत्ता तथा शक्ति के घमंड में चूर थे, उन सब को पार्टी के साथ ही अपनी हैसियत का भी पता चल गया। इतने पर भी बात खत्म नहीं हुई और एक 34 साल पुराने मामले में उन्हें सर्वोच्च न्यायालय ने एक साल की सजा सुना दी। फिलहाल वे उसी मामले में पटियाला की जेल में क्लर्क बनकर सजा काट रहे हैं।
कैप्टन अमरिंदर सिंह
नवजोत सिंह सिद्धू ने कैप्टन अमरिंदर सिंह को पंजाब के मुख्यमंत्री पद से हटाकर खुद वहां काबिज होने के लिए एड़ीचोटी का पसीना बहाया। आपसी लड़ाई में दोनों ने एक दूसरे की बखिया उधेड़ दी। दोनों ने राजनैतिक, सामाजिक और व्यक्तिगत हमले ने एक-दूसरे को कमजोर किया। परिणाम यह हुआ कि दोनों का ही राजनैतिक करियर खत्म होने की कगार पर पहुंच गया।
कुर्सी जाते ही उम्र हावी
कभी पंजाब की शान और कांग्रेस के तारणहार कहे जाने वाले कैप्टन अमरिंदर सिंह की पार्टी भी जन्म लेने के चंद माह बाद खत्म होने की स्थिति में है। 80 वर्षीय कैप्टन के पास अब इस राजनैतिक दुर्घटना से उबरने के लिए समय नहीं है। हालांकि चुनाव के परिणाम आने से पहले तक वे अपनी उम्र को चुनौती दे रहे थे और अगले कुछ सालों तक पंजाब की बेहतरी के लिए राजनीति करने की बात कर रहे थे, लेकिन कुर्सी जाते ही लोगों की उम्र कई साल बढ़ जाती है और तमाम तरह की बीमारियां भी घेर लेती हैं।
दो जाटों के दंगल में किसी का नहीं हुआ मंगल
फिलहाल कैप्टन के हीरो से जीरो बनने की कहानी एक साल से अधिक पुरानी नहीं है। अपने दम पर पिछले कई सालों से पंजाब में कांग्रेस का पंजा लहराते रहने वाले कैप्टन कभी सोनिया और राहुल गांधी के खास हुआ करते थे। उन्हें पंजाब में अपने हिसाब से निर्णय लेने और सरकार चलाने की पूरी छूट थी, लेकिन सिद्धू ने उनके खिलाफ बगावत का झंडा उठाकर उनके राजनैतिक करियर को सीढ़ी दर सीढ़ी खिसकाते हुए गर्त में पहुंचा दिया। आज कैप्टन को बुझा हुआ दीया समझा जा रहा है और राजनीति में उनकी चर्चा कम ही होती है।
चरणजीत सिंह चन्नी
पंजाब में जब दो जाटों अमरिंद सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू के बीच महाभारत मचा था, तब चरणजीत सिंह चन्नी कहीं नहीं थे। वे एक पार्टी विधायक और कैप्टन सरकार में मंत्री रहने के अलावा कुछ नहीं थे, लेकिन अचानक उनका नाम बुलुबले की तरह राजनीति के तालाब में बाहर आ गया।
चन्नी साबित हुए बुलबुला
कैप्टन और सिद्धू के संघर्ष से परेशान और ऊब चुकी पार्टी हाईकमान ने इन दोनों को हटाकर किसी नये व्यक्ति की ताजपोशी की योजना बना ली। कुछ नया करने और पार्टी में चल रही अंतर्कलह को खत्म कर पार्टी में नई जान फूंकने के लिए पार्टी हाईकमान ने एक दलित नेता और कम चर्चित चेहरे पर दांव लगा दिया। चन्नी ने पूरी कोशिश की कि वे पार्टी हाईकमान की उम्मीदों पर खरा उतरें और पार्टी को एक बार फिर सत्ता की कुर्सी तक पहुंचाएं, लेकिन दो जाटों के दंगल का अखाड़ा बने पंजाब में उनके लिए हर वक्त मुसीबतें खड़ी रहीं। सिद्धू ने उन्हें चैन की सांस नहीं लेने दी। परिणाम यह हुआ कि पार्टी के साथ ही चन्नी भी चुनाव हार गए।
सतर्कता काम न आई
शायद अंजाम का उन्हें आभास था, इसलिए दो सीटों चमकोर साहिब और भदौर से चुनावी समर में किस्मत आजमाने उतरे थे, लेकिन खेद, वे दोनों ही सीटों पर हार गए। जिस तरह उनका नाम राजनीति के आसमान में सूरज की तरह चमका, उसी तरह बहुत तेजी से अस्त भी हो गया। हालांकि उनके पास अभी समय है, और समय बताएगा कि वे इस सदमे से उबकर राजनीति के आसमान का फिर से सूरज बनने में सफल होते हैंं या नहीं।
हरीश रावत
हरीश रावत उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री के साथ ही पंजाब के पूर्व प्रभारी भी रहे हैं। इस कारण उनके कंधों पर पंजाब के साथ ही उत्तराखंड में भी कांग्रेस को जीत दिलाने की जिम्मेदारी थी। पंजाब में दो जाटों की लड़ाई में हरीश रावत को भी भारी नुकसान हुआ। वे सैंडविच बने रहे और दोनों में सुलह-समझौता कराने की कोशिश करते रहे। पंजाब और उत्तराखंड में चुनाव की तारीखों की घोषणा के समय से पहले तक उनका अधिकांश समय दिल्ली और पंजाब में कैप्टन तथा सिद्धू के बीच सुलह कराने की कोशिश में गुजरा।
दिल्ली, पंजाब और उत्तराखंड के चक्कर लगाते रहे रावत
वे कभी दिल्ली में पार्टी हाईकमान से विचार-विमर्श करते तो कभी पंजाब जाकर दोनों पार्टी नेताओं को समझने और समझाने की कोशिश करते। इस चक्कर में उनकी उत्तराखंड पर से भी पकड़ कमजोर होती गई। परिणाम यह निकला कि दोनों ही प्रदेशों में पार्टी तो हारी ही, बड़े नेता भी धूल चाटने लगे। हरीश रावत खुद भी चुनाव हार गए। आगे का उनका राजनैतिक सफर आसान नहीं है। कमजोर हो रही कांग्रेस के नेता भी कमजोर हो रहे हैं और इस स्थिति देखकर ऐसा नहीं लगता कि पार्टी तथा नेता अपनी पूर्व की स्थिति को प्राप्त कर पाएगा।
मायावती
मायावती उत्तर प्रदेश की एक बड़ी राजनैतिक हस्ती मानी जाती हैं। दलितों की मसीहा के रूप में केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं, पूरे देश में मशहूर मायावती के लिए 2022 का विधानसभा चुनाव एक बड़ी राजनैतिक परीक्षा साबित हुई और वे इसमें वे बुरी तरह असफल साबित हुईं।
प्रचंड पराजय
उत्तर प्रदेश चुनाव 2022 में दलितों को और राजनीति के जानकारों को उनसे बड़ी उम्मीद थी। लेकिन एक थकी हुई पहलवान की तरह मायावती और उनकी पार्टी चुनावी दंगल में उतरीं और उसका परिणाम स्वाभाविक रूप से प्रचंड पराजय मिला।
खोया गौरव लौटना मुश्किल
चुनाव की घोषणा के बाद उनकी पार्टी बहुजन समाज पार्टी ने कोई रणनीति नहीं बनाई और बहुत ही बेमन से हारने के लिए चुनाव मैदान में उतरी। इसे लेकर समजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने आरोप भी लगाया था कि मायावती ने भारतीय जनता पार्टी की जीत में मदद की। हालांकि मायावती ने इस आरोप का खंडन किया, लेकिन इससे न तो चुनाव का परिणाम बदलता है और न मायावती तथा उनकी पार्टी का खोया हुआ गौरव लौटता है।
आगे की राह नहीं आसान
चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं मायावती के लिए आगे की राह आसान नहीं है। जिस तरह से प्रदेश में भाजपा का परचम फहरा रहा है और विपक्ष में अखिलेश यादव मजबूती से खड़े दिख रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि मायावती शायद ही राजनीति के आसमान पर फिर से अपनी चमक बिखेर पाएंगी।