Lok Sabha elections: उप्र में भाजपा की उम्मीदों को लगा झटका, कहां हुई चूक?

उत्तर प्रदेश में पिछले चुनाव की तुलना में इस बार भाजपा की सीटें ही कम नहीं हुई हैं, बल्कि वोट प्रतिशत भी गिरा है। वर्ष 2019 में 62 सीटें जीतने वाली भाजपा को 49.97 प्रतिशत वोट मिले थे, लेकिन इस बार यह आंकड़ा 41.37 के करीब पहुंच गया है।

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Lok Sabha elections में उत्तर प्रदेश में भाजपा की उम्मीदों को गहरा झटका लगा है। पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार भाजपा की ताकत घटकर लगभग आधी रह गई है। भाजपा के खाते में सिर्फ 33 सीटें आई हैं। प्रदेश में भाजपा-नीत एनडीए में शामिल दल भी गठबंधन के समीकरणों को दुरुस्त करने में नाकाम रहे। अब हार के कारणों पर चिंतन-मंथन का दौर शुरू हो गया है। ऐसे में अहम सवाल यह है कि आखिरकार प्रदेश में भाजपा के रणनीतिकारों से कहां चूक हुई?

वोट प्रतिशत में गिरावट
पिछले चुनाव की तुलना में इस बार भाजपा की सीटें ही कम नहीं हुई हैं, बल्कि वोट प्रतिशत भी गिरा है। वर्ष 2019 में 62 सीटें जीतने वाली भाजपा को 49.97 प्रतिशत वोट मिले थे, लेकिन इस बार यह आंकड़ा 41.37 के करीब पहुंच गया है।

छोटी पार्टियों से गठबंधन का नहीं मिला लाभ
राजनीतिक विश्लेषक सुशील शुक्ल का मानना है कि प्रदेश में एनडीए में शामिल सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा), राष्ट्रीय लोकदल (रालोद), अपना दल (सोनेलाल) और निषाद पार्टी भाजपा को खास फायदा नहीं पहुंचा पाए। भाजपा ने प्रदेश के चुनाव में पिछड़े वोटबैंक को साधने के लिए एनडीए का विस्तार करते हुए सुभासपा और रालोद जैसे दलों को शामिल किया था पर दोनों दल कोई करिश्मा नहीं दिखा पाए। यही हाल एनडीए के दो पुराने अन्य सहयोगी अपना दल (एस) और निषाद पार्टी का भी रहा।

पीडीए फार्मूला सफल
चुनाव में सपा-कांग्रेस का गठबंधन मैदान में उतरा। सपा प्रमुख अखिलेश यादव पीडीए के फार्मूले के साथ मैदान में उतरे। वहीं बेरोजगारी, अग्निवीर योजना और संविधान बदलने के मुद्दे को लगातार इंडिया ब्लाक के नेताओं ने जमकर हवा दी। इस बार विपक्ष ने भाजपा के हिंदुत्व के मुकाबले पीडीए का फार्मूला तैयार किया। पीडीए अर्थात् पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक। पीडीए का फार्मूला भाजपा के हिंदुत्व और दूसरों मुद्दों पर भारी पड़ गया। कहीं-कहीं यह पीडीए पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक था तो कहीं-कहीं अखिलेश यादव ने इसे पीड़ित, दलित और अगड़ा बता दिया। वरिष्ठ पत्रकार जेपी गुप्ता के अनुसार राहुल गांधी और अखिलेश यादव को लोग राजनीति में बच्चा समझते रहे लेकिन दो लड़कों की जोड़ी ने बिखरे पड़े विपक्षी कुनबे में जान फूंक दी।

नहीं भाया 400 का नारा
राजनीतिक विश्लेषक अवनीश शर्मा के मुताबिक अब की बार 400 पार का नारा भाजपा के लिए शायद उलटा साबित हुआ। वहीं विपक्ष ने इस नारे को इस तरह पेश किया कि भाजपा 400 सीटें लेकर संविधान बदल देगी। विपक्ष अपनी बात ज्यादा असरदार तरीके से जनता तक पहुंचाने में सफल रहा। इस चुनाव में विपक्ष के हमलों का पीएम और बड़े नेताओं ने भले ही काउंटर किया हो, लेकिन स्थानीय स्तर पर भाजपा विपक्ष के आरोपों और हमलों के जवाब आम आदमी तक पहुंचाने में असफल रही।

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संविधान व आरक्षण पर भाजपा नहीं कर पाई बचाव
राजनीतिक विश्लेषक सुशील शुक्ल के अनुसार भाजपा विपक्ष के संविधान व आरक्षण के मुद्दे से ठीक से अपना बचाव नहीं कर पाई। इससे प्रभावित होने वाले पिछड़े व दलित वर्ग के युवाओं को समझाने में विफल रही। इस चुनाव से यह भी साफ हो गया है कि कार्यकर्ताओं में छाई मायूसी व असंतोष के साथ ही चुनाव प्रबंधन की कमियों ने भाजपा के 80 सीटें जीतने के लक्ष्य में सबसे बड़ी बाधा पैदा की।

पार्टी कार्यकर्ताओं की अनदेखी
पत्रकार राघवेन्द्र मिश्र के मुताबिक उप्र में भाजपा की बिगड़ी चाल के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार पार्टी के ही बड़े नेताओं का अति आत्मविश्वास है। जिस तरह से स्थानीय और पार्टी कार्यकर्ताओं की अनदेखी करते हुए टिकट का बंटवारा किया गया उससे भाजपा को बड़ा नुकसान हुआ।

टिकट बंटवारे में मनमानी
वरिष्ठ पत्रकार विनय मिश्र भाजपा की हार के कारणों को गिनाते हुए कहते हैं कि पार्टी कार्यकर्तांओं की उपेक्षा, बाहरी पर भरोसा, संगठन और सरकार में तालमेल का अभाव, टिकट बंटवारे में मनमानी, सिर्फ कागजों पर रही पन्ना प्रमुखों और बूथ कमेटियों की सक्रियता, अधिकारियों के आगे मंत्रियों तक का बेअसर होना आदि कई वजहें हैं जो भाजपा की हार का कारण बनीं।

कल्याणकारी योजनाओं पर भारी जाति का फैक्टर
राजनीतिक विशलेषक डॉ. ओपी त्रिपाठी के अनुसार समाज के हर जरूरतमंद तबके ने डबल इंजन की सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ तो लिया लेकिन ईवीएम का बटन दबाते समय जाति का फैक्टर हावी हो जाता है। वोटरों को लाभ भी चाहिए और अपनी जाति का नेता भी।

लाभार्थियों को साधने की कोशिश फेल
प्रदेश की सभी सीटों पर कमल खिलाने के लिए भाजपा ने पिछले पांच साल में कई नए प्रयोग किए थे, लेकिन चुनाव नतीजे बता रहे हैं कि सभी प्रयोग फेल साबित हुए हैं। मोदी-योगी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थियों से संपर्क अभियान भी असरदार साबित नहीं हुआ। विकसित भारत संकल्प यात्रा, मोदी का पत्र वितरण और टिफिन बैठक जैसे कई प्रमुख अभियान और सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थियों को साधने की कोशिश भी नाकाम साबित हुई हैं।

सांसद विरोधी लहर को किया नजरंदाज
पत्रकार केपी त्रिपाठी के अनुसार भाजपा ने उत्तर प्रदेश में खराब छवि वाले कई सांसदों का टिकट काटने से परहेज किया। कई सीटों पर सांसद विरोधी लहर को नजरंदाज किया गया। इससे कार्यकर्ता हतोत्साहित हुए। वहीं ज्यादा सीटें जीतने पर योगी को हटाया जा सकता है इस दुष्प्रचार और नरेटिव का भी असर पड़ा।

सोशल मीडिया मैनजमेंट में पिछड़ी भाजपा
विपक्ष ने इस बार भाजपा के सोशल मीडिया मैनजमेंट के मुकाबले के लिए पूरी तैयारी की थी। चुनाव प्रचार के दौरान विपक्ष ने भाजपा के प्रचार तंत्र और सोशल मीडिया का जमकर काउंटर किया। पत्रकार राघवेन्द्र मिश्र के अनुसार प्रदेश में भाजपा ने इस बार सोशल मीडिया का प्रबंधन ठीक से नहीं किया। विपक्ष के दुष्प्राचार, फेक न्यूज और हमलों का भाजपा की सोशल मीडिया टीम ठीक से मैनेज नहीं कर पाई।

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