एक देश एक चुनावः जानिये, क्या है नफा-नुकसान और कब तक हो सकता है लागू?

एक देश एक चुनाव बिलकुल संभव है। इसका कारण यह है कि देश में पहले भी 1952, 1957,1962 और 1967 में लोकसभा तथा विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जा चुके हैं।

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एक देश एक चुनाव यानी एक नेशन एक इलेक्शन की चर्चा एक बार फिर से गरमा रही है। केंद्र सरकार ने इस मामले को विधि आयोग को सौंपते हुए इस पर उसके सुझाव मांगे हैं। हालांकि अभी से यह कहना मुश्किल है कि इसे कब से लागू किया जाएगा। लेकिन सरकार की इस बारे में कोशिश जारी है, इस तरह की खबरें बीच-बीच में हमेशा आती रहती हैं।

2019 में पश्चिम बंगाल सहित पांच राज्यों में जब एक साथ चुनाव कराए गए थे, तो उसमें भारतीय जनता पार्टी को काफी अच्छा प्रतिसाद मिला था। इसका एक बड़ा कारण केंद्रीय योजनाओं से बड़े पैमाने पर लोगों का लाभान्वित होना है। यही कारण रहा कि पांच में से चार राज्यों में भाजपा को बहुमत मिला। उसके बाद से केंद्र सरकार चाहती है कि एक देश एक चुनाव को जल्द से जल्द लागू किया जाए।

सरकार का प्रयास जारी
गौर करने वाली बात यह भी है कि संसदीय समिति ने संसद के दोनों सदनों में रिपोर्ट पेश कर कहा था कि अगर एक देश एक चुनाव को लागू किया जाता है तो इससे न केवल खर्च कम होंगे, बल्कि राजनीतिक पार्टियों का भी खर्च कम होगा। इसके साथ ही मानव संसाधन का अधिकतम उपयोग किया जा सकेगा। रिपोर्ट में कहा गया था, इससे मतदाताओं में उत्साह बढ़ेगा और अधिक से अधिक मतदाता मतों का प्रयोग करेंगे।

प्रधानमंत्री ने बताया, समय की जरुरत
केंद्र सरकार की मंशा इस बात से भी स्पष्ट हो जाती है कि प्रधानमंत्री कई बार एक देश एक चुनाव की बात को दोहरा चुके हैं। उन्होंने इसे समय की मांग बताते हुए कहा है कि यह अच्छी बात नहीं है कि देश में हर महीने कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं। इससे विकास कार्यों पर असर पड़ता है। विचार करने वाली बात यह भी है कि बार-बार चुनाव होने से प्रशासनिक कामों पर भी असर पड़ता है। यदि देश में एक साथ चुनाव होते हैं तो राजनातिक दल भी देश और प्रदेश के विकास कार्यों पर अधिक ध्यान केंद्रित कर पाएंगे।

इसलिए है संभव
यह बिलकुल संभव है। इसका कारण यह है कि देश में पहले भी 1952, 1957,1962 और 1967 में लोकसभा तथा विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जा चुके हैं। लेकिन बाद में 1967 के बाद परिस्थितियां ऐसी बनीं कि दोनों चुनाव अलग-अलग समय में कराने पड़े।

ये रहे कारण
-विश्वास मत प्राप्त नहीं होने के कारण सरकार का समय से पहले भंग हो जाना

-सत्ता में शामिल दलों के गठबंधन टूटने से सरकारों को अपना कार्यकाल पूरा न कर पाना

-कई बार लोकसभा में भी सरकार अपना कार्यकाल पूरा करने से पहले ही गिर चुकी है।

इन देशों में कराए जाते हैं एक साथ चुनाव
कई देशों में एक साथ चुनाव कराने की परंपरा है। स्वीडन में 2021 में आम चुनाव, काउंटी और नगर निगम के चुनाव एक साथ कराए गए थे। इसके साथ ही इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका, जर्मनी, स्पेन, हंगरी, स्लोवेनिया, पोलैंड और बेल्जियम आदि देशों मे एक साथ चुनाव कराए जाते हैं।

चुनाव पर हजारों करोड़ खर्च
-2019 में लोकसभा चुनाव में छह हजार करोड़ से अधिक खर्च आए थे।

-2014 में लोकसभा चुनाव में चार हजार करोड़ रुपए खर्च हुए थे।

-2009 में लोकसभा चुनाव में 1 हजार 1 सौ करोड़ रुपए खर्च हुए थे।

-ये तो लोकसभा चुनावों की बात है। देश के विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में चुनावों में भी भारी भरकम खर्च होते हैं।

– देश में एक साथ चुनाव कराने से आपसी सौहार्द बढ़ेगा। क्योंकि चुनाव में जीत हासिल करने के लिए राजनैतिक पार्टियां कई ऐसे मुद्दे भी उठाती हैं, जिनसे धार्मिक और सामाजिक सद्भाव बिगड़ता है।

ये हैं बाधाएं
अब सवाल यह उठता है कि एक साथ चुनाव कराने नें बाधाएं क्या हैं।

-केंद्रीय अर्धसैनिक बलों की कमी हो सकती है।

-ईवीएम की संख्या भी काफी बढ़ना की जरुरत पड़ेगी।

-एक अनुमान के अनुसार देश में वर्तमान में 15 लाख ईवीएम उपयोग के लायक हैं।

-एक देश एक चुनाव की स्थिति में 35 लाख से अधिक ईवीएम की आवश्यकता पड़ सकती है।

-इसके लिए 7 हजार करोड़ रुपए की जरुरत पड़ेगी।

-इन मशीनों को हर 15 साल में बदलने से भी देश पर आर्थिक बोझ बढ़ेगा।

-इसके साथ ही देश में एक साथ चुनाव कराने से अधिक संसाधन और मशीनरियों की जरुरत पड़ेगी। जो फिलहाल देश के पास मौजूद नहीं है।

-राजनैतिक पार्टियां इसका बड़े पैमाने पर विरोध कर सकती हैं।

-इन कारणों से निकट भविष्य में इसे लागू करने की संभावना नहीं दिखती है।

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