ऐसा समर्पण और राष्ट्र कार्य मात्र स्वातंत्र्यवीर सावरकर से ही संभव

स्वातंत्र्यवीर सावरकर एक अलौकिक व्यक्तित्व, सशस्त्र क्रांति के प्रेरणा श्रोत थे। देश को सच्चा देव मानकर राष्ट्रहित को प्राधान्य देनेवाले देशभक्त थे। पूर्व से चली आ रही रूढ़िवादी परंपरा, अंधश्रद्धा, अस्पृश्यता के विरोध में उन्होंने स्वर फूंका।

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स्वातंत्र्यवीर सावरकर उस विलक्षण प्रतिभा का नाम है, जिसने राष्ट्र के लिए अपने जीवन और अपने परिवार को भी समर्पित कर दिया था। उन्हें ऐसे क्रांतिकार्यों के लिए अनंत काल तक जाना जाएगा, जो मात्र उन्हीं से संभव थे। उनके जीवन को पुस्तकों और लेखों के माध्यम से व्यक्त करना संभव नहीं है, परंतु उनके राष्ट्र कार्यों को हिस्सों में ही सही परंतु, उसे प्रस्तुत करना भारतीय जनमानस के प्रबोधन लिए परम आवश्यक है।

यह क्रांति कार्य मात्र स्वातंत्र्यवीर से ही थे संभव…

किशोरावस्था में मित्र मेला का गठन
मात्र पंद्रह वर्ष की आयु में स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने मित्र मेला नामक एक संगठन का गठन किया। इसके माध्यम से युवा वर्ग को एकजुट करके राष्ट्र कार्य के लिए प्रेरित किया जाने लगा। इसका उद्देश्य था अंग्रेजी दासता और अन्याय का क्रांति से उत्तर देना।

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विदेशी कपड़ों की पहली होली
वर्ष 1905 में स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने विदेशी कपड़ों की होलिका दहन की। इसका कारण यह था कि, अंग्रेज भारत से कच्चा माल ले जाते थे और महंगा तैयार माल यहां भेजते थे। इससे भारत के व्यवसाई दिवालिया होने लगे। अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध इस लड़ाई का प्रभाव लंदन तक पहुंचा और स्वातंत्र्यवीर सावरकर को छात्रावास छोड़ना पड़ा और अर्थ दंड भी भरना पड़ा।

पत्रकार सावरकर का अंग्रेजों के विरुद्ध बिगुल
स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने लंदन के ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ में 20 जुलाई को हिंदुस्थान के बजट पर लॉर्ड मोर्ले का भाषण सुना और उनके अंदर का पत्रकार जागृत हो गया। 17 अगस्त, 1906 से 26 नवंबर, 1909 के कालखण्ड में लंदन के समाचार पत्र में भारत की तत्कालीन परिस्थिति, अंग्रेजों की अविवेकी, दमनकारी नीति और कांग्रेस की विचारहीन नीति पर प्रहार किया। उन्होंने तिरालिस समाचार पत्रों में लिखा। देश के कई समाचार पत्रों में उसके अनुवाद छपते थे।

क्रांति कार्यों की गीता 
अभिनव भारत और मैजिनी के ‘यंग इटली’ की कार्यप्रणाली में विशेष समानता को स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने लक्ष्यित कर लिया था। इससे भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए उनकी क्रांतिकारी योजना और आत्मविश्वास में बहुत बढ़ोतरी हुई। मात्र छह महीने में ही उन्होंने जोसेफ मैजिनी के जीवनी के कुछ हिस्सों का मराठी में अनुवाद किया। जोसेफ मैजिनी की पुस्तक की प्रस्तावना लिखी, जो क्रांतिकारियों की गीता के रूप में प्रचिलत हुई।

हिंदुत्व की पहली स्पष्ट व्याख्या
स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने भारत के इतिहास में पहले व्यक्ति थे जिन्होंने, हिंदुत्व की बड़ी स्पष्ट व्याख्या प्रस्तुत की। उन्होंने अपनी पुस्तक हिंदुत्व में स्पष्ट कहा है कि, सिंधु नदी से सिंधु सागर तक जिसकी मातृ भूमि, पितृ भूमि और देव भूमि है, वह हिंदू हैं।

“आसिंधु सिंधु पर्यन्ता, यस्य भारतभूमिका।
पितृभू: पुण्यभूश्चैव स वै हिंदुरिति स्मृत:”

इस परिभाषा का प्रथम लक्षण है आसिंधुसिंधुपर्यंता भूमि हमारी है। जो पाँच हजार वर्ष पूर्व के समान आज भी स्वयं को सिंधु अथवा सिंधु देश की संतान मानते हैं, वे लोग सिंधु के दोनों तटों पर बसे हुए हैं। जब किसी नदी का उल्लेख किया जाता है तब उस उल्लेख में दोनों ही किनारों का समावेश होता है। सिंध प्रांत का जो भाग सिंधु के पश्चिम तट पर बसा है, वह भी हिंदुस्थान का एक प्राकृतिक भाग है तथा हमारी परिभाषा में इस पश्चिम भाग का भी समावेश होता है। दूसरी यह है कि प्रमुख देश से जुड़ी हुई भूमि को प्रमुख देश का ही नाम दिया जाता है। तीसरी बात यह है कि सिंधु के उस पार रहनेवाले हिंदू प्राचीनकाल से संपूर्ण भारतवर्ष को अपनी वास्तविक पितृभूमि तथा पुण्यभूमि मानते आ रहे हैं। जिस सिंधु के क्षेत्र में वे निवास करते हैं उसी क्षेत्र को अपनी पितृभूमि तथा पुण्यभूमि ना मानने के मातृ-घातक दोष के वे कभी भागी नहीं बने सकते, वे बनारस, कैलाश, गंगोत्री आदि तीर्थ क्षेत्रों को अपने ही तीर्थ क्षेत्र मानते आ रहे हैं। प्राचीन वैदिक समय से वे लोग भारतवर्ष का एक अविभाज्य तथा प्रमुख भाग के रूप में पहचाने जाते हैं। रामायण तथा महाभारत में भी सिंधु शिबीसौवीर हिंदू साम्राज्य के घटक होने का उल्लेख किया गया है। वे हमारे राष्ट्र के, हमारी जाति के तथा संस्कृति के ही लोग हैं। इसलिए वह हिंदू ही हैं। इस दृष्टि से हमारी परिभाषा सर्वस्वी यथार्थ है।

1857 का समर पहला ‘स्वातंत्र्य समर’
मंगल पांडे, नानासाहेब पेशवा, झांसी की रानी, तात्या टोपे, राणा कुंवर सिंह, अजीमुल्ला खान, बहादुरशाह जफर जैसे अनेकों ने 1857 में जो लड़ाई लड़ी वो सिपाहियों का विद्रोह नहीं बल्कि स्वातंत्र्य समर था। इसे सावरकर ने मात्र अपने भाषणों से ही नहीं बताया बल्कि, पच्चीस वर्ष की आयु में उस विद्रोह के इतिहास को लिपिबद्ध किया… ‘1857 चे स्वातंत्र्य समर’… नामक यह ऐतिहासिक ग्रंथ क्रांतिकारियों के लिए गीता हो गई।

भारत को दिया पहला झंडा
जर्मनी के स्टूटगार्ट स्थित अंतरराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन (राष्ट्रकुल सम्मेलन) में, 22 अगस्त 1907 को वीर सावरकर के सपनों के हिंदुस्थान के ध्वज को मादाम कामा ने फहराया। उनके भाषण से प्रभावित हुई वैश्विक सभा ने खड़े होकर, तालियों की गड़गड़ाहट से हिंदुस्थान के ध्वज को सम्मान दिया।

बम बनाने की शिक्षा दी
अंग्रेजों से मुकाबला करने के लिए विचार और कर्म को शस्त्र का साथ चाहिए इसका संज्ञान लेकर सावरकर ने दूसरे देशों से बम बनाने की तकनीकी सीख ली थी। बम निर्मिति की पुस्तिका लेकर पांडुरंग बापट (सेनापति बापट), होतीलाल वर्मा, हेमचंद्र दास हिंदुस्थान आ गए और 30 अप्रैल 1909 को माणिकतोला में पहला बम धमाका हुआ। इससे अंग्रेजी सत्ता पूर्ण रूप से हिल गई। बम फेंकनेवाले खुदीराम बोस को फांसी की सजा हुई तो प्रफुल्लचंद्र चाकी ने खुद को गोली मारकर मृत्यु को स्वीकार कर लिया।

मार्से के अथाह सागर में छलांग
7 जुलाई, 1910 को मोरिया नौका ने लंगर डाला। पुलिस की कड़ी पहरेदारी को चुनौती देते हुए 8 जुलाई 1910 को सावरकर मार्से किनारे के अथाह सागर में कूद पड़े। तैरते हुए वे फ्रांस के किनारे पर पहुंचे।

दोहरे कालापानी की सजा
अंग्रेजों को किसी भी कीमत पर वीर सावरकर को मुक्त नहीं करना था। उन्हें उच्च न्यायालय में अपील का अवसर न देते हुए, उन्हें दोहरे आजीवन कारावास यानी 50 साल की सजा और कालापानी की सजा सुनाई गई। इसी समय नासिक प्रकरण में सावरकर के छोटे बंधु नारायणराव को भी छह महीने का सश्रम कारावास सुना दिया गया। देश की स्वतंत्रता के लिए 50 वर्ष के आजीवन कारावास की सजा पानेवाले सावरकर एकमात्र राजनैतिक बंदी थे।

अंदमान में देश भक्ति का मंत्र
उत्पीड़न छावनी के रूप में प्रसिद्ध अंदमान के सेल्युलर कारागृह में अंग्रजों ने राजनीतिक बंदियों के साथ भीषण अत्याचार किये। सभी को बैलों की तरह कोल्हू से जोत दिया। सावरकर के अंदमान पहुंचने के पहले वहां सजा भुगत रहे बाबाराव को बहुत प्रताड़ना दी गई थी, इसी समय स्वास्थ्य ने भी बाबाराव को बहुत परेशान किया। इस उत्पीड़न से परेशान होकर कई बंदी पागल हो गए, कइयों ने आत्महत्या कर ली। वीर सावरकर के मन में भी आत्महत्या का विचार आया था लेकिन, उसपर मात करते हुए उन्होंने सह-बंदियों का भी मनोबल दृढ़ किया। जो कार्य बाहर रहकर करने की योजना उनके मन में थी उसे अब जेल में करने का उन्होंने निश्चय किया। वहां के बंदियों को लिखना-पढ़ना सिखाकर उन्हें देशभक्ति का मंत्र दिया। उनके लिए ग्रंथालय का निर्माण किया और न सिर्फ वहां होनेवाले धर्मांतरण को रोका बल्कि, धर्मांतरित हुए लोगों की शुद्धि भी करवाई।

सप्त बेड़ियों से मुक्ति
8 जनवरी, 1924 को सावरकर को रत्नागिरी में स्थानबद्ध किया गया। अपने पैरों में स्थानबद्धता की बेड़ी बांधकर स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने हिंदू समाज को घेरकर बैठी रोटी बंदी, बेटी बंदी, वेदोक्त बंदी, सिंधु बंदी, स्पर्श बंदी, शुद्धि बंदी, व्यवसाय बंदी नामक सप्त श्रृंखला को तोड़ने का प्रयत्न किया।

अस्पृष्यता निर्मूलन के लिए प्रबोधन
अस्पृश्यता निर्मूलन के लिए उन्होंने सहभोजन, सहपूजन, हल्दी कुमकुम समारोह आयोजित किये। अस्पृश्यों के बच्चों को स्कूल में प्रवेश दिलवाया। इससे उन बच्चों का अन्य बच्चों के साथ बैठना संभव हो पाया। अस्पृश्यों के लिए उन्होंने गद्दा बनाने के कारखाने, बैंड बाजा दल, उपहार गृह शुरु किया। कई अंतरजातीय विवाह संपन्न करवाए। सावरकर भक्त भागोजी कीर द्वारा निर्मित पतित-पावन मंदिर में अस्पृश्यों को न सिर्फ प्रवेश बल्कि गर्भगृह में जाकर पूजा करने का सम्मान दिलाया गया।

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