Bhagavad Gita: मन के संताप- भगवद्गीतानुसार कारण एवं निवारण

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-विजय सिंगल

Bhagavad Gita: भगवद्गीता में उन विभिन्न बुराइयों पर विस्तार से चर्चा की गई है जो मन की पीड़ा का कारण बनती हैं। यह भी विश्लेषण किया गया है कि ये कष्ट क्यों उत्पन्न होते हैं और इन्हें कैसे दूर किया जा सकता है।

भगवान कृष्ण ने काम, क्रोध और लोभ की उन तीन दोषों के रूप में पहचान की है जो किसी व्यक्ति के पतन का कारण बनते हैं। अतः श्लोक संख्या 16.21 में इन्हें नरक के तीन प्रवेश द्वार कहा है। साथ ही उन्होंने चेताया है कि मन के ये तीनों दोष आत्मा को पतन की ओर ले जाते हैं और इसलिए इन से दूर ही रहना चाहिए।

एतैर्विमुक्त: कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नर: |
आचरत्यात्मन: श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ||22||

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अगले श्लोक में अर्थात श्लोक संख्या 16.22 में उन्होंने पुनः इन दोषों पर काबू पाने की आवश्यकता पर बल दिया है। इसमें कहा गया है कि जो नरक के इन तीन द्वारों से मुक्त हो जाता है, वह वही करता है जो उसके लिए कल्याणकारी होता है; और इस प्रकार परम गति को प्राप्त करता है। दोष क्यों और कैसे उत्पन्न होते हैं, इसके बारे में श्लोक 2.62 और 2.63 में बताया गया है कि इन्द्रियविषयों का चिन्तन करने से उनमें आसक्ति उत्पन्न होती है। आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है और कामना की पूर्ति न होने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से मूढ़ता व उससे मतिभ्रम पैदा होता है । फलस्वरूप विवेक बुद्धि का नाश होता है। विवेक बुद्धि के नाश से व्यक्ति का पतन हो जाता है।

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इन दोनों श्लोकों में मानव मन की कार्यप्रणाली का बहुत ही सटीक विश्लेषण किया गया है। किसी वस्तु से मिलने वाले सुख या दुख के अनुरूप , उस वस्तु के प्रति मन में रुचि या अरुचि पैदा हो जाती है। स्पष्टत: , वस्तु से यहाँ मतलब है कोई भी ऐसा व्यक्ति या परिस्थिति जो संबंधित इंद्रियों और मन को प्रभावित करती हो ।

ऐसी पसंद या नापसंद (राग या द्वेष) आसक्ति को और फिर इच्छा को जन्म देती है – उस वस्तु को पाने या उससे छुटकारा पाने की इच्छा । इच्छा में कई बुराइयों को जन्म देने की क्षमता होती है। जब यह हद से बाहर , स्वार्थयुक्त , अनुचित और नितांत अनियंत्रित हो जाती है तब यह विकृत होकर वासना में परिवर्तित हो जाती है। वासना स्वयं को कई रूपों में प्रकट करती है – बेलगाम यौन की अति लालसा, धन की लालसा, शारीरिक आवेग, सामाजिक प्रतिष्ठा की
भूख और सत्ता की लालसा आदि।

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अधूरी इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है और इच्छा के पूर्ण होने पर लोभ विकसित होता है । क्रोध से बहका हुआ व्यक्ति वास्तविकता से संपर्क खो देता है और अपने और अपनी स्थिति के बारे में गलत धारणा बना लेता है। इस प्रकार भ्रम हो जाने से अपनी वस्तुस्थिति के बारे में उसकी याददाश्त चली जाती है यानी क्रोध के क्षणों में व्यक्ति पिछले अनुभवों से सीखे हुए सबक को भूल जाता है। इस प्रकार, व्यक्ति विवेक खो बैठता है अर्थात सही और गलत के बीच भेद करने में विफल रहता है। बुद्धि का ऐसा नाश व्यक्ति के पतन का कारण बनता है। जैसा कि उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट है, यहाँ वर्णित तीनों विकार एक ही स्रोत से उत्पन्न हुए हैं यानी राग-द्वेष और उनसे उत्पन्न इच्छाएं । राग-द्वेष और उनसे जन्मीं इच्छाएँ , यद्यपि ये सब बुराइयों की जड़ हैं , तथापि वे स्वयं में बुरी नहीं हैं । समस्या तभी पैदा होती है जब व्यक्ति उनसे बहक जाता है ।

अर्जुन उवाच |
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष: |
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित: || 36||

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा |
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च || 39||

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श्लोक संख्या 3.36 से 3.39 तक, वासना से होने वाली क्षतियों का विस्तार से वर्णन किया गया है। अर्जुन द्वारा यह पूछे जाने पर कि वह क्या है जो मनुष्य को अपनी इच्छा के विरुद्ध भी , मानो बलपूर्वक , पाप करने के लिए प्रेरित करता है ; कृष्ण ने उत्तर दिया कि वासना के कारण ही पाप होता है। वासना रजोगुण (रजस गुण) से उत्पन्न होती है और बाद में क्रोध के रूप में प्रकट होती है। यह मनुष्य की सर्वनाशक और सबसे दुष्ट और पापी शत्रु है। वासना बुद्धिमानों की बुद्धि को ढँक लेती है। यह उनकी सदैव शत्रु है क्योंकि आग की तरह, इसकी भूख अतृप्त है।

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते |
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् || 40||

एवं बुद्धे: परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना |
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् || 43||

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संख्या 3.40 से 3.43 तक के श्लोकों में कामवासना के निवास और इसे वश में करने के तरीकों के बारे में चर्चा की गई है। कहा गया है कि वासना इन्द्रियों, मन और बुद्धि में निवास करती है। उनके माध्यम से, यह ज्ञान को धूमिल करके जीवात्मा को भ्रमित करती है। नतीजतन, व्यक्ति वासना का गुलाम बन जाता है और उसे संतुष्ट करने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता है। वासना के बंधन को तोड़ने के लिए, व्यक्ति (देहधारी जीवात्मा) को इच्छाओं के प्रति अनासक्ति की भावना रखनी चाहिए और इंद्रियों को वासना का गुलाम नहीं बनने देना चाहिए। इंद्रियों को शुरू से ही नियंत्रण में रखा जाना चाहिए।

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दूसरे शब्दों में, व्यक्ति को हमेशा सतर्क रहना चाहिए और अपनी बुद्धि को वासना के बहकावे में नहीं आने देना चाहिए। कृष्ण ने काम, क्रोध और लोभ को नरक के तीन द्वारों की संज्ञा इसलिए दी है क्योंकि उनमें इसी प्रकार के अन्य अनेक दोषों को उत्पन्न करने की क्षमता है। वे मवाद भरे घाव की तरह मन में सड़ते रहते हैं और वहाँ अन्य विकारों के पनपने के लिए एक उर्वरा भूमि तैयार करते हैं। अज्ञान, भय, दंभ , मिथ्या अहंकार, पाखंड, शंकालु स्वभाव, अत्यधिक गर्व , चिंता, द्वेष , ईर्ष्या , दुर्भावना , दूसरों के प्रति शत्रुभाव और निष्ठुरता आदि कुछ अन्य क्लेश हैं जिनकी पहचान भगवद गीता के विभिन्न श्लोकों में की गई है। वे मन को किसी न किसी तरह से कष्ट देते रहते हैं ।

शक्नोतीहैव य: सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् |
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्त: स सुखी नर: || 23||

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श्लोक संख्या 5.23 में भी मन के क्लेशों को वश में करने की महत्ता पर बल दिया गया है जिसमें कहा गया है कि शरीर त्यागने से पहले अर्थात् इसी जीवन में जो व्यक्ति कामवासना एवं क्रोध के वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है , वह योगी है और केवल वही सुखी मनुष्य है। हालाँकि इस श्लोक में केवल काम और क्रोध का उल्लेख किया गया है परंतु यह बात स्पष्ट रूप से सभी विकारों पर लागू होती है। संक्षेप में, कोई व्यक्ति जितना अधिक बुराइयों के चंगुल से मुक्त होता है, उतना ही वह निर्मल होता है और उतना ही आंतरिक शांति को महसूस करने में सक्षम होता है।

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