Bhagavad Gita: भगवद्गीता की सार्वभौमिकता

गीता तत्व ज्ञान की सतही धारा तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि यह तो आध्यात्मिक ज्ञान का विशाल समुद्र है।

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-विजय सिंगल

Bhagavad Gita: उदारवादिता और समावेशी भावना भगवद्गीता की विशेषताओं में से एक प्रमुख विशेषता है। इसमें घोषणा की गई है कि विभिन्न तरीकों से जो अभिव्यक्त, प्राप्त या अनुभव की गई है , वह परम सत्ता वस्तुतः एक ही है। सभी मान्यताएं और पद्धतियाँ एक ही सत्य की ओर ले जाती हैं । हालांकि अलग-अलग लोग अलग-अलग दिशाओं से पहाड़ पर चढ़ सकते हैं, लेकिन शिखर से देखने पर सभी के लिए एक जैसा दृश्य होता है। परम सत्य हर जगह एक जैसा है।

गीता तत्व ज्ञान की सतही धारा तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि यह तो आध्यात्मिक ज्ञान का विशाल समुद्र है। यह मनुष्य को सभी धार्मिक संप्रदायों के सिद्धांतों की भूल-भुलैया के बीच से निकालकर उनकी मूल भावना को सामने लाती है ; जो एक ही है ,और वह है – परम सत्य को जानने और उस सत्य के साथ अपने संबंध को समझने की इच्छा । गीता के उपदेश सभी मनुष्यों पर समान रूप से लागू होते हैं । परमेश्वर श्रीकृष्ण ने घोषणा की है कि:

“ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्तमानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः”

‘लोग जिस किसी भी मार्ग से मेरे पास आते हैं, मैं उन्हें स्वीकार करता हूं। हर कोई , किसी न किसी रूप में, केवल मेरे ही मार्ग का अनुसरण कर रहा है’ (श्लोक संख्या 4.11)।

यह श्लोक सबको साथ लेकर चलने की गीता दर्शन की प्रवृत्ति को प्रदर्शित करता है; अर्थात् ईश्वर केवल एक ही है, जिसे विभिन्न पद्धतियों से पूजा जा सकता है। सभी मनुष्य हर तरह से एक ही परमात्मा के मार्ग का अनुसरण करते हैं। हर कोई ईश्वर के व्यक्तिगत रूप या अव्यक्त परम सत्ता को समझने का प्रयास करता है – हर कोई एक ही परमात्मा को याद करता है ; फिर चाहे वह देवताओं को प्रसन्न करने के लिए विधि-विधान से उनका आह्वान करता हो, चाहे वह अपने इष्ट पवित्र रूप का ध्यान करता हो, चाहे वह अपने समस्त कर्मों का फल भगवान् को समर्पित करके उनकी सेवा करता हो या चाहे वह किसी भी अन्य रूप में परमेश्वर के सम्मुख स्वयं को समर्पित करता हो । जब भी कोई पूजा की जाती है, जिस भी रूप में की जाती है, वस्तुतः उसी एक परमात्मा की पूजा होती है।

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विभिन्न लोग , विभिन्न तरीकों से , भगवान के विभिन्न रूपों की आराधना करते हैं। वे उसे विभिन्न रूपों में देखते हैं। लेकिन जो महत्वपूर्ण है वह रूप नहीं है बल्कि उस रूप के पीछे की सच्चाई जानने की आंतरिक इच्छा है। जिस मूर्ति की हम पूजा करते हैं, वह व्यक्ति को अपने वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार कराने में सहायता मात्र करती है। जब तक पूजा की विषयवस्तु किसी के ध्यान को दृढ़ता से स्थिर रखने में सक्षम है, तब तक वह ईश्वरीय अभिव्यक्ति है। मन की दृढ़ता और स्थिरता एवं भक्ति की एकनिष्ठता देवता के नाम और रूप या पूजा पद्धति से अधिक महत्वपूर्ण है।

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अलग-अलग लोग अपने सहज झुकाव के अनुसार, अलग-अलग तरह से ईश्वर को समझते हैं; और उसी के अनुसार उसकी शरण लेते हैं । भगवान प्रत्येक आकांक्षी को प्रेमपूर्वक स्वीकार करते हैं, और उसकी प्रकृति और आकांक्षा के अनुसार आगे बढ़ने में उसकी सहायता करते हैं। वे किसी की उपेक्षा नहीं करते क्योंकि हर कोई , जाने-अनजाने , प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, उन्हीं के बताए मार्ग पर चल रहा होता है। ईश्वर सबको प्रत्युत्तर देते हैं ।

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दुनिया परमेश्वर रचित प्राकृतिक नियमों द्वारा शासित है। चूंकि ये नियम सार्वभौमिक रूप से सभी के लिए समान रूप से लागू होते हैं, भगवान किसी के प्रति पक्षपाती नहीं होते हैं। वे सभी प्राणियों के लिए समान हैं। वे सुनिश्चित करते हैं कि जीवन में हर किसी को उसका उचित हिस्सा मिले।

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ईश्वर सबके उद्धारक हैं । साधक जिस भाव से उनके पास आता है, वे उसी रूप में उसे ग्रहण करते हैं और आशीर्वाद देते हैं। दूसरे शब्दों में, कोई जिस रूप में भगवान की पूजा करता है, वे उसी के अनुसार उसे फल देते हैं । कर्म फल की लालसा रखने वालों को वे समुचित फल देते हैं, निःस्वार्थ भाव से कर्म करने वालों को वे आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते हैं; और अपने अनन्य भक्तों को वे विशुद्ध दिव्य आनंद प्रदान करते हैं। जो ज्ञानी हैं और मुक्ति की कामना करते हैं उन्हें वे मुक्ति प्रदान करते हैं । जो ईश्वर की अव्यक्त और शाश्वत प्रकृति को पहचानते हैं; एवं पूरी तरह से और बिना शर्त अन्तः स्थित आत्मा को समर्पण करते हैं – वे निरपेक्षता के आनंद को प्राप्त करते हैं अर्थात वे चिरस्थायी सत्य, सर्वव्यापी चेतना और अनन्य आनंद को प्राप्त करते हैं।

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संबंधित व्यक्तियों और समुदायों के आध्यात्मिक विकास के अनुसार उनकी परमेश्वर की धारणाएँ भिन्न होती हैं। जो लोग आध्यात्मिक रूप से अपरिपक्व हैं, वे स्वयं की आस्था के अलावा किसी भी पारलौकिक वास्तविकता को मानने पहचानने को तैयार नहीं हैं। उनका यह विश्वास कि केवल वे ही सत्य के एकमात्र अधिकारी हैं, उन्हें धार्मिक फरेब का शिकार बनाता है। वे अपनी हठधर्मिता की जंजीरों में बंधे रहते हैं।

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भगवद्गीता इस तरह की संकीर्ण विश्वदृष्टि का समर्थन नहीं करती है । दूसरी ओर, इसने संपूर्ण मानव जाति को ईश्वरत्व की एकता का संदेश दिया है। इसमें यह पुष्टि की गई है कि विभिन्न प्राणियों के बीच विभाजित दिखाई देता हुआ भी वस्तुतः वह परम ब्रह्म अविभाज्य है । वह ही समस्त प्राणियों का सृजनकर्त्ता, लनकर्त्ता ,संहारकर्त्ता एवं उनका पुनः नए सिरे से सृजन करने वाला है । सभी दिव्य अभिव्यक्तियाँ उसी की हैं। इस प्रकार एक ही ईश्वर सभी के द्वारा पूज्य है।

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निष्कर्ष
निष्कर्ष यह है कि जब किसी भी आध्यात्मिक साधन के माध्यम से एवं किसी भी दिव्य रूप में ईश्वर का आह्वान किया जाता है , वह उसी रूप के माध्यम से स्वयं को प्रकट करता है। पूजा का रूप और साधन नहीं बल्कि भक्ति की ईमानदारी महत्व रखती है। एक विकसित जीवात्मा विभिन्न विचारधाराओं और प्रथाओं में दिखने वाले अंतर के पीछे अंतर्निहित एकता को देख सकती है। इसलिए, वह दूसरों के पूज्य एवं पूजा पद्धति को हेय दृष्टि से नहीं देखती ।

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