Bhagavad Geeta: मानव जाति की एकता पर बल, समस्त जीवन की अखंडता के दर्शन

परम ब्रह्म (परमात्मा) का वर्णन करते हुए श्लोक संख्या 13.17 में कहा गया है कि अविभाज्य होते हुए भी परमात्मा भिन्न-भिन्न जीवों में विभाजित हुआ प्रतीत होता है। वह समस्त जीवों का पालन करने वाला, संहार करने वाला, और फिर से उत्पन्न करने वाला है।

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Bhagavad Geeta: भगवद् गीता में न केवल मानव जाति की एकता पर बल दिया गया है, बल्कि समस्त जीवन की अखंडता के दर्शन को भी प्रस्तुत किया गया है। सभी जीवों और वस्तुओं का आधार एक ही है।

परम ब्रह्म (परमात्मा) का वर्णन करते हुए श्लोक संख्या 13.17 में कहा गया है कि अविभाज्य होते हुए भी परमात्मा भिन्न-भिन्न जीवों में विभाजित हुआ प्रतीत होता है। वह समस्त जीवों का पालन करने वाला, संहार करने वाला, और फिर से उत्पन्न करने वाला है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सभी प्राणी परमात्मा में ही स्थित हैं। सभी उसी से उत्पन्न होते हैं और उसके द्वारा ही पोषित होते हैं और फिर अन्त में उसी में समा जाते हैं। उससे अलग किसी का कोई अस्तित्व नहीं हो सकला।

सभी प्राणियों की एकता ही सत्य
प्राणियों की बहुलता में विभाजित दिखने के बावजूद परमात्मा एक अभिन्न और अविभाजित वास्तविकता है। वह सभी जीवों का मूल तत्व है। इस प्रकार सभी प्राणियों की एकता ही सत्य है और दृश्यमान बहुलता उस शाश्वत सत्य की अभिव्यक्ति है।

 प्रत्येक जीव में परमात्मा
श्लोक संख्या 13.31 में जीवन प्रवाह की एकात्मता को फिर से दर्शाया गया है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब मनुष्य पृथक पृथक जीवों को एक ही (परमात्मा) में स्थित देखता है और उसी परमात्मा से ही सभी जीवों का विस्तार (सब और फैले हुए) देखता है, उस समय वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। दूसरे शब्दों में जब कोई व्यक्ति यह समझ जाता है कि परमात्मा प्रत्येक जीव में, जीवात्मा के रूप में, सदैव मौजूद रहता है तो वह परम पिता परमेश्वर के साथ एकाकार हो जाता है। तब वह परम सत्य के वास्तविक स्वरूप अर्थात् शाश्वत आनन्द का अनुभव करता है।

ईश्वर की दो प्रकार की प्रकृक्ति
7.4 से 7.6 तक के श्लोकों में सभी प्राणियों की उत्पत्ति और अन्त का विश्लेषण किया गया है। जैसा कि इन श्लोकों में वर्णित है, ईश्वर की दो प्रकार की प्रकृक्तियां होती हैं भौतिक प्रकृति और चेतन प्रकृति। प्रत्येक व्यक्ति इन दो स्वभावों में जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त होता है। ईश्वर की उपर्युक्त प्रकृति के अनुरूप प्रत्येक मनुष्य के जीवन के दो पहलू होते हैं – एक मन और शरीर तथा दूसरा आत्मा। यह दोनों ईश्वर से ही उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि सभी का स्त्रोत और गंतव्य एक ही है।

आत्मा मन और शरीर पर नियंत्रण प्राप्त करे
श्लोक संख्या 5.18 में भी जीवन की संपूर्ण धारा की समानता को स्पष्ट रूप से समझाया गया है। इसमें कहा गया है कि ज्ञानीजन एक वि‌द्वान और विनम्र ब्राह्मण, एक गाय एक हाथी एक कुत्ता या चाण्डाल को समान दृष्टि से देखते हैं। दूसरे शब्दों में, ज्ञान से संपन्न व्यक्ति यह जानता है कि सब प्राणियों की शाश्वत और अपरिवर्तनीय वास्तविकता एक ही
आत्मा के रूप में मनुष्य एक ऐसा विषय है, जो जीवन का अनुभव करता है, और मन एवं शरीर उसके अनुभव की वस्तुएं हैं। परमात्मा चाहता है कि आत्मा मन और शरीर पर नियंत्रण प्राप्त करे। वह चाहता है कि सभी को पूर्णता प्राप्त हो। यही कारण है कि उसने मनुष्य को अति गोपनीय आध्यात्मिक ज्ञान प्रकट किया है। साथ ही परमात्मा यह भी चाहता है कि मनुष्यउसे प्राप्त करने का प्रयास किसी भय या मजबूरी से नहीं बल्कि अपनी इच्छा से करे। मनुष्य को परमात्मा के साथ एक होना चाहिए और उस एकता को प्राप्त करने के लिए सदा प्रयास करते रहना चाहिए।

आत्मा, जीवात्मा और परमात्मा जैसी आध्यात्मिक अवधारणाओं पर विस्तार से चर्चा
श्रीकृष्ण के द्वारा घोषित ज्ञान को सभी रहस्यों से भी अधिक रहस्यमय क्यों कहा गया है? गीता में आत्मा, जीवात्मा और परमात्मा जैसी आध्यात्मिक अवधारणाओं पर विस्तार से चर्चा की गई है। यह भी बताया गया है कि मोक्ष कैसे प्राप्त किया जा सकता है। इतना गहरा जान प्रत्यक्ष बोध के माध्यम से प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसलिए इसे गोपनीय ज्ञान की संज्ञा दी गई है।

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दूर किया शतक
श्रीकृष्ण वो शिक्षक हैं जिन्होंने अपने शिष्य अर्जुन को जीवन के सभी सत्य विस्तारपूर्वक समझाये। उन्होंने उसे कोई भी प्रश्न पूछने या किसी भी संदेह को साझा करने से कभी नहीं रोका। उन्होंने धैर्य से उसकी बातें सुनी और हर एक सवाल का उत्तर दिया। एक-एक शक को भी दूर किया। इस प्रकार सर्वोच्च प्रभु ने मनुष्य को सबसे मूल्यवान ज्ञान प्रदान किया और उसे उस तरीके से पालन करने की अनुमति दी जिस तरह से वह ठीक समझे।

अन्त में, सभी को अपने तरीके से सच्चाई की तलाश करनी पड़ती है। इसलिए मनुष्य को सावधानी के साथ अपनी मुक्ति का रास्ता स्वयं चुनना चाहिए और दृढ़ विश्वास के साथ उस पथ पर चलना चाहिए।

विचार और कर्म की ऐसी स्वतंत्रता के कारण ही कहा जाता है कि भगवद् गीता के उपदेश बंधनकारी नहीं हैं। यह तो मुक्ति प्रदान करने वाले हैं।

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