विजय सिंगल
Bhagavad Gita: बुद्धि, न केवल सोचने की एक प्रक्रिया है बल्कि उस सोच के पीछे का औचित्य भी है। यह समझ और ज्ञान का केंद्र है।
“ इन्द्रियाँ महान कही गई हैं, किन्तु मन इन्द्रियों से बढ़कर है; और बुद्धि मन से बड़ी है । और जो बुद्धि से भी बड़ा है, वह स्वयं आत्मा है ।“ ( भगवद्गीता, श्लोक संख्या 3.42)
बुद्धि, इस प्रकार, एक ओर इंद्रियों और मन तथा दूसरी ओर आत्मा के बीच एक सेतु का काम करती है । जब बुद्धि द्वारा निर्देशित होने के बजाय, मन इंद्रियों का दास बन जाता है; व्यक्ति इंद्रियों की विषयवस्तुओं की लालसा से परिचालित होने लगता है। उसके कार्यकलाप ऐसी लालसाओं से निर्धारित होते हैं। अत: वह कर्मों के बंधन में बंधा हुआ होता है।
भगवद्गीता के श्लोक संख्या 2.39 से 2.53 में कृष्ण बताते हैं कि कैसे, बुद्धि योग के माध्यम से, व्यक्ति इस बंधन से खुद को मुक्त कर सकता है।
बुद्धि केवल अवधारणाओं को बनाने और कायम रखने की शक्ति नहीं है; बल्कि इसमें पहचानने, समझने, तर्क करने, न्याय और विवेक की शक्ति भी है।
आत्मा की चेतना से प्रकाशित होने पर, बुद्धि अज्ञान से मुक्त हो जाती है। इस प्रकार प्रकट हुआ ज्ञान व्यक्ति को अच्छे और बुरे के बीच, सही और गलत के बीच, सत्य और असत्य के बीच तथा आत्मा व अनात्मा के बीच भेद करने में सक्षम बनाता है ।
एक ओर अनुशासित बुद्धि वाले व्यक्ति का निश्चय दृढ़ और लक्ष्य स्पष्ट होता है दूसरी ओर अन्य व्यक्तियों के विचार बिखरे हुए और अंतहीन होते हैं। लक्ष्यप्राप्ति के लिए एकाग्रचित्तता एक महान गुण है।
केवल फल के लिए किया गया कार्य बुद्धि के अनुशासन में किए गए कार्य से बहुत हीन है। जो अपनी बुद्धि में स्थिर हो जाता है, वह इसी जीवन में अच्छाई और बुराई दोनों का परित्याग कर देता है। चूंकि उसने स्वार्थपरता पर विजय पा ली है , वह बुराई की ओर आकर्षित नहीं होता। वह नैतिक आचरण की एक ऐसी स्थिति तक पहुँच जाता है जो अच्छाई और बुराई दोनों से ऊपर उठ जाती है।
केवल यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि कोई क्या करता है बल्कि यह भी महत्वपूर्ण है कि वह कैसे करता है। किसी के कार्यों के पीछे की भावना भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितने कि उसके कार्य ।
जिन बुद्धिमानों ने अपनी बुद्धि को परमात्मा के साथ जोड़ दिया है, वे अपने कर्मों के फल को त्याग कर बार-बार के जन्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। इस प्रकार वे उस आनंदमय अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं जो किसी भी दु:ख से परे है। जब किसी की बुद्धि भ्रम के गंदले पानी को पार कर जाती है, तो वह इस जीवन या अगले जीवन में भौतिक सुखों के प्रति उदासीन हो जाता है।
सतही ज्ञान रखने वाले व्यक्ति धार्मिक ग्रंथों के अलंकारिक शब्दों से अनुचित रूप से प्रभावित हो जाते हैं। भौतिक इच्छाओं में डूबे ऐसे लोग केवल अगले जन्म में स्वर्ग और अच्छे जीवन का लक्ष्य रखते हैं। वे हमेशा कर्मकांडों से बंधे रहते हैं। ऐसे लोगों की बुद्धि आत्मा में स्थापित नहीं होती है । वे अपना मन एकाग्रता से ईश्वर में नहीं लगा पाते ।
बुद्धि योग के अभ्यास से यह समझ में आता है कि जिसकी बुद्धि चेतना से प्रकाशित हो चुकी है, उसके लिए कर्मकांडों के पालन का बहुत महत्व नहीं है। वह शास्त्रों का मात्र अक्षरश: पालन करने के बजाय शास्त्रों की भावना का अनुसरण करता है। वह स्वार्थ से भरी सभी इच्छाओं को त्याग देता है और सच्ची भक्ति करते हुए एक त्यागी की तरह जीवन व्यतीत करता है।
वह कोई भी कार्य इस समझ के साथ करता है कि उसका केवल कर्म पर ही अधिकार है, उसके फलों पर कदापि नहीं। इसलिए, वह अपने कार्यों के परिणामों के प्रति आसक्त हुए बिना अपने निर्धारित कर्तव्य का पालन करता है।
जो व्यक्ति बुद्धि योग में इस प्रकार स्थापित है, उसके लिए पिछले कर्मों के आसन्न परिणाम निष्प्रभावी हो जाते हैं और वह व्यक्ति भविष्य के कर्मों के बंधन और उनके बाध्यकारी परिणामों से मुक्त हो जाता है। इस तरह से कर्म करने वाले की बुद्धि शुद्ध होकर आत्मा में स्थित रहती है। तब वह दिव्य चेतना को प्राप्त हो जाता है।अपने नियत कार्य में निरन्तर लगे रहते हुए भी उसका मन सदैव परमेश्वर में स्थित रहता है।
बुद्धि योग आत्म-साक्षात्कार के अन्य सभी मार्गों में पूर्णता प्राप्त करने का आधार है; क्योंकि जीवन के किसी भी क्षेत्र में उचित आत्म नियंत्रण और मन के पर्याप्त अनुशासन के बिना सफलता प्राप्त करना संभव नहीं है। कृष्ण ने आश्वासन दिया है कि आत्मोन्नति के इस पथ पर कोई प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाता है । इसमें कोई भी बाधा अधिक समय तक नहीं टिकती। इस मार्ग पर एक छोटा सा कदम भी बड़े बड़े खतरों से बचाता है। दूसरे शब्दों में, यदि कोई केवल कुछ समय के लिए भी योग का अभ्यास करता है और बाद में किसी भी कारण से इसे छोड़ देता है, तब भी वह इसके लाभों को प्राप्त करता है। इसके अलावा, ऐसे योग के अभ्यास से कभी भी कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है।
भगवद्गीता में कृष्ण ने सलाह दी है कि व्यक्ति को सुख और दु:ख जैसे सभी द्वैत भावों से मुक्त होना चाहिए, पवित्रता में दृढ़ता से स्थिर होना चाहिए तथा लाभ और सुरक्षा की चिंताओं से मुक्त होना चाहिए । इस विधि से वह भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों से ऊपर उठ सकता है और इस प्रकार आत्मा में स्थापित हो सकता है ।
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अंत में , जब कोई सहज रूप से अनायास ही बुद्धि योग के अनुशासन का पालन करता है, तो उसकी बुद्धि अधिक से अधिक प्रकाशित होती है और चेतना के उत्तरोत्तर उच्च स्तरों को छूती है। परिणामस्वरूप, अहंवादी वासना के बंधन टूट जाते हैं। व्यक्ति आत्मा को जान लेता है, जो कि उसका वास्तविक स्वरूप है। मिथ्या अहंकार विलीन हो जाता है और अलगाव की भावना लुप्त हो जाती है। समरसता की दृष्टि पैदा होती है जिसमें व्यक्ति एक को सभी में और सभी को एक में देखता है।
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