पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर (Former US Secretary of State Henry Kissinger) का गुरुवार (30 नवंबर) को 100 वर्ष की आयु में कनेक्टिकट (Connecticut) स्थित उनके आवास पर निधन (Dies) हो गया। हेनरी किसिंजर (Henry Kissinger) वैश्विक मामलों में प्रतिष्ठित शख्सियतों में से एक थे। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मामलों (Foreign Policy) पर कई किताबें लिखी हैं। हेनरी रिचर्ड निक्सन की सरकार में राज्य सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थे। वे दोनों पदों पर एक साथ रहे। कहा जाता है कि विदेश नीति में उनके जैसा कोई नहीं था। वियतनाम के साथ शांति समझौते में हेनरी का भी हाथ था। 2000 के दशक की शुरुआत में, किसिंजर ने इराक पर अमेरिकी हमले में जॉर्ज बुश सरकार का समर्थन किया था।
ऐसा कहा जाता है कि किसी भी अन्य अमेरिकी राष्ट्रपति की तुलना में उनका अमेरिकी विदेश नीति पर अधिक नियंत्रण था। जब वह 1938 में नाजी जर्मनी से भागकर एक यहूदी आप्रवासी के रूप में अमेरिका पहुंचे, तो वे बहुत कम अंग्रेजी बोलते थे, लेकिन उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इतिहास में महारत हासिल की और एक लेखक के रूप में अपने कौशल का इस्तेमाल किया। राजनीति में आने से पहले उन्होंने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाया था। उन्होंने वियतनाम युद्ध को ख़त्म करने और अमेरिकी सेना की वापसी में बड़ी भूमिका निभाई।
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विवादों से रहा है नाता
हेनरी किसिंजर कई बार विवादों से भी घिरे रहे। एक ओर जहां उन्हें एक शानदार राजनीतिज्ञ और कूटनीतिज्ञ के रूप में जाना जाता है। दूसरी ओर, उन पर आरोप लगाया गया कि बांग्लादेश के विभाजन के दौरान उन्होंने बांग्लादेशी लोगों के नरसंहार में पाकिस्तान का समर्थन किया था। उनके लिए कहा जाता है कि वे छोटे-छोटे देशों के नागरिकों का खून बहाकर ‘कुशल’ राजनयिक बने।
भारत-पाकिस्तान युद्ध में विवादास्पद भूमिका निभाई
1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान उनकी भूमिका काफी विवादास्पद थी। इस युद्ध के फलस्वरूप विश्व मानचित्र पर एक स्वतंत्र देश बांग्लादेश का उदय हुआ। 1971 के युद्ध के दौरान हेनरी किसिंजर अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थे। उनके सुझाव पर ही तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने भारत को डराने की कोशिश की थी। युद्ध शुरू होने से पहले जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी रिचर्ड निक्सन से मिलने और उन्हें हालात की जानकारी देने अमेरिका पहुंचीं तो उन्हें काफी देर तक इंतजार कराया गया। जब वह निक्सन से मिले तो उन्होंने बड़ी उदासीनता से जवाब दिया। इसके बाद इंदिरा गांधी ने तय कर लिया था कि अब जो भी करना होगा, भारत खुद करेगा।
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