इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैसला दिया है कि आपराधिक मामले में जांच के लिए अधिकतम अवधि 90 दिन की समाप्ति के बाद और आरोपपत्र दाखिल करने से पहले आरोपित अगर डिफॉल्ट (चूक) जमानत अर्जी दाखिल करता है तो उसे सुनवाई से इनकार नहीं किया जा सकता । आरोपित को सीआरपीसी की धारा 167(2) के तहत एक अपरिहार्य अधिकार मिलता है। कोर्ट ने इस मामले में मुख्य दंडाधिकारी प्रयागराज के आदेश को रद्द करते हुए याची की जमानत अर्जी को शर्तों के साथ स्वीकार करते हुए उसे रिहा करने का आदेश पारित किया।
इस मामले में सुनाया फैसला
-यह आदेश न्यायमूर्ति सैयद आफताब हुसैन रिजवी ने अनवर अली की याचिका को स्वीकार करते हुए दिया। मामले में याची के खिलाफ इलाहाबाद बैंक के मैनेजर रहे अनिल दोहरे से लूट और हत्या के आरोप में मऊआइमा थाने में पिछले साल 19 जुलाई को एफआईआर दर्ज कराई गई थी। विवेचना के दौरान याची का नाम सामने आया। उसने कोर्ट में समर्पण कर दिया। िसके बाद से वह जेल में है। पुलिस 25 नवंबर, 2021 को 90 दिन पूरे होने तक (न्यायिक रिमांड की पहली तारीख से) रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं कर सकी। इस पर याची ने मजिस्ट्रेट के समक्ष 27 नवंबर, 2021 को डिफाल्ट (चूक) जमानत अर्जी दाखिल की। अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने सहायक अभियोजन अधिकारी से रिपोर्ट मांगी। मामले में तब तक आरोप पत्र दाखिल नहीं किया जा सका था।
-न्यायालय के आदेश के बाद सहायक अभियोजन अधिकारी ने अपनी रिपोर्ट सौंपी। इसके बाद एक दूसरी रिपोर्ट प्रस्तुत की गई और इसी बीच एक आरोप पत्र दायर किया गया। इसे आधार बनाते हुए अदालत ने डिफॉल्ट जमानत के लिए याचिका को खारिज कर दी। याची ने अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के आदेश को हाईकोर्ट को चुनौती दी।
-कोर्ट ने विक्रमजीत सिंह बनाम सर्वोच्च न्यायालय के तीन जजों की बेंच के फैसले का हवाला दिया। इसमें यह आदेश पारित किया गया था कि धारा 167(2) के तहत यदि अभियोजन निर्धारित अवधि के भीतर आरोप पत्र दायर नहीं करता है तो आरोपी को इसका लाभ पाने का अधिकार है। कोर्ट ने न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन के नेतृत्व वाली पीठ के आदेश का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि धारा 167 (2) के पहले प्रावधान की शर्तों को पूरा करने के बाद एक आरोपित व्यक्ति को जमानत पर रिहा करने का मौलिक अधिकार है।
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