जम्मू-कश्मीर : जारी है गैरों पर रहम, अपनों पर सितम

अनुच्छेद 370 और 35 ए हटा लेकिन जम्मू-कश्मीर आज भी देश के दूसरे राज्यों के लोगों के लिए दूर का सपना ही है। यहां भूमि खरीदने के लिए 15 वर्ष का डोमिसाइल आवश्यक है। जो अनुच्छेद 370 पार्ट टू से कम नहीं है।

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राज्य को केंद्र शासित प्रदेश घोषित किये डेढ़ वर्ष से अधिक हो गया है। वहां से अनुच्छेद 370 और 35-ए हट गया है। लेकिन इसके बाद भी देश के दूसरे राज्यों के निवासी जम्मू-कश्मीर में भूमि नहीं खरीद सकते। वहीं रोहिंग्या आसानी से बस गए और फलफूल रहे हैं। जिनके लिए आंसू बहानेवाले फारुक अब्दुल्ला जैसे नेता भी खड़े हैं। इसी का दूसरा पक्ष ये है कि 31 वर्षों बाद भी कश्मीरी पंडितों को अपने घर लौटने का इंतजार है। उनका जख्म अब भी हरा है। इसलिए कहा गया है कि ये कश्मीरी नेताओं का गैरों पर रहम और अपनों पर सितम ही है।

5 अगस्त, 2019 को केंद्रीय गृहमंत्री ने भरी संसद में घोषित किया कि था अब जम्मू-कश्मीर को देश से अलग रखनेवाले अनुच्छेद 370 और 35-ए को खत्म कर दिया गया है। इससे अब देश का कोई भी नागरिक धरती के इस स्वर्ग पर भूमि खरीद सकेगा, व्यापारी यहां भूमि लेकर व्यापार कर सकेंगे। लेकिन धरातल की सच्चाई ये है कि अनुच्छेद 370 और 35-ए, हटा जरूर है लेकिन दूसरे राज्यों के नागरिक यहां अब भी भूमि नहीं खरीद सकते। जबकि वर्षों से वन की जमीनों पर कुंडली मारे बैठे रोहिंग्या का स्वागत किया जा रहा है और 90 के दशक से बेघर हुए कश्मीरी पंडित अब भी घर लौटने की आस लगाए बैठे हैं। ये तीन पक्ष हैं जिन पर एक-एक कर दृष्टि डालते हैं।

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भूमि खरीदने के लिए ये है नियम
जम्मू-कश्मीर में जमीन खरीदने के लिए 15 वर्ष का राज्य में स्थाई (डोमिसाइल) निवास होना आवश्यक है। ऐसी स्थिति में दूसरे राज्यों से लोग चाहकर भी भूमि नहीं खरीद सकते।

रोहिंग्या आराम से रह रहे…
जम्मू-कश्मीर में 1982 के बाद रोहिंग्या मुसलमानों का आगमन शुरू हुआ। म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के विरुद्ध अभियान ने उग्र रूप ले लिया तो वहां के ये मुसलमान भारत, बांग्लादेश, थाईलैंड पलायन करने लगे। जम्मू पहुंचे तो इन लोगों को नरवाल क्षेत्र में कैंप बनाकर बसाया गया। तब से ये यहीं जमे हुए हैं। इनकी आधिकारिक संख्या संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के अनुसार दस हजार ही है लेकिन वास्तविक संख्या चालीस हजार से बहुत अधिक है। जो देश के अलग-अलग हिस्सों में फैल गए हैं।

कश्मीरी पंडितों का बढ़ता इंतजार
14 सितंबर, 1989 को भाजपा नेता पंडित टीका लाल टपलू को सरेआम मार दिया गया। कश्मीरी पंडितों को भगाने की दिशा में चलाए गए अभियान में ये पहली हत्या ठहरी। इसके डेढ़ महीने बाद सेवानिवृत्त न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गई। ये हत्या इसलिए की गई क्योंकि न्यायाधीश नीलकंठ गंजू ने जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल बट्ट को मौत की सजा सुनाई थी। गंजू की पत्नी का अपहरण कर लिया गया, अधिवक्ता प्रेमनाथ भट को मार दिया गया। इसके बाद यह प्रताड़ना खुले तौर पर शुरू हो गई और 4 जनवरी, 1990 को उर्दू समाचार पत्र आफताब में हिज्बुल मुजाहिद्दीन ने सार्वजिनक घोषणा छपवाई कि सारे कश्मीरी पंडित घाटी छोड़ दें। चौराहों पर लाउड स्पीकर लगाकर ये घोषित किया गया। गिरजा टिक्कू का गैंगरेप और हत्या की गई। इसके बाद तो पंडितों के विरुद्ध ऑल आउट अभियान ही छेड़ दिया गया। सरकारी आंकड़ों के अनुसार साठ हजार कश्मीरी पंडित घाटी छोड़कर दूसरी जगहों पर शरण लेने को मजबूर हो गए। इसमें सबसे बड़ा पलायन 19 जनवरी, 1990 को हुआ। जब चार लाख कश्मीरी पंडित विस्थापित हो गए। इन पंडितों को अब भी घर लौटने का इंतजार है।

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रोहिंग्या पर राजनीति
कश्मीरी पंडित विस्थापित किये गए, मारे गए तो कांग्रेस, नेशनल कॉन्फ्रेन्स, पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के मुंह से बकार तक नहीं फूटी लेकिन रोहिंग्या मुसलमानों पर छोटी सी कार्रवाई पर फारुख अब्दुल्ला का दिल पसीजने लगा है। जबकि सरकारी कार्रवाई में मात्र 168 अवैध रोहिंग्या को डिटेंशन सेंटर में डाला गया है।

दो देश उनको दे दिये
भारत की स्वतंत्रता के साथ बंटवारा भी हो गया। पू्र्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान। पूर्वी पाकिस्तान ही 1970 की लड़ाई के बाद बांग्लादेश के रूप में स्वतंत्र हुआ। ये मुसलमानों के देश हैं। जहां अन्य जाति के लोगों को मार-मारकर निकाला गया। आज भी प्रताड़ना जारी है। भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने इसी का उल्लेख करते हुए कहा है कि, क्या भारत ने एक तिहाई देश मुस्लिमों को नहीं दे दिया।

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