– दीपक कैतके
आज 14 अप्रैल को भारतीय संविधान (Indian Constitution) के निर्माता डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर (Dr. Babasaheb Ambedkar) की जयंती (Birth Anniversary) है। यह दिन उनके अद्वितीय योगदान का स्मरण कराता है, साथ ही स्वातंत्र्यवीर सावरकर (Swatantra Veer Savarkar) जैसी महान हस्तियों के साथ उनकी सोच में समानता पर विचार करने का अवसर भी प्रदान करता है। सावरकर और आंबेडकर, दो महान नेता, अपने क्रांतिकारी विचारों और कार्यों के लिए भारतीय इतिहास (Indian History) में अमर हैं। यद्यपि उनके रास्ते और लक्ष्य अलग-अलग हैं, फिर भी राष्ट्रवाद, सामाजिक सुधार और मानवाधिकारों पर उनके विचारों में उल्लेखनीय समानताएं हैं। दिलचस्प बात यह है कि इन दोनों नेताओं को कांग्रेस पार्टी से लगातार विरोध और तिरस्कार सहना पड़ा, फिर भी उन्होंने बाधाओं को पार करके अपने लक्ष्य हासिल किए।
जहां वीर सावरकर ने सशस्त्र क्रांति के माध्यम से ब्रिटिश शासन को चुनौती दी, वहीं डॉ. आंबेडकर ने बौद्धिक और सामाजिक क्रांति के माध्यम से देश की प्रगति के लिए काम किया। सावरकर का ‘हिंदुत्व’ का विचार राष्ट्रीय एकता पर आधारित है, जबकि आंबेडकर ने जाति के बंधनों से मुक्त समाज का निर्माण करके एकजुट राष्ट्र का विचार प्रस्तुत किया। दोनों भारत को आत्मनिर्भर और शक्तिशाली राष्ट्र बनाना चाहते थे। हालांकि, कांग्रेस ने सावरकर को ‘कट्टरपंथी’ कहकर उनके स्वतंत्रता संग्राम को कमतर आंका, जबकि आंबेडकर को दलितों के नेता के रूप में सीमित करने की कोशिश की। कांग्रेस की इन दोहरी नीतियों के कारण दोनों नेताओं को अपनी लड़ाई अलग-अलग लड़नी पड़ी।
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सावरकर और आंबेडकर ने समाज की पुरानी प्रथाओं के खिलाफ दृढ़ता से लड़ाई लड़ी। सावरकर ने अस्पृश्यता उन्मूलन और हिंदू समाज में समानता के सिद्धांत के लिए अभियान चलाया। उनका ऐतिहासिक कार्य दलितों के लिए रत्नागिरी में पति पावन के पवित्र मंदिर में प्रवेश प्राप्त करना है। दूसरी ओर, आंबेडकर ने महाड में चावदार तल्या सत्याग्रह जैसे आंदोलनों के माध्यम से दलित समुदाय के उत्थान के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। दोनों का उद्देश्य सामाजिक असमानता को दूर करना था। हालांकि, इन दोनों नेताओं के सामाजिक सुधारों का समर्थन करने के बजाय, कांग्रेस ने उन्हें राजनीतिक रूप से फंसाने की कोशिश की, खासकर आंबेडकर को अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग में फंसाकर उन्हें अलग-थलत करने का प्रयास किया।
जहां वीर सावरकर ने अपने साहित्य और कार्यों के माध्यम से महिलाओं की स्वतंत्रता की वकालत की, वहीं आंबेडकर ने भारतीय संविधान में लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने वाले प्रावधानों के माध्यम से महिलाओं को समान अधिकार दिलाए। दोनों ने महिलाओं की सामाजिक स्थिति को ऊपर उठाने के महत्व पर प्रकाश डाला। इस मामले में भी कांग्रेस का रवैया दोहरा और पाखंडपूर्ण रहा, जिससे इन नेताओं को स्वतंत्र रूप से लड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा।
जहां सावरकर ने धार्मिक रूढ़ियों के विरुद्ध वैज्ञानिक दृष्टिकोण की वकालत की, वहीं आंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाते हुए तर्कसंगत और मानवतावादी विचार प्रस्तुत किए। दोनों ही अंधविश्वासों को समाज की प्रगति के लिए हानिकारक मानते थे। हालांकि, कांग्रेस ने धार्मिक और सामाजिक मानदंडों को बढ़ावा देने वाला रुख अपनाया, जिसका इन दोनों नेताओं ने विरोध किया।
बाबासाहेब आंबेडकर की जयंती के अवसर पर हम स्वातंत्र्यवीर सावरकर और आंबेडकर के कार्यों की जब समीक्षा करते हैं तो पाते हैं कि उनके विचार आज भी हमें सामाजिक समानता और राष्ट्रीय एकता की ओर मार्गदर्शन करते हैं। दोनों नेताओं ने कांग्रेस के विरोध के बावजूद समाज को प्रगति के पथ पर अग्रसर किया। आज के समय में जब सामाजिक और राजनीतिक चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं, उनके विचारों का अध्ययन और क्रियान्वयन और भी अधिक महत्वपूर्ण है।
सावरकर ने ‘हिंदुत्व’ के माध्यम से राष्ट्रीय एकता की अवधारणा प्रस्तावित की, जहां हिंदुओं और मुसलमानों को भारतीयता की छत्रछाया में एक साथ आना चाहिए। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा दिया, लेकिन मुस्लिम लीग की अलगाव की मांग का विरोध किया। उनका मानना था कि सभी भारतीयों को, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो, पहले भारतीय के रूप में एकजुट होना चाहिए। आंबेडकर ने अपने लेखन और भाषणों के माध्यम से समानता और भाईचारे की भी वकालत की। उन्होंने कहा, “पहले भारतीय, अंत में भारतीय, भारतीय से आगे कुछ भी नहीं।” उन्होंने इस्लाम के कुछ सामाजिक मानदंडों, जैसे पर्दा प्रथा और बहुविवाह की आलोचना की, लेकिन हिंदू और मुस्लिम समाजों में सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए सुधारों पर जोर दिया, जिससे एकीकृत समाज का निर्माण होगा। दोनों ने सांप्रदायिक भेदभाव को खत्म करके राष्ट्रीय एकता पर जोर दिया।
देश के विभाजन के मुद्दे पर स्वातंत्र्यवीर सावरकर और आंबेडकर के विचार कुछ हद तक पूरक थे। सावरकर ने मुस्लिम लीग की ‘पाकिस्तान’ की मांग का कड़ा विरोध किया और अखंड भारत की अवधारणा प्रस्तावित की। उनका तर्क था कि विभाजन से भारत की एकता और ताकत कमजोर हो जाएगी। आंबेडकर ने अपनी पुस्तक थॉट्स ऑन पाकिस्तान (1940) में मुस्लिम लीग की मांग का विश्लेषण किया। उन्होंने सीधे तौर पर विभाजन का समर्थन नहीं किया, लेकिन तर्क दिया कि यदि यह अपरिहार्य है, तो हिंदू और मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को स्पष्ट रूप से अलग कर दिया जाना चाहिए। उन्होंने सांप्रदायिक तनाव को कम करने के लिए पंजाब और बंगाल की सीमाओं के पुनर्गठन का सुझाव दिया। दोनों ने कांग्रेस की अस्पष्ट और पाखंडपूर्ण नीतियों की आलोचना की, जिसने अप्रत्यक्ष रूप से विभाजन को बढ़ावा दिया। आंबेडकर ने कहा कि जहां गांधीजी और कांग्रेस मुसलमानों के बारे में गोल-मोल बातें करते हैं, वहीं सावरकर के विचार स्पष्ट हैं।
हालांकि, सावरकर और आंबेडकर ने अलग-अलग क्षेत्रों में काम किया, लेकिन उनके लक्ष्य राष्ट्रीय एकता, सामाजिक समानता और मानव अधिकारों की सुरक्षा थे। कांग्रेस के लगातार विरोध के बावजूद वे अपने लक्ष्य पर अडिग रहे। आज उनकी समानताओं का अध्ययन समाज को प्रेरित करता है और साथ मिलकर आगे बढ़ने का संदेश देता है। (Veer Savarkar and Ambedkar)
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