सांसदों-विधायकों को मुकदमे से छूट वाले निर्णय की समीक्षा पर सर्वोच्च फैसला सुरक्षित, केंद्र सरकार ने रखा अपना पक्ष

सीता सोरेन 2012 में झारखंड विधानसभा में विधायक थीं। उस समय राज्यसभा चुनाव में मतदान के लिए कथित तौर पर रिश्वत लेने के लिए सीबीआई द्वारा मुकदमा चलाया जा रहा है।

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सर्वोच्च न्यायालय की सात सदस्यीय संविधान बेंच ने सांसदों और विधायकों के विशेषाधिकार से जुड़े एक अहम मामले पर सुनवाई करते हुए फैसला सुरक्षित रख लिया है। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संविधान बेंच ने फैसला सुरक्षित रखने का आदेश दिया।

सात जजों की बेंच में चीफ जस्टिस के अलावा जस्टिस एएस बोपन्ना, जस्टिस एमएम सुंदरेश, जस्टिस पीएस नरसिम्हा, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस मनोज मिश्रा हैं। सुनवाई के दौरान 5 अक्टूबर को केंद्र सरकार की ओर से अटार्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने कहा कि हम इस बात पर विचार कर रहे हैं कि निर्वाचित प्रतिनिधियों को कुछ सुरक्षा प्रदान करने वाले पूर्व के कानून से कैसे निपटा जाए। निर्वाचित प्रतिनिधि को बिना किसी बाधा या दबाव के विधायी कार्य करने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए।

सीजेआई ने की थी टिप्पणी
-चार अक्टूबर को सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस ने कहा था कि मान लीजिए कि किसी विधायक ने किसी विशेष मामले में वोट देने या भाषण देने के लिए रिश्वत ली है। कोर्ट उस वोट को अवैध नहीं कह सकता, क्योंकि यह रिश्वत लेकर दिया गया था। चीफ जस्टिस ने पूछा था कि मान लीजिए कि किसी व्यक्ति को रिश्वतखोरी के अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है। उस समय क्या अदालत कह सकती है कि उनके वोट को संसदीय बहुमत की गिनती से बाहर रखा जाना चाहिए। यह अभी भी वैध वोट है।

-सुनवाई के दौरान जस्टिस पीएस नरसिम्हा ने कहा था कि डाले गए वोटों या दिए गए भाषणों के संदर्भ में छूट का दायरा और सीमा के बीच हमें संवैधानिक मंशा को संतुलित करने की आवश्यकता है। चीफ जस्टिस ने पूछा था कि क्या हमें कानून के दुरुपयोग की आशंका पर राजनीतिक भ्रष्टाचार को छूट देनी चाहिए क्योंकि कानून के दुरुपयोग की आशंका हमेशा अदालत से सुरक्षा के लिए उत्तरदायी होती है।

-वरिष्ठ वकील राजू रामचंद्रन ने कहा था कि पीवी नरसिम्हा राव मामले में इस कोर्ट ने सावधानीपूर्वक विचार किया था और अब कोर्ट को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए क्योंकि यह फैसला संवैधानिक नैतिकता से अनभिज्ञ नहीं था और इस दृष्टिकोण को ख़ारिज करने का कोई आधार नहीं है। चीफ जस्टिस ने कहा था कि हमें उन मुद्दों पर नहीं जाना चाहिए जो हमारे सामने नहीं हैं। हम राजा रामपाल के फैसले आदि पर दोबारा गौर नहीं करेंगे। उन्होंने कहा कि आजादी हमारे संविधान का अनिवार्य हिस्सा है और इस पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता है।

-दरअसल, 1998 के पीवी नरसिम्हा राव मामले में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान बेंच ने सांसदों को मुकदमे से छूट दी थी, जबकि 2007 में राजा रामपाल के मामले में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान बेंच के दिए गए फैसले में संसद में प्रश्न पूछने के लिए पैसे लेने से जुड़े मामले में कहा था कि उन्हें सदन से स्थायी रूप से निष्कासित किया जा सकता है।

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-20 सितंबर को पांच जजों की संविधान बेंच ने इस मामले को विचार करने के लिए सात जजों की बेंच को रेफर किया था। कोर्ट ने सात जजों के पास भेजते हुए कहा था कि यह राजनीति की नैतिकता पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालने वाला एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। सुप्रीम कोर्ट ने 1998 के पीवी नरसिम्हा राव मामले में अपने फैसले पर फिर से विचार करने का फैसला किया।

-दरअसल, सीता सोरेन 2012 में झारखंड विधानसभा में विधायक थीं। उस समय राज्यसभा चुनाव में मतदान के लिए कथित तौर पर रिश्वत लेने के लिए सीबीआई द्वारा मुकदमा चलाया जा रहा है। उन पर एक राज्यसभा उम्मीदवार से उसके पक्ष में वोट डालने के लिए रिश्वत लेने का आरोप लगाया गया था लेकिन इसके बजाय उसने अपना वोट किसी अन्य उम्मीदवार के पक्ष में वोट डाल दिया। सीता सोरेन के ससुर और झामुमो नेता शिबू सोरेन को 1998 की संविधान पीठ के फैसले से बचा लिया गया था। जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि जिन सांसदों ने पैसे लेकर राव सरकार के पक्ष में मतदान किया था फिर भी उन्हें अभियोजन से छूट दी गई थी। हालांकि इसमें फैसला सुनाया गया था कि जिन लोगों ने झामुमो सांसदों को रिश्वत दी थी वो अभियोजन से नहीं बचे थे।

-सीता सोरेन ने अनुच्छेद 194(2) के तहत सुरक्षा का दावा किया है, जो अनुच्छेद 105(2) के समान है और राज्य के विधायकों पर लागू होता है। अनुच्छेद 105(2) के अनुसार संसद का कोई भी सदस्य संसद या उसकी किसी समिति में अपने द्वारा कही गई किसी बात या दिए गए वोट के संबंध में किसी भी अदालत में किसी भी कार्यवाही के लिए उत्तरदायी नहीं होगा और कोई भी व्यक्ति इसके संबंध में उत्तरदायी नहीं होगा।

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