यह एक आप बीती है जिसे पुणे के रहनेवाले कुमार गोखले ने अपने शब्दों में व्यक्त किया है। इसका मूल मराठी में है जिसे हिंदी में भाषांतरित किया गया है। इसमें कारगिल के जवानों के परिवारों को आर्थिक सहायता देने के लिए चंद्रकांत गोखले (स्वत: एक विख्यात अभिनेता और मराठी अभिनेता विक्रम गोखले के पिता) ने अपने पड़ोस में रहनेवाले कुमार गोखले से कुछ पैसे मांगे थे। वे एक लाख रुपए सेना के जवानों की सहायता निधि पर अर्पित करना चाहते थे, जिसमें 15 हजार रुपए कम पड़ रहे थे। चंद्रकांत गोखले जी अब नहीं रहे लेकिन उनके बारे में यह भी पता चला है कि वे एक समय ही भोजन करते थे और दूसरे समय के भोजन के पैसे को सैनिकों की सहायता निधि में दान कर देते थे। भाषांतर किया गया पत्र अब सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर वायरल हो रहा है।बिरले ही मिलते हैं ऐसे व्यक्तित्व जो देशभक्ति की मिसाल हैं…
ये बात २ अगस्त, १९९९ की है। मैं सुबह-सुबह किसी नाटक का आवश्यक कार्य कर रहा था। इतनें में एक कड़क ध्वनि में पुकार कानों में पड़ी।” कुमार, हो क्या घर में?”
दो मिनट में ही पड़ोस में रहनेवाले चंद्रकांत गोखले (बाबा) उपस्थित हो गए। मुझसे जल्दी में बोले, ” कुमार, एक आवश्यक काम था…! मुझे कारगिल जवानों के सहायतार्थ १,००,०००/- रुपए भेजने हैं, लेकिन १६,०००/- रुपए कम पड़ गए हैं। मुझे उधार मिलेगा क्या?”
मैं बोला, “बाबा, अभी मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं, लेकिन सायंकाल तक बैंक से निकालकर दूं तो चलेगा क्या?”
वे बोले, ” चलेगा, मैं आता हूं सायंकाल में, और प्रसन्न होकर घर चले गए।”
मैं सायंकाल में बैंक से १६,०००/- रुपए निकालकर तैयार रखा था…
सायं ४-४:३० बजे के आसपास बाबा फिर मेरे घर आए और बोले, “मेरे पास कहीं से ३,५००/- रुपए आने थे, वो अभी ही मिले हैं, इसलिए तुम मुझे मात्र १२,५००/- रुपए दो”
इसके पश्चात कपड़े की थैली में पड़े, व्यवस्थित घड़ी करके रखे पीले कागज मेरे हाथ में रखकर बोले, “ये कागज रहने दो तुम्हारे पास…”
मैं कौतुहल से कागज देखा, तो उनकी माताजी कमलाबाई के नाम पर बने ट्रस्ट के पुराने लेटर हेड पर, (सुबह जो १६,०००/- की रकम लेनी थी) मेरे पास से उधार ली गई रकम और उसे १९९९ के अंदर लौटाने की बात उन्होंने ‘लिखकर’ दी थी, इतना ही नहीं, तो, ‘मैं जीवित न रहा तो मेरा बेटा आपके पैसे लौटाएगा’ ऐसा भी लिखा था..!!!
अपने विचारों के अनुसार दो ‘रेवेन्यू स्टैंप’ लगाकर, उस पर हस्ताक्षर करके उन्होंने ‘प्रमाणित’ भी किया था।
मैंने कहा, “बाबा क्या आवश्यकता है इस कागज की? जब होगा तो पैसे दीजियेगा, लेकिन मैं यह कागज अपने पास नहीं रखूंगा!” तब आंखो में आंसू भरकर उहोंने विनतीपूर्वक उसे रखने के लिए मुझे मजबूर कर दिया।
तीन-चार दिन होते-होते, बाबा मेरे पास आए, और (दिसंबर का ‘वादा’ होने के बाद भी) झोले में से पैसे की गड्डी निकालकर मुझे देते हुए बोले,…
“अरे… योगायोग देखिये.. कल ही मुझे एक चित्रपट का काम मिला है, और उन्होंने मुझे एडवान्स भी दिया है… अब वो चिट्ठी लाओ, मेरे सामने फाड़ दो…”
मैंने कहा, “बिल्कुल फाड़ूंगा नहीं…! मेरी पूंजी है वो…!”
मैंने उसी कागज पर दिनांक लिखकर आभारपूर्वक उधारी वापस मिलने की बात लिख दी, और (मेरे ‘ना’ कहने के बाद भी बाबा द्वारा लाया गया) वो कागज संभालकर रख लिया।
हमारे इस लेनदेन की जानकारी हो सकता है विक्रम गोखले को न हो… (मैंने भी अभी तक नहीं बताया… लेकिन अब बता देना चाहिए)