मीडियाकर्मियों के लिए शर्मनाक!

कहने को तो देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डॉक्टर-स्वास्थ्यकर्मी, पुलिस और सफाईकर्मियों के साथ ही पत्रकारों को भी कोरोना वॉरियर्स (कोरोना वीर) की उपाधि दे दी, लेकिन सच्चाई यह है कि इस काल में पत्रकारों के नाम पर सिर्फ घोषणाएं हुईं, वास्तविक रुप में सरकार ने मीडिया के लिए एक पैसे का काम नहीं किया।

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पूरे देश के साथ ही महाराष्ट्र में भी कोरोना का कहर तो कम हो गया है लेकिन रोना अभी भी जारी है। क्या पता दिल्ली की तरह एक बार फिर मुंबई में भी इसकी दूसरी लहर का प्रकोप शुरू हो जाए और फिर स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाए! इस खतरे की शंका-आशंका के बीच देश के साथ ही आर्थिक राजधानी मुंबई में भी जिंदगी की गाड़ी पहले के मुकाबले थोड़ी पटरी पर लौटी है। लेकिन मार्च 2020 से शुरू हुआ अब तक का पूरा कोरोना काल मीडिया के लिए काफी मुश्किल भरा रहा है। इसके लिए जहां सरकारें दोषी हैं, वहीं खुद मीडियाकर्मी भी कम जिम्मेदार नहीं हैं।

मीडियाकर्मियों के लिए सिर्फ घोषणाबाजी
कहने को तो देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डॉक्टर-स्वास्थ्यकर्मी, पुलिस और सफाईकर्मियों के साथ ही पत्रकारों को भी कोरोना वॉरियर्स (कोरोना वीर) की उपाधि दे दी, लेकिन सच्चाई यह है कि इस काल में पत्रकारों के नाम पर सिर्फ घोषणाएं हुईं, वास्तविक रुप में सरकार ने मीडिया के लिए एक पैसे का काम नहीं किया।

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महाराष्ट्र में घोषणा 50 लाख की, मदद जीरो बट्टा सन्नाटा
महाराष्ट्र में राज्य के स्वास्थ्य मंत्री राजेश टोपे ने जून 2020 में कोरोना संक्रमण से जान गंवानेवाले पत्रकारों के परिजनों को 50 लाख रुपए देने की घोषणा की थी, लेकिन अबतक 43 पत्रकारों की इस महामारी से मौत हो चुकी है, मगर किसी के परिजनों को एक रुपया भी नहीं दिया गया। इस बारे में टेलिविजन जर्नलिस्ट असोसिएशन के विनोद जगदाले
कहते हैं, ‘हमने हर तरह से मृतक पत्रकारों के परिजनों को सरकार की घोषणा के अनुसार मदद दिलाने की कोशिश की, लेकिन महाविकास आघाड़ी सरकार के किसी भी मंत्री या नेता ने इस बारे में कोई कदम नहीं उठाया।

ये है सच्चाई
महाराष्ट्र में अधिस्वीकृति पत्रकारों की संख्या करीब 2,400 है। इनके आलावा राज्यभर के पत्रकारों के आंकड़े तो मौजूद नहीं हैं, लेकिन विनोद जगदाले के मुताबिक इनकी कुल संख्या 12 से 14 हजार के बीच ही होगी। इनमें से करीब 5 हजार पत्रकार मुंबई में कार्यरत हैं। इन पांच हजार पत्रकारों में से कुछ एक सौ ही अपने कार्यालय जाने-आने के लिए अपने वाहन का इस्तेमाल करते हैं, बाकी यहां की लाइफ लाइन कही जानेवाली लोकल ट्रेन से ही जाना-आना करते हैं। सरकार और रेलवे की मीडिया के प्रति असंवेदनशीलता का सबसे बड़ा प्रमाण यही है, अब तक अधिस्वीकृति धारक पत्रकारों को छोड़कर अन्य मीडियाकर्मियों को लोकल में यात्रा करने की अनुमति नहीं दी गई है। इस हालत में इनके सामने कितनी विकट समस्या हो सकती है, इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है।

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30 फीसदी मीडियाकर्मी बेरोजगार
कोरोना काल में पहले ही 30 प्रतिशत से ज्यादा पत्रकारों की नौकरियां जा चुकी हैं, दर्जन भर छोटे-बड़े मीडिया हाउस में ताला लग चुका है। मुंबई मिरर जैसा अंग्रेजी अखबार बंद हो चुका है। आने-जाने की विकट परेशानी की वजह से बाकी लोगों के लिए भी नौकरी करना काफी कठीन हो गया है। हर दिन ओला, उबर की गाड़ियों के इस्तेमाल करने की हैसियत तो शायद ही किसी मीडियाकर्म की हो।

लाखों को दिया, हजारों को मना कर दिया
सबसे बड़ी बात तो है कि स्कूल-कॉलेज बंद रहने के बावजूद शिक्षकों को लोकल में यात्रा करने की मंजूरी दी गई है। इनकी संख्या एक अनुमान के तहत 3 लाख से ज्यादा ही है। इसके साथ ही वकीलों को भी लोकल में यात्रा करने की मंजूरी दी जा चुकी है। इनकी संख्या भी तीन लाख से ज्यादा होने का अनुमान है। इसके आलवा निजी सुरक्षाकर्मियों को भी यात्रा करने की छूट है। ध्यान देनेवाली बात यह है कि महाराष्ट्र स्टेट सिक्यूरिटी कॉर्पोरेशन एक्ट 2010 के अनुसार मुंबई सहित महाराष्ट्र में कुछ ही कंपनियों को निजी सुरक्षाकर्मी उपलब्ध कराने के लाइसेंस प्राप्त हैं। लेकिन मुंबई में हजारों कंपनियां सुरक्षाकर्मी उपलब्ध कराने का काम करती हैं। क्या रेलवे या सरकार ने यह जांच कराया है कि जिन कंपनियों के आई कार्ड लेकर ये सुरक्षाकर्मी लोकल में यात्रा कर रहे हैं, वो कंपनियां वैध हैं या नहीं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि ऐसे सुरक्षाकर्मियो की संख्या लाखों में है।

लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की घोर उपेक्षा
अब तक मंत्रालय, महानगरपालिका, पुलिस मुख्यालय से लेकर पुलिस स्टेशनों और अन्य छोटे-बड़े सरकारी तथा निजी कार्यालयों- कार्यक्रमों में जिन मीडियाकर्मियों के प्रवेश को वरीयता दी जाती थी, उन्हें आज पूरी तरह से उपेक्षित किया जा रहा है। यहां सवाल यह है कि जब लाखों, शिक्षकों, वकीलों और सुरक्षाकर्मियों से लोकल में भीड़ नहीं बढ़ रही है तो कुछ हजार मीडियाकर्मियों को यात्रा करने से कितनी भीड़ बढ़ जाएगी? कोरोना से बचाव के दिशानिर्देशों के पालन में कितनी दिक्कतें आ जाएंगी? और क्या यात्रियों से खचाखच भरी बसों में लोगों के यात्रा करने से कोरोना के दिशानिर्देशों का उल्लंघन नहीं हो रहा है? इन सवालों के जवाब न सरकार के पास हैं, न रेलवे के पास। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की ऐसी उपेक्षा इससे पहले देश में इंदिरा गांधी के कार्यकाल में लागू किए गए आपातकाल के बाद शायद ही कभी हुई हो।

मीडियाकर्मियों के लिए शर्मनाक!
शर्म की बात तो ये है कि दूसरों की खबरें बनाने और छापनेवाले मीडियाकर्मी खुद की खबरें लिखना-छापना जरुरी नहीं समझ रहे। दूसरों के अधिकार की लड़ाई लड़नेवाले मीडियाकर्मी आज अपनी ही लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं। दूसरे की पीड़ा देखकर हर तरह की मदद को आतुर हो जानेवाले मीडियाकर्मी अपनी पीड़ा को ही प्रकट करने से कतरा रहे हैं।

हम आवाज उठाएंगेः बीजेपी विधयक राम कदम
हिंदुस्थान पोस्ट से बात करते हुए बीजेपी विधायक राम कदम ने इसके लिए राज्य की उद्धव सरकार की कड़ी आलोचना की है। उन्होंने कहा, ‘इस सरकार से किसी भी तरह की अपेक्षा करना बेकार है। मैं सभी पत्रकारों को लोकल ट्रेन में यात्रा करने की मंजूरी देने के लिए आवाज बुलंद करूंगा।’

 यात्रा की मंजूरी मिलनी चाहिएः कांग्रेस  विधायक भाई जगताप
पत्रकारों ने कोरोना काल में वॉरियर्स की तरह काम किया है। इसलिए सभी पत्रकारों को लोकल ट्रेनों में यात्रा करने की मंजूरी दी जानी चाहिए।

क्या कहता जर्नलिस्ट असोसिएशन?
इस बारे में टेलिविजन जर्नलिस्ट असोसिएशन के विनोद जगदाले से हिंदुस्थान पोस्ट ने बात की। उनका कहना है, ‘हमने मीडियाकर्मियों को लोकल में यात्रा की मंजूरी दिलाने के लिए पत्र व्यवहार से लेकर हर तरह की कोशिश की, लेकिन यह सरकार कुछ भी सुनने को तैयार नहीं है। सिर्फ अधिस्वीकृति धारक पत्रकारों को लोकल में यात्रा करने की मंजूरी दी गई है। इस वजह से अधिस्वीकृति धारक और अन्य पत्रकारों के बीच ही विवाद पैदा हो गया है। राज्य सरकार को जल्द से जल्द सभी पत्रकारों को लोकल में यात्रा की मंजूरी देनी चाहिए।’

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