देश के दूसरे राज्यों में मौजूद संवैधानिक रीति से अलग कदम बढ़ाते हुए पश्चिम बंगाल सरकार ने राज्य के सभी सरकारी विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के तौर पर राज्यपाल की जगह मुख्यमंत्री को नियुक्त करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। 5 जून को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की अध्यक्षता में हुई मंत्रिमंडल की बैठक में सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित किया गया है। अमूमन राज्य के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति राज्यपाल होते हैं जबकि केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति प्रधानमंत्री होते हैं।
पश्चिम बंगाल में राज्यपाल जगदीप धनखड़ और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की सरकार तथा उनके मंत्रियों-विधायकों के साथ पिछले कई सालों से लगातार चल रहे टकराव के बीच राज्य सरकार का यह फैसला बेहद अहम माना जा रहा है। इसके पहले शिक्षा मंत्री ब्रात्य बसु ने कहा था कि राज्य सरकार मुख्यमंत्री को विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के तौर पर नियुक्त करने की प्रक्रिया शुरू करने वाली है जिसे लेकर चौतरफा आलोचना हुई थी। शिक्षाविदों ने इसे संवैधानिक रीति के विपरीत फैसला करार दिया था। हालांकि इन तमाम आलोचनाओं को दरकिनार कर 5 जून को मंत्रिमंडल की बैठक में इस पर सहमति दे दी गई है। इसके अलावा इस बात पर भी सहमति बनी है कि मुख्यमंत्री राज्य के स्वास्थ्य, कृषि विश्वविद्यालय तथा प्राणी और मत्स्य विभाग के विश्वविद्यालयों की भी कुलाधिपति मुख्यमंत्री ही होंगी। बैठक में यह भी निर्णय लिया गया है कि निजी विश्वविद्यालयों के पर्वेक्षक राज्य के शिक्षा मंत्री होंगे।
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आसान नहीं होगा अमलीजामा पहनाना
हालांकि संवैधानिक विशेषज्ञों का कहना है कि मंत्रिमंडल की बैठक में सर्वसम्मति से इस पर प्रस्ताव पारित होने के बावजूद इसे अमलीजामा पहनाने में कई संवैधानिक प्रक्रियाओं से गुजरना होगा। मंत्रिमंडल की बैठक में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित होने के बाद अब इसे विधानसभा में बिल लाकर पास कराना होगा। इसे भी अंतिम सहमति के लिए राज्यपाल जगदीप धनखड़ के हस्ताक्षर की जरूरत पड़ेगी। यानी राज्य के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के तौर पर राज्यपाल को हटाने के लिए भी उन्हीं के हस्ताक्षर की जरूरत पड़ेगी इसलिए खबर है कि इसे अमलीजामा पहनाना आसान नहीं होगा।
अंतिम अनुमोदन के लिए राष्ट्रपति के पास भेजने की जरूरत
इसके पहले भी राज्यपाल ने विधानसभा से पारित हुए कई अधिनियमों को संवैधानिक खामी का जिक्र कर रोका है। दावा किया जा रहा है कि इसे भी रोका जा सकता है। हालांकि अगर राज्यपाल इसे सहमति नहीं देते हैं तब भी राज्य सरकार ऑर्डिनेंस जारी कर इसे जरूरी तौर पर लागू तो कर सकेगी। बहरहाल उस सूरत में यह नियम केवल छह महीने के लिए लागू रह पाएगा। उसके बाद फिर इसे राज्यपाल के पास ही अनुमोदन के लिए भेजना होगा। नियमानुसार राज्यपाल इसे दो बार सहमति नहीं देते हैं तो इसे अंतिम अनुमोदन के लिए राष्ट्रपति के पास भेजने की जरूरत पड़ेगी। इसलिए दावा किया जा रहा है कि मंत्रिमंडल के इस फैसले को मूर्त रूप लेने में काफी समय लग सकता है।