पुणे। कोरोना विकराल रूप लेता जा रहा है। पुणे के अस्पतालों में मरीजों की संख्या में बढ़ोतरी से अव्यवस्था फैल गई है। निजी अस्पतालोँ में पैसा होने के बावजूद जगह नहीं मिल रही है। इसी बीच एक दर्द भरी कहानी एक पीड़ित पत्रकार ने अपने फेसबुक पर शेयर की। जो सरकार द्वारा करोड़ो रुपए खर्च करके बनाए गए जम्बो कोविड केयर सेंटर की दु:खद सच्चाई बताती है। जम्बो कोविड केयर सेंटर में तड़पती जिंदगी की कहानी पीड़ित पत्रकार की जुबानी…
जम्बो केयर सेंटर ने तड़पाकर मारा… एक डरावना अनुभव
पुणे में कोविड सेंटर खुल जाने से कोरोना संक्रमित बड़ी उम्मीद से वहां जा रहे थे। इसी उम्मीद के साथ मैं अपने संबंधी को भर्ती कराने गया। वहां जाने पर भयानक सच्चाई सामने आई। इसके बारे में एक अल्प अनुभव दूसरे दिन फेसबुक और ट्विटर पर लिखा लेकिन तब तक समय निकल चुका था। मैंने अपनी आंखों से स्थितियां देखीं, परिस्थिति का आनुभव किया। जम्बो कोविड केयर सेंटर ने लोगों को तड़पाकर मारा… यही कहूंगा। पत्रकार पांडुरंग रायकर और मेरी रिश्तेदार रजनी खेडेकर को भोजन न मिलने से उनकी मौत हो गई।
30 अगस्त 2020
रिश्तेदार का फोन आया कमजोरी लग रही है। लेकिन सर्दी, खांसी, ठंडी, बुखार कुछ नहीं है। घर में छोटे बच्चे और महिलाओं को जांच कराने के लिए कहा गया। नायडू अस्पताल में जांच कराने पर रिपोर्ट पॉजिटिव आई। अस्पताल ने आगे के इलाज के लिए कोविड सेंटर में ले जाने की बात कही। कुछ समय बाद ही मैं जम्बो सेंटर पर पहुंच गया। एम्बुलेंस मरीजों के प्रवेश के स्थान पर जाकर रुकी और शुरू हुई यातनाभरी यात्रा।
30 अगस्त 2020 सायं 4 बजे
मरीज के हाथ से फॉर्म लेकर अस्पताल के अंदर गया। अंदर बड़ी आपाधापी थी। किसी को कुछ पता नहीं चल रहा था। मरीजों के रिश्तेदार एक खिड़की से दूसरी खिड़की पर दौड़ रहे थे। कोई कुछ बताने को तैयार नहीं था। ऐसा कहिये कि कोई वहां बताने के लिए था ही नहीं। काउंटर के पास कई कोरोना संक्रमित मरीज पड़े हुए थे। कुछ तड़प रहे थे तो कुछ हाथ-पैर पटक रहे थे। दो लोगों ने तो उपचार के पहले ही तड़प कर प्राण त्याग दिया। डेटा एंट्री करनेवालों को शब्द ही नहीं मिल रहे थे। करीब दो-ढाई घंटे की कड़ी मेहनत के बाद मरीज की प्रवेश प्रक्रिया पूरी हुई। तब तक हमारी मरीज एम्बुलेंस में ही बैठी थी।
एक चरण पार करने पर थोड़ा शांति मिली। अब मरीज को अंदर ले जाने की प्रक्रिया शुरू हुई। मरीज को अंदर ले जाने के लिए कोई नहीं था और ना तो कोई कुछ बताने को ही था। क्या करें कुछ भी नहीं समझ रहा था। पीपीई किट पहने एक शख्स को हाथ जोड़कर विनंती की, कृपा करके हमारे मरीज को अंदर लेकर जाओ बहुत देर से रुके हुए हैं। वे बोले मेरे साथ मरीज लेकर आओ आपको बेड बता देता हूं। मरीज के साथ चलकर वॉर्ड में गया। एक खाली बेड पर उन्हें आराम करने के लिए कहा और मैं बाहर आ गया। दूसरे मरीजों की स्थिति देखी नहीं जा रही थी, उन्हें देखनेवाला कोई नहीं था।
वॉर्ड से प्रसाधानालय कुछ दूर था। अब सवाल उठा कि मरीज जाएगा कैसे? खैर दूसरी कोई व्यवस्था होगी ये सोचकर विषय को वहीं छोड़ दिया। दूसरा प्रश्न आया, अस्पताल में प्रवेश देते समय मरीज की कोई जानकारी नहीं ली जैसे पहले की कोई बीमारी है वगैरह-वगैरह। लेकिन तीन घंटे की मेहनत से थक गया था। घर जाने का निर्णय लिया। बाहर बाउंसर रुकने नहीं दे रहे थे। तुरंत बाहर निकाल दिया। मरीज का अच्छे से इलाज होगा इस विश्वास के साथ घर आया। मरीज को सायंकाल में फोन किया तो पता चला कि भोजन निकृष्ट दर्जे का था। इसलिए कल सुबह नाश्ता और पहले की गोलियां लेकर भेजता हूं यह कहा दिया।
31 अगस्त 2020
मरीज से लगातार बात हो रही थी। यहां कोई ध्यान नहीं दे रहा है। प्रसाधनगृह बहुत दूर है। पानी पीने को नहीं है वगैरे उन्होंने बताया। इसलिए एक थैली में सेब, पहले की गोलियां और पानी लेकर कोविड सेंटर के द्वार पर रिश्तेदार गए। लेकिन वहां बाउंसर अंदर जाने नहीं दे रहा था। कुछ देर बाद जैसे-तैसे प्रवेश मिला तो काउंटर पर जाकर हमारे मरीज को ये थैली दे दें कहकर उन्हें थैली सौंप दिया। हमारा मरीज भूख-भूख, पानी-पानी कर रहा था। हर क्षण आवाज धीमी होती जा रही थी। दोपहर एक बजे तक फोन पर बात शुरू थी। तब तक उनके पास थैली ही नहीं पहुंची थी।
समय दोपहर 1:30 बजे
एक बजे मरीज ने अंतिम बार फोन रिसीव किया तब तक खाने को नहीं मिला था। डेढ़ बजे के बाद फोन लेना बंद कर दिया। हमने सोचा कि थैली में दिये गए सामान खाकर सो गई होंगी। लगातार फोन कर रहे थे लेकिन, फोन नहीं उठा रही थीं। रिश्तेदार फिर कोविड सेंटर गए लेकिन अंदर जाने नहीं दिया जा रहा था। परेशान होकर बाहर ही रुके रहे। क्या करें कुछ नहीं सूझ रहा था।
31 अगस्त 2020 सायं 7 बजे..
कोविड केयर सेंटर से फोन आया। आपके मरीज की स्थिति गंभीर है। हम सब घबरा गए। कुछ सूझ ही नहीं रहा था। तत्काल जम्बो केविड केयर सेंटर के लिेए निकल गए। फिर बाउंसर… उनसे बिनती की, हाथ जोड़े तब उसने प्रवेश दिया। हमारी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। जिस नंबर से फोन आया था उस पर फिर फोन किया पर वो लग नहीं रहा था। काउंटर पर गए तो वहां कोई जानकारी नहीं थी। कोई कुछ बताने को तैयार नहीं था। हाथ पैर ढीले पड़ रहे थे। कुछ देर में फिर फोन आया और पूछा गया कहां हैं। जगह बताने पर मिलने को बुलाया गया। डॉक्टर के पास गए तो उन्होंने मरीज के मौत की खबर दी। पैर के नीचे से जमीन ही खिसक गई। आंखों के समक्ष अंधेरा छा गया। हम सब गुम से गए। क्या करें कुछ सूझ ही नहीं रहा था। रोना-धोना शुरू हो गया। दोपहर तक बोल रही थीं, ऐसे कैसे जा सकती हैं यह प्रश्न कुरेदने लगा। लेकिन उत्तर नहीं था।
31 अगस्त 2020 रात 9 बजे
मरीज की मौत हो गई ये कहकर डॉक्टर आगे की प्रक्रिया करने को कहकर चल गए। लेकिन आगे क्या करना है कोई बताने को तैयार नहीं था। बाउंसर लगातार हटने को कह रह थे। एक तो मरीज की मौत हो गई दूसरे बाउंसर रुकने नहीं दे रहे थे। कोई जानकारी नहीं दे रहा था। कुछ समझ में नहीं आ रहा था। आखिरकार थोड़ी देर रुकें ऐसा कहा गया। एक कोने में बैठने के अलावा पर्याय ही नहीं था। दुख का पहाड़ लेकर वैसे ही बैठे रहे।
31 अगस्त 2020 रात 11 बजे
मुत्यू का पंजीयन पत्र लेने के लिए एडमिन विभाग के बाहर रुके थे। कोई आएगा ये सोचकर इंतजार कर रहे थे। लेकिन कोई आ ही नहीं रहा था। बेचैनी बढ़ती जा रही थी। कुछ देर बाद एक मरीज के रिश्तेदारों ने हो-हल्ला शुरू कर दिया। तोड़फोड़ की आवाजें आने लगी। वहां गए तो बड़ा हो-हल्ला शुरू था। उनका सवाल था हमारा अच्छा खासा मरीज कैसे चला गया। चलते फिरते मरीज की मृत्यु के कारण वे हो-हल्ला कर रहे थे। हमारे भी मरीज का यही हुआ।
31 अगस्त 2020 रात 2 बजे
इंतजार करते-करते थक गए थे। कोई कुछ बताने को तैयार नहीं था। आखिरकार हम भी एक बाउंसर पर भड़क गए। उसने कहा अधिकारियों को बुलाता हूं। इसके बाद एक महिला अधिकारी आई और मृत्यु का पंजीयन पत्र देती हूं बोली। अंदर जाने पर पता चला कि उस महिला को मृत्यु के पंजीयन के विषय में कुछ भी जानकारी नहीं है। लेकिन इसका कोई पर्याय नहीं था। उनके सामने सिर फोड़ लें ऐसा लगा। पहले के एक फॉर्म को देखकर वो एक-एक शब्द लिख रही था। उसकी अपेक्षा पहली-दूसरी कक्षा के बच्चे जल्दी से लिख लेते हैं। लेकिन क्या करें। डेढ़ घंटे बाद एक पन्ने का मृत्यु का पंजीयन पत्र उसने जैसे तैसे पूरा किया।
31 अगस्त 2020 रात 3:30 बजे
शव कहां से ले ये भी कोई नहीं बता रहा था। कुछ पता नहीं चल रहा था। मृतकों के परिजन यहां वहां भटक रहे थे। आखिरकार मेरे एक मित्र ने हिम्मत करके मरीज को खोजने का निर्णय लिया। उनकी किस्मत अच्छी थी कि उनके परिचय का एक शख्स मिल गया। लेकिन शव कौन सा है ये नहीं पता था। कुछ देर बाद उन्होंने शव ढूंढकर निकाला। उनके सामने ही प्राण निकले दोनों ने बताया। आखिकार सबेरे 5 बजे शव लेकर स्मशान भूमि के लिए निकले।
31 अगस्त 2020 सुबह 5:30 बजे
एक एंबुलेंस से शव स्मशान भूमि भेज दिया गया था। वहां जाने पर पंजीयन करानी पड़ती है। हमारे पहले भी नंबर लगे हुए थे। दोपहर एक बजे का समय दिया गया। दोपहर करीब 1*30 बजे अंतिम संस्कार हुआ और मरणयातना खत्म हुई।
जम्बो कोविड केयर सेंटर मत भेजो!
शव लेते समय एक कर्मचारी से जान पहचान हो गई थी। उसने पूछा कि क्या करते हो तो मैंने बताया पत्रकार हूं, तो उसने हाथ जोड़ लिया। वो बोला दादा, कुछ लिखो यहां आते समय मरीज चलकर आता है और दिया जाता है शव। देखा नहीं जाता। यहां कोई ध्यान नहीं देता। आपका मरीज तो गया ही लेकिन दूसरे मरीजों की जान बचाने के लिए जरूर लिखो। घर पर मर जाएं तो भी यहां मत आओ।
पत्रकार पांडुरंग रायकर और मेरी रिश्तेदार रजनी खेडकर की जान प्रशासन ने ले ली। अंत तक उन्हें खाने को नहीं दिया गया। ये ऐसी कैसी यंत्रणा है? मरीजों को उपचार नहीं मिलनेवाला था तो बनाया ही क्यों? कई प्रश्न हैं लेकिन उत्तर देगा भी कौन? और मिलेगा भी नहीं। आमजनों के आगे तड़पकर मरने के सिवा दूसरा पर्याय नहीं है….. हो सकता है बीमारों को कभी न्याय न मिले… लेकिन आगे आनेवाले तो ध्यान दें।
(पत्रकार संतोष धायबर की फेसबुक वॉल से… यह पुणे के पत्रकार संतोष धायबर की आपबीती है। इसमें उद्धृत सारी घटना उन्होंने खुद लिखी है)
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