पंजाब में शिरोमणि अकाली दल से अलग होने के बाद अब भारतीय जनता पार्टी के लिए यहां अपना वजूद बरकार रखते हुए सत्ता की कुर्सी तक पहुंचना बड़ी चुनौती है। प्रदेश में 2022 के शुरुआती महीने में ही होने वाले चुनाव में उसकी वहां स्थापित तीन बड़ी राजनैतिक पार्टियों से टक्कर होगी। इस स्थिति में भाजपा के लिए यहां अपने 8 प्रतिशत वोट को 30 प्रतिशत में बदलना काफी मुश्किल भरा काम होगा।
हालांकि भाजपा ने इसके लिए काफी पहले से ही तैयारी शुरू कर दी है। पार्टी ने पूर्व पीपीएस अधिकारी इकबाल सिंह ललपुरा को राष्ट्रीय प्रवक्ता बनाकर बहुत पहले ही यह संदेश दे दिया था कि आने वाले दिनों में पार्टी में सिखों को उच्च पदों पर आसीन किया जाएगा।
2017 में मात्र तीन सीटों पर मिली थी जीत
पंजाब के 2017 के चुनाव में सत्ताधारी गठबंधन के खिलाफ जबरदस्त हवा के चलते भाजपा 23 सीटों में से मात्र 3 सीट ही जीत पाई थी और उसका वोट बैंक पिछले चुनाव के 8 प्रतिशत से घटकर 5.4 प्रतिशत पर आ गया था। अब से पहले भाजपा 23 साल से 23 सीटों पर चुनाव लड़ती रही है। बाकी सीटें शिरोमणि अकाली दल के हिस्से में रहती थीं। लेकिन इस बार पूरा मैदान खाली है। तीन कृषि कानूनों को लेकर अकाली दल की सांसद हरसिमरत कौर बादल के केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने के बाद भाजपा और सैड में संबंध विच्छेद हो चुके हैं।
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25 साल बाद सपा और अकाली दल फिर साथ
अब शिरोमणि अकाली दल और बसपा 25 साल बाद फिर से साथ आ गई है। इस कारण भाजपा की मुश्किलें और बढ़ गई हैं। फिलहाल बसपा जिन सीटों पर चुनाव लड़ेगी, उनमें जालंधर, करतारपुर- पश्चिम, जालंधर-उत्तर, फगवाड़ा, होशियारपुर, अर्बन, दसूया, रुपनगर जिले में चमकौर साहिब, बस्सी पठानकोट में सुजानपुर, मोहाली, अमृतसर उत्तर और अमृतसर सेंट्रल शामिल हैं।
1996 में लोकसभा चुनाव में था गठबंधन
1996 में बसपा और सैड का गठबंधन सिर्फ एक साल चला था। इस साल बसपा सुप्रीमो कांशीराम ने होशियारपुर से चुनाव जीता था और 13 लोकसभा सीटों में से पर 11 गठबंधन की जीत हुई थी। इसके बाद सैड ने बसपा को छोड़कर 1997 में भाजपा से गठबंधन किया। यह गठबंधन 23 साल चला। प्रकश सिंह बादल ने तब भाजपा के साथ इसलिए गठजोड़ किया था, क्योकि उनकी इच्छा दिल्ली तक पार्टी का प्रभाव बढ़ाने की थी।
भाजपा की मजबूरी
पंजाब में कांग्रेस और अकाली दल स्थापित पार्टियां हैं। इनका वोटों का प्रतिशत काफी अधिक है। वहीं, आम आदमी पार्टी भी अपना आधार और संगठन जमीनी स्तर पर तैयार कर चुकी है। भाजपा इन तीनों में से किसी के साथ भी गठबंधन नहीं कर सकती। उसका अकाली दल से 25 साल पुराना गठबंधन टूट चुका है, जबकि कांग्रेस और भाजपा कभी भी एक साथ नहीं आ सकती।
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किसान आंदोलन का प्रभाव
पिछले करीब 7 महीनों से केंद्र की भाजपा सरकार के तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग को लेकर दिल्ली की सीमाओं पर तथा पंजाब-हरियाणा में आंदोलन कर रहे किसानों को कांग्रेस के साथ ही शिरोमणि अकाली दल का भी समर्थन प्राप्त है। इस स्थिति में किसान बहुल पंजाब में भाजपा के लिए 2022 के चुनाव की राह काफी मुश्किल भरी है।
भाजपा के लिए चुनौतियां
- पंजाब में कृषि कानूनों पर किसानों का विश्वास बहाल करना
- जीएसटी के बाद व्यापारी वर्ग खासा परेशान हैं और व्यापार काफी प्रभावित हुआ है
- पंजाब से उद्योग धंधों का पलायन पहाड़ी राज्यों में हो चुका है
- जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश को पैकेज मिलने का कारण पंजाब से उद्योगों का पलायन
- सिख चेहरों की कमी, अल्पसंख्यकों में भाजपा के प्रति विश्वास बढ़ाना बड़ी चुनौती