स्वातंत्र्यवीर सावरकर का जीवनकाल राष्ट्र और समाज के लिए समर्पित था। उन्होंने राष्ट्र स्वातंत्र्य के लिए जितना क्रांतिकार्य किया उतना ही समाज कार्य भी किया। नासिक में जन्मे वीर विनायक दामोदर सावरकर किशोरावस्था में ही भारत की स्वतंत्रता के लिए कार्य करने लगे थे। मित्र मेला की स्थापना उसकी पहली आधिकारिक सीढ़ी थी। इसी प्रकार स्वातंत्र्यवीर सावरकर के समाज कार्यों का निरूपण किया जाए तो, वह रत्नागिरी पर्व से प्रारंभ होता है। जिसके संदर्भ में आचार्य बालाराव सावरकर ने चार खंडों में विस्तृत प्रकाश डाला है।
रत्नागिरी पर्व
स्वातंत्र्यवीर सावरकर को पचास वर्षों की दोहरे कालापानी की सजा हुई थी। लेकिन, 2 मई 1921 में अंडमान से स्वातंत्र्यवीर सावरकर और उनके बंधु बाबाराव को वापस लाया गया। इसके बाद भी अंग्रेजों ने स्वातंत्र्यवीर सावरकर को कारागृह में बंदी बनाए रखा और इसका अंत हुआ रत्नागिरी में जहां उन्हे ब्रिटिशों ने कड़े नियमों को लागू करके स्थानबद्धता में रखा था। वीर सावरकर के स्वीय सहायक आचार्य बालाराव सावरकर चार खंडों में से पहले, रत्नागिरी पर्व में लिखते हैं कि, स्वातंत्र्यवीर सावरकर का कार्य इस काल में समाज सुधारक और उसमें भी मुख्यरूप से हिंदुओं के प्रति सुधार कार्यों को लेकर केंद्रित रहा लेकिन, इसका अर्थ यह कभी नहीं था कि, स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने इस्लामी या ईसाइयों पर ध्यान नहीं दिया। इसी समय स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने इस्लामी और ईसाई धर्म में परिवर्तित हिंदू शुद्धीकरण करके हिंदू धर्म को आत्मसात करें ऐसा भी प्रयत्न किया। राजनीति में भी वीर सावरकर गुप्त रूप से सहभाग लेते थे। इसलिए रत्नागिरी में स्वातंत्र्यवीर सावरकर को मात्र समाज सुधारक सावरकर कहना उचित नहीं है। स्वातंत्र्यवीर सावरकर के जीवन के वर्ष 1924 से 1937 के कालखण्ड को लेकर रत्नागिरी पर्व में विवरण है। जिसे ‘हिंदू समाज संरक्षक वीर सावरकर रत्नागिरी पर्व’ नाम दिया गया है।
हिंदू महासभा पर्व
आचार्य बालाराव सावरकर लिखित स्वातंत्र्यवीर सावरकर के जीवन कार्य का वर्ष 1937 से 1940 के काल का विवरण है, हिंदू महासभा पर्व। इस पुस्तक में स्वातंत्र्यवीर सावरकर द्वारा विभिन्न समाचार पत्रों में लिखित लेख, पत्रव्यवहार और संस्मरण हैं। इसमें स्वातंत्र्यवीर सावरकर की रत्नागिरी से मुक्ति के पश्चात के कार्यों का उल्लेख है। रत्नागिरी की स्थानबद्धता काल वर्ष 1923 में स्वातंत्र्यवीर सावरकर की प्रेरणा से बाबाराव सावरकर ने हिंदू महासभा की स्थापना कर दी थी। जब 10 मई 1937 को रत्नागिरी की स्थानबद्धता से मुक्ति मिली तो स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने हिंदू महासभा के अंतर्गत पंजाब से मद्रास और कराची से कलकत्ता की सौ से अधिक यात्राएं कीं। उस समय वीर सावरकर द्वारा दिए गए प्रबोधनकारी भाषणों, लेखों को आचार्य बालाराव सावरकर ने हिंदूमहासभा पर्व में सम्मिलित किया है।
इस खंड में स्वातंत्र्यवीर सावरकर के विचारों के नए सूत्र सामने आए। जिसमें, राजनीति का हिंदूकरण और हिंदुओं का सैनिकीकरण, सध्यानुकुल सहकार्य, आओगे तो तुम्हारे साथ और नहीं तो तुम्हारे बिना, यह सूत्र महत्वपूर्ण हैं। हिंदुओं के हितों के लिए स्वातंत्र्यवीर सावरकर के आदेशानुसार भागानगर के निजाम के विरुद्ध हिंदू महासभा और आर्य समाज के कार्यकर्ताओं द्वारा छेड़े गए युद्ध को भी प्रस्तुत किया गया है। स्वातंत्र्यवीर सावरकर के नेतृत्व में दूसरा युद्ध भागलपुर में छेड़ा गया। वहां पर ब्रिटिशों ने हिंदू महासभा के अधिवेशन पर बंदी लगा दी थी, जिसके कारण वीर सावरकर को एक सप्ताह का कारावास भुगतना पड़ा था।
इसी कालखंड में सुभाष चंद्र बोस ने स्वातंत्र्यवीर सावरकर से दो बार भेंट की थी, दूसरे विश्व युद्ध के बाद बदले वैश्विक परिदृश्य का उल्लेख और चले जाओ आंदोलन को क्यों वीर सावरकर, डॉ.बाबासाहेब आंबेडकर, हिंदू महासभा ने क्यों विरोध किया, यह सभी इस पर्व में बताया गया है।
अखंड हिंदुस्थान पर्व
इस पर्व में स्वातंत्र्यवीर सावरकर के वर्ष 1941 से वर्ष 1947 तक के कार्यों को लिया गया है। आचार्य बालाराव सावरकर ने इसमें वर्णित किया है कि, कैसे हिंदू महासभा का विस्तार हुआ तो उसके विरोधी भी बढ़ते गए। हिंदू महासभा में फूट डालने के लगातार प्रयत्न हुए, हिंदू महसभा को समाप्त करने के लगातार प्रयत्न हुए जिसमें, वीर सावरकर के अनुयायी फँस गए। कांग्रेस ने उन्हें सत्ता का झूठा लालच देकर कैसे फँसाया इसका भी वर्णन है। जर्मनी, जापान जैसे देशों की हार से भारतीय सैनिकों का अघोषित युद्ध भी फँस गया और वीर सावरकर के दल की 1945 में हार हो गई इस घटना को सम्मिलित किया गया है। इस पर्व में अति महत्वपूर्ण विवरण है, देश के विभाजन का। स्वातंत्र्यवीर सावरकर निरंतर विभाजन को लेकर चेतावनी देते रहे, लेकिन कांग्रेस ने उसकी सदा अनदेखी की और विभाजन को स्वीकार कर लिया, इसका दर्शन भी इस खंड में मिलेगा।
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सांगता (समाप्ति) पर्व
सांगता पर्व में स्वातंत्र्यवीर सावरकर के जीवन काल के वर्ष 1947 से वर्ष 1966 को दिया गया है। इस कालखंड में यद्यपि भारत स्वतंत्रता प्राप्त कर चुका था, लेकिन उस स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करने वाले स्वातंत्र्यवीर सावरकर के हिस्से उस समय भी षड्यंत्र ही आया। इस काल में स्वातंत्र्यवीर सावरकर के द्वारा किये जा रहे विभिन्न क्रांति कार्यों को विराम दिया जाने लगा था। इस खंड में आचार्य बालाराव सावरकर ने स्वातंत्र्यवीर सावरकर के साथ के अपने अनुभवों को शब्द बद्ध किया है। इस कालखंड में स्वातंत्र्यवीर सावरकर के राजनीतिक जीवन को समाप्त करने के लिए कैसे षड्यंत्र रचा गया, उन्हें झूठे प्रकरण में फँसाया गया और हिंदू महासभा जो देश में दूसरे क्रमांक का बड़ा दल था, उसे कांग्रेस के मार्ग से हटाया गया, इसका वर्णन है। सांगता का अर्थ होता है समाप्ति। वीर सावरकर के विरुद्ध चलाए गए विभिन्न षड्यंत्र असफल हो गए थे। बढ़ती आयु के कारण भी स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने अपनी अधिकांश योजनाओं को इस समय तक पूर्ण विराम देना शुरू कर दिया था और इसका अंत हुआ कि, उन्होंने अत्मार्पण के रूप में जीवन को पूर्णविराम दे दिया।