मार्सेलिस पराक्रम के 111 वर्ष…स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने विश्व पटल पर गुंजित कर दिया भारतीय स्वतंत्रता समर

स्वातंत्र्यवीर सावरकर एक अलौकिक व्यक्तित्व, सशस्त्र क्रांति के प्रेरणा श्रोत थे। वे देश की राजनीति में मार्गदर्शक सिद्ध हुए। पूर्व से चली आ रही रूढ़िवादी परंपरा, अंध श्रद्धा, अस्पृश्यता के विरोध में उन्होंने स्वर फूंका। अधुनिकिकरण, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, सैन्यकरण का उन्होंने सम्मान किया।

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स्वातंत्र्यवीर सावरकर का जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित था। उनके जीवनकाल में घटित प्रत्येक घटना ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में नया आयाम जोड़ा। ऐसा ही एक स्वर्णिम अध्याय है मार्सेलिस सागर में उनकी छलांग। अपने प्राणों की चिंता न करते हुए स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने सागर में छलांग लगाकर स्वातंत्रता प्राप्ति आंदोलन को वैश्विक पटल पर गुंजित कर दिया।

स्वातंत्र्यवीर सावरकर, राष्ट्र हेतु अपने जीवन के प्रति क्षण कार्य करते रहे। उनका सिद्धांत था जब शरीर में ऊर्जा है तो उसे राष्ट्र कार्य में झोंक दिया जाए, वह कारागृह में बंद होकर किस काम की। उनके इसी दृढ़ संकल्पों के कारण भारत को प्रथम राष्ट्र ध्वज मिला और उनकी योजना के अनुरूप 22 अगस्त, 1907 को इसे स्टुटगार्ड में मादाम कामा ने फहराया और पहली बार भारत के राष्ट्र ध्वज को वैश्विक पहचान मिली। जबकि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को वैश्विक पटल पर ले गई स्वातंत्र्यवीर सावरकर की फ्रांस के मार्सेलिस बंदरगाह पर जहाज से अथाह सागर मारी गई छलांग। यह घटना 8 जुलाई, 1910 की है।

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पराक्रम दिवस जो तीनों खण्ड में प्रसिद्ध हो गया
स्वातंत्र्यवीर सावरकर का विचार था कि अंग्रेजों के साथ दो-दो हाथ करने के लिए शस्त्र होना आवश्यक है। इस सच्चाई को आत्मसात करते हुए वीर सावरकर ने विदेश से बम बनाने की तकनीकी सीख ली। उस तकनीकी  और 20 ब्राऊनिंग पिस्तौल को उन्होंने भारत के क्रांतिकारियों तक पहुंचाने की योजना बनाई। इसे पुस्तक में छिपाकर चतुर्भुज अमीन के द्वारा उन्होंने भारत में भेजा। उसी में से एक पिस्तौल का उपयोग कर देश भक्त युवक अनंत कान्हेरे ने नाशिक के कलेक्टर जैक्सन को मौत के घाट उतार दिया। इस प्रकरण में अनंत कान्हेरे के साथ ही कृष्णाजी कर्वे और विनायक देशपांडे को फांसी की सजा दी गई। चूंकि, ये पिस्तौल वीर सावरकर ने भेजी थी, इस कारण लंदन में उन्हें पकड़ लिया गया और ब्रिक्स्टन की जेल में डाल दिया गया। उनके सहयोगी उनसे वहीं मिलने जाते थे। (इसी कारागृह में वीर सावरकर ने हृदयस्पर्शी पत्र और “माझे मृत्यु पत्र” नामक कविता की रचना की) उनके साथी चाहते थे कि इस मामले में उन पर लंदन में ही अभियोग चलाया जाए। इस बीच उन्होंने वीर सावरकर को कारागृह से भगाने की योजना भी बनाई, लेकिन इसमें वे असफल रहे। हालांकि, वीर सावरकर की योजना कुछ और थी। उन्होंने इतना ही कहा, “हिंदुस्थान की यात्रा में अलग-अलग बंदरगाहों पर जहाज रुकेगा।”… और इसी योजना के चलते पुलिस की पहरेदारी को चुनौती देते हुए 8 जुलाई, 1910 को मार्सेलिस बंदरगाह पर वे अथाह समुद्र में कूद पड़े। वे तैरते हुए फ्रांस के किनारे पहुंचे। लेकिन उनके साथी तब तक उन्हें लेने वहां पहुंच नहीं पाए और वीर सावरकर की यह योजना असफल साबित हुई। उनका मानना था कि फ्रांस की भूमि पर अंग्रेज उन्हें स्पर्श भी नहीं कर पाएंगे लेकिन उनकी यह सोच गलत साबित हुई और उन्हें पकड़ लिया गया।

अंग्रेजों का धोखा
स्वातंत्र्यवीर सावरकर का अनुमान था कि अंग्रेज उन्हें फ्रांस में गिरफ्तार नहीं कर पाएंगे। परंतु, अंग्रेजों ने फ्रांस पर दबाव डालकर अवैध रूप से गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद उस घटना को छिपाने की कोशिश भी की। जिसके बाद वीर सावरकर के साथियों ने फ्रांस की धरती पर वीर सावरकर को पकड़े जाने का मुद्दा उठाया और पूरे विश्व में इसे प्रचारित कर दिया। इसके बाद विश्व के कई समाचार पत्रों और राजनेताओं ने फ्रांस और इंग्लैंड की जमकर आलोचना की। अपनी बदनामी होते देख फ्रांस ने ब्रिटेन से वीर सावरकर की हिरासत की मांग की। दोनों देशों ने मिलकर सिर्फ दुनिया को दिखाने के लिए हेग के अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में मुकदमा चलाने का आदेश जारी किया। लेकिन वास्तव में अंग्रेजों को किसी भी कीमत पर वीर सावरकर को मुक्त नहीं करना था। इसीलिए उन्हें दो बार आजीवन कारावास यानी 50 साल के कालापानी की सजा सुनाई गई।

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