देश-दुनिया को कोरोना महामारी ने बुरी तरह प्रभावित किया है। प्रभावित सिर्फ अर्थव्यवस्था या लोगों की मौतों या अन्य तरह के नुकसान को लेकर नहीं, बल्कि परंपराओं और प्रथाओं को भी इससे बड़ी क्षति पहुंची है। कहा जा सकता है कि इस काल में जीवन जीने की पूरी शैली ही बदल गई है। ये बदलाव निश्चित रुप से मजबूरी है, लेकिन इसका लंबे समय तक प्रभाव पड़ने से इनकार नहीं किया जा सकता।
वास्तव में कोरोना ने लोगों के जीवन के उल्लास और उत्साह को काफी हद तक खत्म कर दिया है। शादी, ब्याह के साथ ही त्योहारों पर जिस तरह की बंदिशें लगाई गई हैं, उससे जिंदगी का प्रवाह रुक-सा गया है। लोग घरों में या जहां कहीं भी हों, कैद रहने पर मजबूर हैं। लोगों की ऐसी मजबूरी है कि वे बस हर परंपरा और त्योहारों को निपटा रहे हैं।
यादों में बसी शादी
हमारे दिलोदिमाग से ये बात लुप्त नहीं हुई है, हो भी नहीं सकती कि किसी घर में शादी होने पर किस तरह का उल्लास हुआ करता था। सिर्फ शादी वाले घर में ही नहीं, उस घर- परिवार से जुड़े तमाम सगे-संबंधियों के साथ ही दोस्त -यारों के घरों में भी उत्साह का वातावरण होता था। गांव में तो पूरे गांव के लोग ही उत्साहित रहते थे और वे शादी के रस्मों में बहुत ही खुशी से शामिल होते थे। शादी के रस्म कई दिनों तक चलते थे और लाउड स्पीकर पर महिलाओं के गीतों के साथ ही बैंड बाजों की धुन पर पूरा गांव थिरक उठता था। लोगों में गजब का उत्साह देखा जाता था। सगे-संबंधियों के साथ ही गांव के लोग भी शादी में शामिल होने के लिए नए कपड़े खरीदते थे और महीनों पहले से तैयारी करते थे।
ये भी पढ़ेंः मुंबई में चार महीनों में इतने बढ़ गए अपराध!
चुपके से गुजर गए त्योहार
यही हाल त्योहारों के समय भी रहता था। होली, दिवाली, गणेशोत्सव और नवरात्रि जैसे त्योहारों की धूम को भला कोई कैसे भूल सकता है। महीनों पहले से की जाने वाली तैयारी और लोगों का उल्लास कोरोना के कोहराम में गुम हो गया है। पिछले साल से ही त्योहार लॉकडाउन और तमाम तरह की पाबंदियों के भेंट चढ़ते आ रहे हैं। अब तो त्योहार चुपके से ऐसे निकल जाते हैं, जैसे कोई नाराज दोस्त घर के पास से चुपके से निकल जाता है। नवरात्रि के मौके पर नौ दिनों तक चलने वाले जश्न, डांडिया और गरबा नृत्य के साथ ही देवी मां को लेकर भक्ति भाव का उन्माद अब कहां देखने-सुनने को मिलेगा। पिछले दिनों होली आकर यों ही चला गया। अभी अक्षय तृतीया आकर चला गया, लेकिन सिर्फ उनके आने की आहट भर ही सुनाई दी। इन त्योहारों को भी लगता होगा कि पता नहीं लोगों को क्या हुआ है कि ये हमसे ऐसे विमुख हो गए हैं। पहले तो हमारे आवभगत में ये नाचने-गाने और झुमने लगते थे। इस बार नजर उठाकर देख भर लिया। उन्हें क्या पता कि इस धरती पर क्या चल रहा है और लोग किस तबाही से जूझ रहे हैं। यहां तो कोरोना का आंतक ऐसा छाया हुआ है कि लोग घरों में बंधक बने रहने को मजबूर हैं। लोगों के साथ ही त्योहारों को भी दूर से ही नमस्कार करने की बेबसी है।
ये भी पढ़ेंः कांग्रेस के राज्य सभा सांसद राजीव सातव का निधन, कोरोना का चल रहा था उपचार
कमजोर हो रहा परिवार का ताना-बाना
ऐसा भी नहीं है कि यह बदलाव सिर्फ सामाजिक तौर पर ही आया है। परिवार के ताने-बाने को भी इसने काफी नुकसान पहुंचाया है। कोरोना मरीजों के साथ ही उनके परिजनों के व्यवहार के कई ऐसे किस्से-कहानी देखने-सुनने और पढ़ने को मिलते रहते हैं, जिससे मन व्यथित और निराश हो जाता है। खास करके बुजुर्गों को लेकर आने वाली खबरें मन को झकझोर देनेवाली होती है। कई ऐसी घटनाएं देखी गईं, जिसमें परिवार के लोगों ने कोरोना रोगी बुजुर्गों को घर से बाहर अपने हाल पर छोड़ दिया, या फिर कोविड सेंटर या अस्पताल से घर लाने से ही मना कर दिया। ऐसे लोगों ने या तो सड़क पर दम तोड़ दिया, या फिर अस्पताल प्रबंधन ने उन्हें किसी वृद्धाश्रम में रहने का प्रबंध करा दिया, लेकिन इतनी अच्छी किस्मत सभी बुजुर्गों की तो नहीं हो सकती थी। कई लोग भीख मांगकर जीवन यापन करने पर भी मजबूर हो गए।
अपनों की ऐसी संदेनहीनता
कई ऐसी खबरें भी आईं, जब कोरोना मरीजों की मृत्यु हो जाने पर उसके परिजनों ने उनका अंतिम संस्कार करने से भी मना कर दिया। उनकी अर्थी को अपनों ने कंधा देने से भी मना कर दिया। ऐसे लोगों का पास-पड़ोस के लोगों ने अपनी सामाजिक जिम्मेदारी समझते हुए अंतिम संस्कार किया।
नदियों में फेंके जा रहे शवों के पीछे की कहानी
ये जो पिछले कुछ दिनों से गंगा-यमुना में लोगों के शव मिल रहे हैं, वे भी अपने सगे-संबधियों की संवेदनहीनता की कहानी कह रहे हैं। उनके अपनों ने जिंदा रहते हुए किस तरह का बर्ताव किया होगा, इस बारे में क्या कहा जा सकता है, लेकिन मरने के बाद उनका अंतिम संस्कार भी करने की जरुरत और जिम्मेदारी नहीं समझी तथा नदियों में बहाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली।
बदलने लगी हैं परंपराएं
कोराना की महामारी के बीच ऐसा नहीं है कि सब कुछ थम गया है और कुछ हो ही नहीं रहा है। हो तो सब रहा है, शादी-ब्याह से लेकर जन्म दिन और शादी की साल गिरह तक सभी मनाए जा रहे हैं, लेकिन बस तरीके बदल गए हैं। और इन तरीकों के बदलने की अपनी मजबूरी भी है।
दो घंटे में शादी
कई खबरें ऐसी आईं, कि दूल्हा अपने माता-पिता के साथ बाराती बनकर गए और शादी हो गई। अभी पिछले दिनों महाराष्ट्र में दो घंटे में शादी करने के नियम लागू करने का फरमान जारी करने की बात कही जा रही थी। जैसे शादी न हुई, हलवा हो गया। लेकिन सरकार और प्रशाशन की भी अपनी मजबूरी है। कई ऐसी शादियां देखी गईं, जो कोरोना का सुपरस्प्रेडर बन गईं। जन्म दिन पर जहां अड़ोस-पड़ोस के लोगों के साथ ही दोस्त-यार जमा होते थे और खूब मस्ती होती थी, वहीं अब सब लोग सोशल मीडिया पर ही बधाई देकर काम चला लेते हैं।
बदलाव की मजबूरी
इसके साथ ही कोरोना काल में जहां वर्क फ्रॉम होम की नई संस्कृति पैदा हुई है, वहीं पैसों का लेन-देन भी ऑनलाइन हो गया है। अब शॉपिंग भी घर बैठे ऑनलाइन होने लगी है, वहीं दोस्ती-यारी भी सोशल मीडिया तक सीमित रह गई है।
अन्य महत्वपूर्ण बदलाव
– काम करने की बदल गई संस्कृति, वर्क फ्रॉम होम का बढ़ गया जोर
– सिनेमा हॉल में तालाबंदी, ओटीटी प्लेटफॉर्म का जोर
– तकनीक का बढ़ गया उपयोग
– ऑनलाइन हो गई पढ़ाई-लिखाई
वक्त की बात
ये बदलाव वक्त की मांग है और इसमें किसी का कोई दोष नहीं है। सरकार, महानगरपालिका और अन्य प्रशासन द्वारा लागू किए गए प्रतिबंध मजबूरी में उठाए गए कदम हैं। दुनिया उम्मीद पर चलती है और हम भी यही उम्मीद करते हैं कि जल्द ही पुराने और अच्छे दिन लौट आएंगे। वक्त ही तो है, गुजर जाएगा। इसे अंग्रेजी में ऐसे कह सकते है, ‘इवेन दिस विल पास।’