6th January Swatantryaveer Savarkar Mukti Shatabdi varsh: “काल स्वयं मुझ से डरा है,मैं काल से नहीं!” वीर सावरकर

कालेपानी की काल कोठरियों में सलाखों के पीछे सावरकर ने जिन यातनाओं को झेला, उसके पीछे उनका एक ही मकसद था आजादी।

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-डॉ एन लक्ष्मी
“काल स्वयं मुझ से डरा है,
मैं काल से नहीं,
कालेपनी का कालकूट पीकर
काल से कराल स्तंभों को झकझोर कर
मैं बार-बार लौट आया हूं
और फिर भी मैं जीवित हूं
हारी मृत्यु है, मैं नहीं …….
एक सामान्य मनुष्य काल से, कालेपानी से या मृत्यु से डरता है। लेकिन कुछ योद्धा ऐसे भी होते हैं जो काल को हराकर, मृत्यु को जीतकर अमरत्व को प्राप्त कर लेते हैं और सदियों तक आवाम के मन में अपने होने की छाप छोड़ जाते हैं। भारत माता ने ऐसे न जाने कितने योद्धा पैदा किए हैं, विनायक दामोदर सावरकर उन्हीं  में से एक योद्धा है। क्रांतिवीर, आजादी के परवाने, मृत्यु को हराकर, काल को झकझोर कर लौट आने वाले भारत के अमर वीर- वीर सावरकर।
उपरोक्त दमदार पंक्तियों में कवि सावरकर ने अपनी दिलेरी, धैर्य, साहस और मृत्यु पर विजय पाने वाले एक साहसी वीर के रूप में अपना परिचय दिया है। ये पंक्तियां कवि के अंतरमन की अनुगूंज है, जिससे उनके व्यक्तित्व निखर उठता है। यातनाओं के मध्य रह-रहकर सावरकर मन से इतने मजबूत हो गए थे कि उन्हें मृत्यु का खौफ न होकर मृत्यु को हराने और एक बार नहीं बार-बार उठ खड़े होने की क्षमता रखने वाले वीर योद्धा बन गए थे। आजादी के लिए मर-मिटने को तैयार सावरकर ब्रिटिशों के लिए डेंजरस कैदी थे, इसलिए उन्हें दोहरे कारागार की सजा दी गई थी और जेल में इतनी यातनायें दी गई ताकि वे हारकर ब्रिटिश अफसरों के सामने घुटने टेक दें। लेकिन सावरकर ऐसे वटवृक्ष थे, जिसकी जड़ें जमीन में मजबूती से धंसी हुई थीं जिसे काटने या हिलाने आसान नहीं था। वे कीचड़ में खिलने वाले ऐसे कमल थे, जिन्होंने यातनाओं को घोलकर पी लिया था और उसी के बीच जीवन जीने की अद्भुत शक्ति संचित कर लिया था। ऐसी शक्ति जो सिर्फ स्वयं के लिए ही नहीं बल्कि यातनाओं में टूटने वाले हर उस क्रांतिकारी के लिए संजीवनी का काम करती थी। यही कारण था कि अंडमान की काल कोठरियों में उन्हें बिल्कुल अलग कोठारी में बंद कर रखा गया था ताकि वे किसी भी क्रांतिकारी को प्रेरित न कर पायें। लेकिन इस प्रयास में ब्रिटिश अफसर बार-बार विफल हो रहे थे, जिसके चलते सावरकर को अलग-अलग जेलों में रखना पड़ रहा था। सबसे अधिक समय के लिए सावरकर को काले पानी की सजा सुनाकर अंडमान के सेल्यूलर जेल की काल कोठरियों में रखा गया, एक नहीं, दो नहीं ……..पूरे दस साल!

स्वतंत्र भारत वीर सावरकर का था लक्ष्य
कालेपानी की काल कोठरियों में सलाखों के पीछे सावरकर ने जिन यातनाओं को झेला, उसके पीछे उनका एक ही मकसद था आजादी। आजाद भारत उनका लक्ष्य था। आज हम ऐसे आजाद भारत में सांस ले रहे हैं, जिसे पाने के लिए न जाने कितने सावरकारों ने बलिदान दिया है। उनके बलिदानों को हम देशवासी कम से कम याद करते रहें वहीं उनके चरणों पर अर्पित पुष्प होगा।

परिवार ने बचपन में ही बोया राष्ट्र प्रेम का बीज
वीर भूमि महाराष्ट्र के नासिक जिले का एक छोटा सा गांव भगूर में चितपावनवंशीय ब्राह्मण श्री दामोदर पंत सावरकर तथा  राधाबाई के सुपुत्र के रूप में 28 मई 1883 को विनायक दामोदर सावरकर का जन्म हुआ था। धर्म परायण परिवार के संस्कार वैसे ही सावरकर को मिली थी, साथ ही उनके अंदर राष्ट्र-प्रेम के बीज बोने का कार्य भी परिवार में ही हुआ था। स्वर्णिम भारत का अतीत और वर्तमान गुलामी की दुर्दशा दोनों ही परिस्थितियों से उनका साक्षात्कार बचपन में ही हो गया था जो आगे चलकर एक वटवृक्ष का रूप धारण कर रहा था। आपनी ओजस्वी वाणी और भाषण ने उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी थी। अंग्रेजों के विरुद्ध उनकी वाणी मुखरित और मजबूत होने लगी थी। किसी भी मूल्य पर भारत को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त कराना उनका एक मात्र लक्ष्य बनता जा रहा था।

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लंदन से क्रांतिकारी दौर की शुरुआत
लोकमान्य तिलक जी के परामर्श में 9 जून 1906 को सावरकर इंग्लैंड के लिए रवाना हुए। उन दिनों भारत की स्वाधीनता के प्रयास देशभक्त भारतीयों द्वारा विदेशों में भी चल रहा था। इंग्लैंड में यही कार्य श्यामजी कृष्ण वर्मा कर रहे थे। वे इंडियन सोशियालजिस्ट के माध्यम से इंडियन हाउस का संचालन किया जाता था। यहीं से सावरकर के जीवन में  क्रांतिकारी दौर का श्रीगणेश हुआ। 1857 का स्वातंत्र्य समर नामक किताब को सावरकर ने 1908 में मराठी में लिखा था और बाद में इसके एक महत्वपूर्ण परिच्छेद को अंग्रेजी में अनुवाद करके ‘फ्री इंडिया सोसाइटी’ की सभा में सुनाया था। ब्रिटिश गुप्तचरों को इस किताब की भनक लग गई थी और उसे जब्त करने का आदेश हुआ था क्योंकि इस किताब ने क्रांतिकारियों के मध्य सशस्त्र क्रांति का बीज बोया था। ब्रिटिश अफसर उनके पीछे हाथ धोकर पड़ गए। फलस्वरूप उनके बड़े भ्राता को पहले गिरफ्तार कर लिया गया था कि वे देशभक्तिपूर्ण साहित्य का प्रकाशन कर रहे हैं।

डर गई ब्रिटिश सरकार
13 मार्च 1910 को लंदन के विक्टोरिया स्टेशन पर सावरकर को बंदी बना लिया गया था। ब्रिटिश सरकार उन्हें कड़ी-से-कड़ी सजा देना चाहती थी, जिससे भारतीय युवक भयभीत हो जाएं और कोई भी सावरकर जैसा बनने का साहस न करें। 29 जून 1910 को तत्कालीन होम सेक्रेटरी विंस्टन चर्चिल ने अपने मोरिया जलयान से सावरकर को भारत भेजने का आदेश जारी किया। लंदन से चलते हुए भी सावरकर ने अपनी ओजस्वी वाणी से देशभक्तों के मन में धैर्य और आत्म बलिदान का बीज बोने का साहस किया था। शक्तिशाली सावरकर को और किसी रूप में कमजोर नहीं किया जा सकता था, इसलिए जब उन पर मुकदमा चला तो 31 जनवरी 1911 को उन्हें पचास वर्ष का कालापानी का दंड दिया गया। न्यायालय के इस निर्णय को सुनकर सावरकर जी ने एक साथी से कहा था- “ताप बलिदान एवं त्याग से ही स्वातंत्र्य लक्ष्मी प्रसन्न होगी। भारतीयों को अब अपना सर्वस्व मातृभूमि के चरणों में निछावर कर देना चाहिए तभी अंग्रेजी साम्राज्य को ध्वस्त करने में सफल होंगे।”

अंग्रेजों के लिए डेंजरस थे सावरकर
इस सजा के बाद सावरकर को कैदी के कपड़े पहनने पड़े। उनकी कैदी संख्या थी 32778; इस संख्या के साथ D भी अंकित था, D अर्थात डेंजरस। उस समय सावरकर की आयु थी 27 वर्ष आठ महीने और तीन दिन। उन्होंने भारतीय युवकों को काव्यात्मक संदेश दिया-“ही माता! हम छोटे बालक तेरे चरणों की वंदना करते हैं। तेरे अनगिनत ऋण हैं- तू ने हमें जन्म दिया, पाला-पोसा, पढ़ा-लिखाकर बड़ा किया, ऋण से मुक्त होने के लिए हम बलिवेदी पर अपना जीवन अर्पित करते हैं और फिर जन्म लेंगे, फिर समर्पण करेंगे यह प्रतिज्ञा करते हैं। निरंतर कोशिश कर, तेरे बंधन अवश्य तोड़ेंगे और हिमालय की सबसे ऊंची छोटी पर भगवा ध्वज फहराएंगे।“ आजन्म कारावास की सजा सुनकर पूरे देश में क्षोभ की लहर दौड़ गई थी।

डोंगरी जेल का जीवन था काफी कठिन
अंडमान भेजने से पहले उन्हें डोंगरी जेल में रखा गया था और यहां उन्हें रस्सी कूटने का काम दिया गया था। उनसे सब कुछ छीन लिया गया था, यहां तक कि लेखन सामग्री भी। सावरकर ने निश्चय कर लिया था कि अब जो कुछ उनके मन में पंक्ति बनेगी वे उसे कंठस्थ कर रात को पत्थर के सहारे दीवारों पर लिखते थे। फिर उन्हें भायखला जेल में रखा गया जो निर्जन और एकाकी था। यहां उन्हें अकेलेपन महसूस होने लगा था क्योंकि दूसरे कैदियों की आवाज तक नहीं सुनाई पड़ती थी। पढ़ने के लिए उन्हें पुस्तकें और दूध दी जाती थी, भायखला में उसे भी बंद कर दिया गया था। फिर उन्हें ठाणे जेल में रखा गया। उन पर मानसिक दबाव डालने के लिए उन्हें बदनाम मुस्लिम कैदियों को उनकी कोठरी के बाहर निगरानी पर लगा दिया गया। भोजन में अधपके बाजरे की रोटी और सब्जी के नाम पर खट्टा आचार या चटनी दी जाती थी। शारीरिक और मानसिक यातनाएं एक साथ उन्हें दी जाने लगी थीं। ठाणे के कारागृह से सावरकर जी को अन्य कैदियों के साथ कालापानी की सजा भुगतने हेतु अंडमान भेजे जाने की तैयारी चल रही थी।

कालापानी से निकल भागना था मुश्किल
कालापानी, अर्थात अंडमान निकोबार दीपों की राजधानी पोर्ट ब्लेयर में 1906 में निर्मित सेलुलर जेल जिसका निर्माण ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों को कैद रखने के लिए बनाई गई थी, जो मुख्य भूमि से हजारों किलोमीटर दूर स्थित थी, सागर के मध्य जंगल से घिरे इन द्वीपों से बचकर निकल पाना असंभव था। कालापानी शब्द अंडमान के बंदी उपनिवेश के लिए देश निकाला देने का पर्याय था। कालापानी यानि स्वतंत्रता सेनानियों और उनकी अनकही यातनाओं और तकलीफों का दौर। सेलुलर जेल के साथ पंखे थे बीच में एक टावर चौराहे के रूप में कार्य करता था। साइकिल के पहिये की तीलियों की तरह जेल बना हुआ था। सात पंखों में तीन मंजिलें थीं। कुल 696 कोठरियां थीं, जेल का दीवार ऐसा बना हुआ था कि एक दूसरे का चेहरा देखना संभव नहीं था। एकांत कारावास था। जेल की कोठरियों के ताले इस तरह बने थे कि कैदी कभी भी ताले की कुंडी तक नहीं पहुंच पाता। ब्रिटिश सरकार नहीं चाहती थी कि कोई भी राजनीतिक या क्रांतिकारी कैदी न ही एक दूसरे से मिले और न ही एक दूसरे से प्रेरित हों। इसी सोच ने सेलुलर जेल को जन्म दिया था।

लिखी ‘मेरा आजीवन कारावास’ पुस्तक
सावरकर जे के अज्ञातवास जीवन अर्थात कालकोठरी की चार दीवारी के बीच उनका जीवन सिमटता जा रहा था लेकिन उनका बौद्धिक मननशील मन विकसित होता जा रहा था जिसे किसी भी बेडी या बंधन से बांधना मुमकिन नहीं था। ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें कैद में तो रखा था लेकिन उनके अनुयायी एवं भक्तों को उनसे प्रभावित होते नहीं रोक पा रहे थे। इसलिए मुख्यभूमि से कोसों दूर स्थित सेलुलर जेल में उन्हें भेजने की तैयारी होने लगी थी। सावरकर जी ने “मेरा आजीवन कारावास” शीर्षक एक किताब लिखी है, जिसका हिंदी अनुवाद श्री अशोक कौशिक जी ने किया है। इसका प्रकाशन सूर्य भारती प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा अगस्त 2000 में किया गया। सावरकर जी ने अपने कारावास जीवन के अनुभवों को इस किताब में अभिव्यक्त किया है।

(लेखिका महात्मा गांधी राजकीय महाविद्यालय,मायाबंदर- मध्योत्तर अंडमान में हिंदी की असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)

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