स्वातंत्र्यवीर सावरकर 140वीं जयंती: वीर सावरकर का जीवन: दो अंतिमों का द्वंद युद्ध

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स्वातंत्र्यवीर सावरकर

लेखक: चिरायु पंडित (सह लेखक – वीर सावरकर: द मैन हु कुड हेव प्रिवेंटेड पार्टीशन)
इतिहास की जटिल कड़ियां
आओ! पहना दो हथकड़ियां
बीतेगी यह भी घड़ियां
हथकड़ियां बनेंगी फुलझड़ियां
– वीर सावरकर

स्वातंत्र्यवीर सावरकर के हिंदुत्व और नेताजी सुभाषचंद्र बोस के पराक्रम विषय पर जवाहरलाल नेहरू राजकीय महाविद्यालय अंडमान द्वारा पिछले अगस्त में नेशनल सेमिनार आयोजित किया गया था। डॉ.कंडीमुथु, डॉ.संतोष झा, डॉ.शर्मा, डॉ.वेंकटेशन आदि प्राध्यापकों और छात्रों ने इस आयोजन को सफल बनाया। इस आयोजन में सहभागी होने के लिए पहली बार अंडमान की तीर्थ भूमि पर जाना हुआ था। कालापानी की भूमि पर उतरकर ऐसी अनुभूति हुई जैसे केवल स्थल ही नहीं काल भी बदल गया। मैं यहां फ्लाइंग मशीन के सफर से नहीं बल्कि टाइम मशीन से आ पहुंचा हूं। विमान स्थल पर वीर सावरकर का नाम देखकर सावरकर की उपरोक्त पंक्तियों को साकार होते हुए देखा।

कारागार काल का अनुभव
सावरकर स्वयं अपने कारावास के संस्मरण में लिखते हैं कि “मेरा जीवन परस्पर विरुद्ध आघातों और प्रत्याघातों की समर भूमि बन चुका है”। एक ओर वीर सावरकर को गाली गलौच करके नीचा दिखानेवाले लोग हैं, तो दूसरी ओर उनको सिर पर बिठाकर, दिल खोलकर चाहने वालों की भी कोई कमी नहीं है। सावरकर स्वयं अपने कारावास के संस्मरण में लिखते हैं कि “मेरा जीवन परस्पर विरुद्ध आघातों और प्रत्याघातों की समर भूमि बन चुका है”।

पोर्ट ब्लेयर के दो जेलर
कालापानी नाम से कुख्यात सेल्युलर जेल कोई सामान्य कारागार नहीं था। यहाँ जीवित रहना मरने से भी अधिक दुखदायी था। खराब वातावरण और बदतर भोजन, कारागार में दी जाने वाली अमानवीय यातनाओं को और भी असहनीय बनाती थीं। कुछ कैदी अपना मानसिक संतुलन खो बैठते थे तो कुछ कैदियों ने इन यातनाओं से छुटकारा पाने के लिए आत्महत्या तक कर ली। इस नर्क का यमराज था क्रांतिकारियों को पीड़ा देनेवाला अत्याचारी क्रूर जेलर डेविड बारी, जिसके अत्याचारों की साक्षी कारागार की हर दीवार है।

लेकिन पोर्ट ब्लेयर के दूसरे जेलर के बारे में हम कम ही जानते है। वीर सावरकर के सैनिकीकरण अभियान से प्रभावित होकर मूल रूप से महाराष्ट्र के मराठवाड़ा के रहने वाले अठारह वर्षीय युवक गोविंदराव हर्षे द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सेना में भर्ती हुए। दस वर्षों तक सेना में सेवा देने के बाद वे 1950 में स्वतंत्र भारत की पुलिस सेवा में जुड़े। 1960 में हर्षे के जीवन में एक नया मोड़ आया, बात ऐसी थी कि, स्वतंत्रता के बाद भी सेल्युलर जेल का उपयोग स्थानीय कैदियों को कारागार में रखने के लिए किया जाता था। वहाँ के जेलर के निवृत्त होने के बाद नए जेलर की खोज जारी थी, हालाँकि मुख्य भूमि से सैकड़ो मील दूर होने कारण वहाँ बसने के लिए लोग कम ही तैयार होते थे। यह चुनौती हर्षे जी ने सहर्ष स्वीकार की। अपनी वीर सावरकर भक्ति के कारण हर्षेजीने अंडमान की भूमि को अपना नया कार्यक्षेत्र बनाया। जेलर के रूप में उन्होंने केवल कारागार का प्रबंधन ही नहीं किया बल्कि, अपने कार्यकाल में उन्होंने क्रांतिकारियों द्वारा उपयोग में लाई गई वस्तुएं इकट्ठा की, उनसे सम्बंधित दस्तावेजों का, जो जापानी आक्रमण के बाद भी बचे रह गए थे, रखरखाव किया। तेल निकालने के लिए उपयोग में लाए गए कोल्हू तथा अन्य अमानवीय यातनाएँ जो देशवीरों ने सही थी, उनसे सम्बंधित एक स्मारक भी गोविंदराव ने इस जेल में खड़ा किया। 1979 में सेल्युलर जेल को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया गया तब तक वे अपनी सेवाएँ देते रहे। इतना ही नहीं, जेल के मुख्य द्वार के सामने वीर सावरकर की प्रतिमा स्थापित करने में भी जेलर गोविंदराव हर्षे ने बड़ी भूमिका निभाई थी।

कारागार के दो कैदी
सेल्यूलर जेल में एक “छोटा बारी” भी था, चरमपंथी मजहबी वॉर्डन मिर्जा खान पठान (सजा ए कालापानी फिल्म में अमरीश पुरी ने इसकी भूमिका निभाई थी) जो क्रांतिकारियों विशेषकर हिंदू कैदियों पर निर्ममता से अत्याचार करने के लिए कुख्यात था। उसी के उकसावे से और निगरानी में हिन्दू कैदियों का धर्मान्तरण करने की प्रवृत्ति बढ़ी थी, इसीलिए सावरकर का मिर्ज़ा ख़ान से संघर्ष भी होता था।

अंडमान में एक कैदी था फकीर मोहम्मद, जिसे बाद में लखनऊ स्थानांतरित किया गया। उस वक्त लखनऊ जेल में काकोरी अभियोग के क्रांतिकारी भी रखे गए थे। मन्मथनाथ गुप्त अपने संस्मरण में लिखते है कि, फकीर मोहम्मद, वीर सावरकर और भाई परमानंद की बातें बड़े गर्व के साथ सुनाया करता था। कई बार वह (लखनऊ) जेल के अधिकारियों से भी भिड़ जाता था। उन्हें धमकाते हुए कहता था की तुम्हें पता है तुम किस से बात कर रहे हो? मैंने सावरकर के साथ कालापानी की सजा काटी है। हमने बारी जैसे जेलर को भी ठीक कर दिया था।

संसद के दो कालखंड
एक दौर वह भी था जब वीर सावरकर के निधन के बाद संसद में उनको श्रद्धांजलि देने से यह कहकर इन्कार कर दिया था कि, वे संसद के सदस्य नहीं थे, इसके बाद वह दौर आया जब वाजपेयी सरकार ने संसद में वीर सावरकर का तैलचित्र अनावरण किया तब कांग्रेस ने उसका बहिष्कार किया और आज वह दौर है कि वीर सावरकर की 140वीं जयंती पर भारत के नए संसद भवन का उद्घाटन होने जा रहा है। और हो भी क्यों न? वे इस सम्मान के सच्चे अधिकारी हैं।

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– अंदमान की जेल डायरी में सावरकरने लिखा था –
मुहिब्बाने वतन होंगे हजारों बेवतन पहले,
फलेगा हिन्द पीछे और भरेगा अंदमन पहले,
उन्हीं के सिर रहा सेहरा, उन्हीं को ताज कुर्बां हो,
जिन्होंने फाड़कर कपड़े, रखा सिर पे कफ़न पहले.

(मूल स्त्रोत: पियूष हर्षे, वि.श्री.जोशी, श्री.पु.गोखले)

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