सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने सोमवार (21 अक्टूबर) को कहा, “धर्मनिरपेक्षता (Secularism) भारतीय संविधान (Indian Constitution) की मूल संरचना का अभिन्न अंग है।” न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने पूर्व राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी, वकील विष्णु शंकर जैन और अन्य की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ (Socialist) और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को शामिल करने को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई (Petition) करते हुए यह फैसला सुनाया।
इस न्यायालय ने अपने कई निर्णयों में कहा है, ”धर्मनिरपेक्षता संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है।” पीठ ने कहा, ”समानता के अधिकार और संविधान में इस्तेमाल किये गये शब्द ‘बंधुत्व’ पर नजर डालने से स्पष्ट संकेत मिलता है कि धर्मनिरपेक्षता संविधान का अंतर्निहित गुण है।” कोर्ट पहले भी अपने कई फैसलों में इसे साफ कर चुका है। इन शब्दों की अलग-अलग व्याख्या हो सकती है। बेहतर होगा कि हम इन शब्दों को पश्चिमी देशों के संदर्भ में ना देखकर भारतीय संदर्भ में देखें।
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याचिका खारिज
जस्टिस संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली बेंच ने ये टिप्पणी संविधान की प्रस्तावना से समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता शब्दों को हटाने की मांग वाली याचिका पर सुनवाई के दौरान की। यह याचिका भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी, अश्विनी उपाध्याय और बलराम सिंह की ओर से दायर की गई है। इससे पहले 9 फरवरी को सुनवाई के दौरान जस्टिस दीपांकर दत्ता ने कहा था कि ऐसा नहीं है कि प्रस्तावना में संशोधन नहीं किया जा सकता है लेकिन सवाल ये है कि क्या तारीख को बरकरार रखते हुए प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है। जस्टिस दत्ता ने वकीलों से अकादमिक दृष्टिकोण से इस पर विचार करने को कहा।
सभी को समान अवसर चाहिए
“समाजवाद के कई अर्थ हैं और इसे पश्चिमी देशों द्वारा स्वीकार किया गया अर्थ नहीं माना जाना चाहिए। पीठ ने स्पष्ट किया, “समाजवाद का मतलब यह भी हो सकता है कि सभी को समान अवसर मिले और देश की संपत्ति समान रूप से वितरित की जाए।”
डॉ. अंबेडकर ने भी इन शब्दों का इनकार किया
भाजपा के वरिष्ठ नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने दायर याचिका में 42वें संविधान संशोधन के जरिये धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्दों को जोड़ने की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी है। याचिका में कहा गया है कि 42वें संविधान संशोधन के जरिये इन शब्दों को जोड़ना गैरकानूनी है। याचिका में कहा गया है कि संविधान बनाने वालों ने कभी भी संविधान में समाजवादी या धर्मनिरपेक्ष विचार को लाना नहीं चाहा। यहां तक कि डॉ. बीआर अंबेडकर ने भी इन शब्दों को जोड़ने से इनकार कर दिया था।
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